वाराणसी यानी महादेव का नगर, एक ऐसा शहर जो तमाम भागदौड़ से दूर अपनी अलग ही मस्ती में जीता है। वहाँ की गलियों से लेकर गंगा घाटों और उन घाटों पर होने वाली सुबह शाम की आरती, सबकुछ एकदम अगल और अनोखा नज़र आता है। अगस्त 2017 में मुझे भी वाराणसी जाने का मौका मिला था… मौका क्या मिला था, बस यूँ ही प्लान बन गया तो अकेले ही निकल लिया था। विभिन्न महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों और ऐतिहासिक धरोहरों के अपने आप में समेटे इस शहर को दो दिन में घूम पाना मुश्किल है लेकिन इन दो दिनों में जितना घूम सका उतना घूमा।
सुबह की ट्रेन पकड़कर बनारस पहुँचा तो सबसे पहले दशाश्वमेघ घाट गया। यह घाट और यहाँ होने वाली संध्या आरती विश्व प्रसिद्ध है। पहुँचकर सबसे पहले स्नान कर माँ गंगा को प्रणाम किया फिर पास की एक दुकान पर ताज़ी-ताज़ी छन रही पूड़ी सब्जी खाकर पेट पूजा की। चूंकि समय कम था इस लिए इस बार महादेव के दर्शन का विचार त्याग दिया था क्योंकि बाबा विश्वनाथ के दर्शन में लम्बी कतार थी जिसमें 2-3 घंटे का समय लग सकता था।
फिर शुरू हुआ घूमने का दौर…मैं सबसे पहले गंगा के किनारे बने सभी घाटों को देखना चाहता था इसलिए एक नाव पर सवार हो गया। नाव वाले ने मणिकर्णिका से लेकर हरिश्चन्द्र घाट तक की सैर कराई। नदी के बीच जाकर घाटों को देखना एक अलग ही नजरिया और रोमांच पेश करता है। इस दौरान ना सिर्फ इन घाटों की संरचना समझने का मौका मिला बल्कि घाटों के किनारे बनी ऐतिहासिक इमारतों को देखने समझने का भी मौका मिला। मैं अपने डीएसएलआर कैमरे से तस्वीरें उतारने में इतना व्यस्त और मंत्रमुग्ध हो गया था कि पता ही नहीं चला कि सैर समाप्त हो गई।
नाव यात्रा के बाद मैं नेपाली मंदिर गया, चूंकि अगस्त में पानी ज्यादा था तो घाटों की सीढ़ियाँ जलमग्न थीं जिससे एक घाट से दूसरे घाट पर जाने के लिए शहर की गलियों का सहारा लेना पड़ा था। इसमें थोड़ा समय ज्यादा लगा लेकिन इन्हीं गलियों में घूमते-घूमते घाटों के किनारे बसी बस्तियों के रहन-सहन और उनकी जीवनशैली के बारे में अच्छे से जानने का मौका मिला।
खैर, नेपाली मंदिर मुख्यतः लकड़ी की बनी एक मंदिर जो कि अपनी वास्तुकला यानी संरचना के लिए जाना जाता है। काली-काली लकड़ियों में उकेरी गई कलाकृतियाँ बेजोड़ लग रही थीं। इस मंदिर के आस-पास का बेहद शांत और सुरम्य माहौल आपको यहां थोड़ी देर और रुकने पर मजबूर करता रहता है। ललिता घाट पर बने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसको नेपाल के किसी राजा ने बनवाया था। इसलिए इसे नेपाली मंदिर भी कहते हैं।
इसके बाद अगला पड़ाव था मनिकर्णिका घाट। यह घाट मुख्य रूप से मुर्दों के दाह संस्कार का घाट है, जहाँ पर 24 घंटे चिताएँ चलती रहती है। हिन्दूओं में यह माना जाता है कि यहाँ दाह-संस्कार किए जाने वाले लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ आकर आपको जीवन के सत्य यानी मृत्यु को समझने का मौका मिलता है। आप कह सकते हैं कि यहाँ कुछ नहीं है लेकिन यकीन मानिए आपको यहाँ आकर जीवन की कुछ महत्वपूर्ण सीख जरूर मिलेगें।
अबतक 3-4 बज गए थे और मैं पैदल ही अस्सी घाट की तरफ चल पड़ा था, संकरी गलियों और बाजारों से होते हुए। बीच-बीच में कुछ दूसरे घाटों जैसे रीवा घाट और गणेश घाट होते हुए अस्सी घाट आ गए। बनारस का जिक्र हो और अस्सी घाट का जिक्र ना हो ऐसा लगभग असम्भव ही है। इसी घाट पर बैठकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना की थी और इसी घाट से गंगा के किनारे बसे सैकड़ों घाटों की शुरुआत होती है। अस्सी घाट पर आप सिर्फ घूमते नहीं हैं बल्कि पूरी सदी को जीते हैं। यहाँ पता चला कि सुबह में यहाँ आरती और योग कार्यक्रम होता है, तभी मैंने तय कर लिया कि कल यहाँ ज़रूर आउँगा। अबतक शाम हो चुकी थी और अब वापस आना था दशास्वमेघ घाट क्योंकि हर शाम यहाँ होने वाली विश्व प्रसिद्ध आरती को मैं मिस नहीं करना चाहता था।
शाम के सात बजे तक मैं दशाश्वमेघ घाट वापस आ गया था। यहाँ का नज़ारा बिल्कुल बदल चुका था। ढोल-मजीरे सज चुके थे। शाम की आरती से पहले यहाँ भजन होती है जो मेरे कानों बहुत सुकून दे रहे थे। यहाँ का पूरा माहौल आपके भजन में डुबा देता है। बीच-बीच में लगने वाले जयकारे तो मानों मुझमें उत्साह की लहर पैदा कर रहे थे। कुछ देर बाद आरती शुरू हुई और अबतक यहाँ पर लगभग दस हजार लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी। घाटों से ज्यादा लोग तो गंगा में खड़ी बड़ी-बड़ी नावों में बैठकर आरती को महसूस कर रहे थे। आरती के दौरान ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी दूसरी दुनिया में आ गया हूँ और विश्वास नहीं हो रहा था कि यहाँ यह रोज होता है।
आरती के साथ ही दिन की समाप्ति हो गई और इस एक दिन के वाराणसी भ्रमण में मानों मैने एक महीने जी लिया हो।
अगर आप अस्सी घाट को यादगार बनाना चाहते हैं, तो हम यही कहेंगे कि आप सुबह के 5:00 बजे तक अस्सी घाट पहुँच जाएँ क्योंकि अस्सी घाट पर होने वाली सुबह की आरती ठीक 5:30 बजे शुरू हो जाती है। आरती खत्म होने के बाद वहाँ आप योग शिविर में भाग लेकर अपने शरीर को स्वस्थ रखने के गुर सीख सकते हैं।
दूसरे दिन मैंने सुबह पहुँचने की कोशिश थी पर पिछले दिन की थकान की वजह से पूरे आधे घंटे लेट हो गया था और आधे घंटे में तो आरती खत्म हो चुकी थी पर हाँ योग शिविर में को अपने कैमरे से शूट करने में बड़ा मज़ा आया था। वहाँ पर दर्जनों की संख्या में विदेशी भी योग करने पहुँचते हैं, योग करते समय उनकी भाव भंगिमा देखने लायक होती है। एक महिला विदेशी पर्यटक जिसकी सुबह मैंने फोटो खींची थी वो दोपहर बाद मुझे स्टेशन पर दिख गई। मैंने उसको बताया कि मैंने आपकी कुछ पिक्चर्स क्लिक की है तो उसने दिखाने को बोला। दिखाया तो वो अपने ही तमाम एक्सप्रेशन्स देखर सरप्राइज्ज थी, कहने लगी शेयर कर दो पर उसके कैमरे की तरह मेरे कैमरे में वाई-फाई की सुविधा नहीं थी। उसके दूसरे साथी ने अपना नम्बर देते हुए कहा था कि इसपर व्हाट्सएप कर देना। मन तो उन दोनों से और बात करने का था पर उनको भी जल्दी थी और मुझको भी। और इस तरह लगभग 36 घंटों का सफर इलाहाबाद आकर खत्म हो गया।