
सूरज ढलने के बाद वहाँ लोग दिखाई नहीं देते। रात यूँ सुलगती है वहाँ पर, मानो जन्मों का गहरा सन्नाटा वहीं का जना हो। कुत्ते चाँद को देखकर भौंकते नहीं, एक धीमी-सी चुप्पी ओढ़े वहाँ के लोग किसी कोने में बैठकर सो जाते हैं। किसी को अपने मन की ख़ुशी दिखाने का कोई बहाना नहीं, मौत का गहरा सन्नाटा चीखता है गंगा किनारे इस मणिकर्णिका घाट पर।
ओशो कहते हैं कि जहाँ मय्यतें जलती हों, उन श्मशानों को शहर के ठीक बीच में होना चाहिए। ताकि लोगों की नज़र बार-बार उस सच पर पड़ती रहे जिससे बचने का ढोंग वो ज़िन्दगी भर करते हैं।
दशाश्वमेध घाट से शुरू हुआ मेरा सफ़र मणिकर्णिका घाट पर जाकर ठहर गया। घंटों तक मैं उस जगह को समझने की कोशिश कर रहा था। किसी से ज़्यादा पूछने की हिम्मत थी नहीं, तस्वीरें लेने के पहले लोगों की आँखों में देखता था कि कहीं कोई मुझे तो नहीं देख रहा। मणिकर्णिका घाट के लोगों की आँखें आँसुओं की आँच में सुर्ख़ हो चुकी हैं। ज़्यादा कुछ पूछ नहीं सकते आप उनसे।
एक नाई बैठा है, जो सर पर ठंडा पानी छुआकर तेज़ी से रगड़ता है और उस्तरा चलाकर सारे बाल किनारे कर देता है। हर घाट पर आपको सिर मुंडाए लोगों की अच्छी तादाद मिल जाएगी, जिनमें महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है। हाँ, ठीक पढ़ा, महिलाएँ वो भी सिर मुंडाए हुए।
आप कभी ग़ौर करना, किसी भी धर्म में महिलाओं के बाल हमेशा लम्बे होते हैं।कोई महिला अगर अपने बाल अर्पित कर रही है तो ज़रूर कोई बड़ी बात रही होगी।
सबसे पहले, मणिकर्णिका का ऐतिहासिक पहलू
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बनारस को काशी भी कहते हैं। भगवान शिव की पूजा हर जगह होती है यहाँ पर। लेकिन ऐतिहासिक रंग में देखें तो पूरा का पूरा काशी भगवान विष्णु का है। सदियों से भगवान शिव की पूजा होने के कारण उनकी चरणपादुका, भगवान विष्णु की चरणपादुका के रूप में चिह्नित हुई।
बरसों पुरानी बात है, भगवान शिव और माता पार्वती बनारस के ही चक्रपुष्पकरिणी कुण्ड में स्नान कर रहे थे। स्नान करते समय ही भगवान शिव की कर्णिका की मणि इस कुण्ड में गिर गई। भगवान शिव ने इस कुण्ड को चक्रपुष्पकरिणी मणिकर्णिका कुण्ड का नाम दिय और लोगों ने बाद में इस घाट का नाम मणिकर्णिका घाट रख दिया।
यहीं से शुरू होता है मणिकर्णिका का आध्यात्मिक सौन्दर्य
मणिकर्णिका घाट मतलब वो जगह, जहाँ हर बनारस वाला अपने जीवन का आख़िरी सफर करता है। मरणं मंगलं यत्र विभूतिश्च विभूषणम्, कौपीनं यत्र कौशेयं सा काशी केन मीयते। यानि मरना मंगलकारी है जहाँ, वो जगह काशी के अलावा और क्या हो सकती है।
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धधकता है जिस्म उसका, जब कई मन लकड़ी और घी के बीच उसको मुखाग्नि अर्पित की जाती है। आग की लपटें उठती हैं तो चमड़ी का कार्बन चट्ट चट्ट बजता है और धुआँ पूरे घाट में एक न भूलने वाली गंध के साथ तैरने लगता है।
वही जिस्म जिसको संतुष्ट करने के लिए कितनों की आत्मा नोंच नोंच के चबा खा डाली थी, वही ख़ूबसूरत जिस्म जिसको पाने के लिए लार टपकाते रहते थे, हाँ वही जिस्म, जिसको जिम में लोहा उठा उठा कर तराशा था। अब देखो धधक-धधक कर पूरे माहौल को बदबूदार कर रहा है, चील कौए अब उसको नाश्ते की नज़र से देख रहे हैं।
देखो, जानो और अपनी आत्मा में बिठा लो कि उस जिस्म की अब कोई क़ीमत नहीं है इस दुनिया में। इंसान तो वो बचा नहीं, उसके घर वाले भी उसको बॉडी बोल रहे हैं। जब शरीर जल रहा होता है तो एकदम से आग नहीं पकड़ता, काफ़ी देर तक तो वो फूलता रहता है। किसी ने अन्दर गैस भर दी हो जैसे। हाँ, यही हम हैं, यही सत्य है हमारा- तुम्हारा।
अन्त में बचती है तो एक मुट्ठी राख। ये बची हुई राख माँ गंगा को अर्पण हो जाती है। और एक जीवन अपनी अन्तिम यात्रा पर गोलोक की ओर निकल जाता है।
ये सच है, यही होना है, यही होता है, और यही होकर रहेगा। आप साथ लेकर जाओगे तो कुछ यादें जो आपने किसी के साथ बाँटी थीं; किसी के साथ हँसे थे; किसी के साथ रोए थे; किसी की आँखों में आँखें डालकर प्यार के तीन शब्द कहे थे। और बिना किसी सवाल किए किसी की दुनिया से एक पल में निकल गए थे। दुनिया में जितने बनारस वाले आपको मिले हों, सबकी इच्छा इसी मणिकर्णिका पर आकर भस्म होने की है।
सब हो जाता है, लेकिन हम जीवन भर उसकी परवाह करते रहते हैं जो साथ जाएगा ही नहीं, जो कभी हमारा था भी नहीं, जो कभी हमारा हो भी नहीं सकता। सारे धागे खुल जाते हैं यहाँ, सब ज्ञान मिल जाता है। बस लोगों को देखो, जानो कोई यहाँ क्यों है। यहाँ आने से पहले कैसा था, और जाने के बाद कैसा होगा। एक जिस्म को ही जलाकर गया है, बाक़ी क्या किया यहाँ।
और अगर वो जान गए जो यहाँ अनछुपा रहस्य है, जिसे कोई नहीं बताता, जो शायद कोई बता भी नहीं सकता, तो सारा दुःख मिट जाएगा जीवन से, हर लम्हे में ज़िन्दगी जी लोगे, बिना किसी बाहरी ख़ुशी के। बिना कहीं जाए, बिना कहीं घूमे।
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ये वो है जो मैंने कहीं और नहीं देखा, अस्सी की गंगा आरती देखी, दशाश्वमेध घाट पर तस्वीरें खिंचाईं। लेकिन मणिकर्णिका ने मुझे जिस तरह खींचा है, मैं उससे अभी तक बाहर नहीं निकल पाया। आपके क्या विचार हैं इस आर्टिकल के बारे में, कमेंट बॉक्स में मुझे बताएँ।
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