पिछले पोस्टों में आपने पढ़ा - पहले जमशेदपुर से काठमांडू तक की बस यात्रा, फिर काठमांडू से लेकर पोखरा तक के दिलकश नज़ारे। इन चार पांच दिनों में मन इस हिमालयी देश में पूरी तरह रम चुका था। क़भी भी यह महसूस ही नहीं हुआ की हम किसी दूसरे देश में घूम रहे हैं, बल्कि सबकुछ अपने देश जैसा ही था वहां। वक़्त भी अब वापसी का हो चला था और पोखरा से विदा लेने की बारी आ गयी। इस बार हमने भारत-नेपाल के एक अन्य सीमा सनौली बॉर्डर जो
रात भर की ट्रेन यात्रा कर सुबह पांच बजे हम बनारस आ चुके थे। बनारस आते ही यहाँ के कुछ खास स्थलों को देखने की इच्छा हुई। पहले तो हमने काशी-विश्वनाथ मंदिर की तरफ कदम बढ़ाया, संकरी गलियों में दोनों किनारे ढेर सारे फूल-पत्तों और पूजा के सामान के दुकान लगे हुए थे। गन्दगी का भी खूब अम्बार लगा था। एक दुकान वाले ने कहा की आपलोग यहाँ सामान रख सकते हैं, सो हमने रख दिया लें फिर उसने दो सौ रूपये का सामान खरीदने की शर्त लगा दी। इसी में हमारा उससे विवाद हो गया। वैसे भी पूजा-पाठ में तो मेरी दिलचस्पी कभी नहीं रही, सिर्फ इलाका देखकर ही हम संतुष्ट हो गए।
बनारस गंगा के लिए भी प्रसिद्द है, इसीलिए मंदिर के बाद हमारा अगला कदम राजेंद्र घाट की ओर था। गंगा की विशालता सचमुच ही अद्भुत थी। इस घाट के समीप ही एक ऐतिहासिक स्मारक है- मानमहल एवं वेधशाला। मान मंदिर के नाम से विख्यात इस महल का निर्माण अजमेर के राजा मान सिंह द्वारा लगभग 1600ई में किया गया था। तत्पश्चात जयपुर नगर के संस्थापक महाराज सवाई जय सिंह द्वितीय (1699-1743ई) में इसकी छत पर प्रस्तर की वेधशाला का निर्माण किया। वाराणसी के अलावा दिल्ली, जयपुर, मथुरा व् उज्जैन में भी खगोलशास्त्र के अध्ययन हेतु उन्होंने ऐसी वेधशालाओं का निर्माण किया गया है। समय का बिलकुल सटीक पता लगाने में यह यन्त्र उस समय काफी कारगर था, हमने तो जांच भी कर लिया था।
इसके बाद अगला कदम एक और ऐतिहासिक स्थल गंगा के पूर्वी घाट स्थित रामनगर किला की ओर था। तुलसी घाट के विपरीत तट पर बने इस किले को काशी नरेश राजा बलवंत सिंह ने 1750 इसवी में बनवाया था, आज भी उनके वंशज अनंत नारायण सिंह यहाँ के वर्तमान राजा हैं, लेकिन राजा की उपाधि 1971 में ही समाप्त हो चुकी थी। गंगा किनारे बना यह किला मुग़ल शैली में बालू पत्थर से बना हुआ है। दिलचस्प तथ्य यह है की इस किले को काफी ऊंचाई पर गंगा की बाढ़ सीमा से ऊपर बनाया गया है। अंदर एक संग्रहालय है जिसे सरस्वती भवन के नाम से जाना जाता है, और वहाँ ब्रिटिश शासन काल के अवशेष जैसे की गाड़ियां, बंदूकें, राइफल, हथियार वगेरह आज भी रखे हुए हैं। भीषण गर्मी में अब घूमना बड़ा भारी पड़ रहा था। इसीलिए बनारस में यही हमारा अंतिम पड़ाव रहा।
अब अंतिम ट्रेन हमें मुगलसराय से पकड़नी थी जो गंगा पार बनारस से 16 किमी दूर है। टाटा जाने वाली ट्रेन इंटरनेट के अनुसार दो बजे आने वाली थी लेकिन दुर्भाग्यवश वो बारह बजे ही आकर चली गयी। कन्फर्म टिकट गवाने का भारी अफसोस था। अब तो दूसरी ट्रेन में जनरल टिकट से ही यात्रा करना एकमात्र उपाय था। एक अन्य ट्रेन में आठ घंटों तक जनरल बोगी में मुगलसराय से आद्रा तक का सफ़र काफी दमघोटू रहा। फिर आद्रा से टाटा तक का सफ़र ठीक ठाक ही रहा।
अब एक नजर इन तस्वीरों पर भी-
इस तरह नेपाल की रोमांचक यात्रा अब समाप्त होती है।
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