केदारनाथ यात्रा से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें। ऋषिकेश में पार्किंग से ऐसे ही भूखे और उबासियाँ लेते हम आगे पहाड़ों पर बढ़ चले थे। 2013 में आयी आपदा के बाद सरकार उत्तराखंड की ओर विशेष ध्यान दे रहीं है और इसी के अंतगर्त चारों धामों को जोड़ने वालों मार्गों और कुछ अन्य मुख्य मार्गों को चौड़ा किया जा रहा है। पहाड़ की कटाई का काम तो पूरा हो चुका है और अब पक्के रोड का निर्माण तेज़ी पर है और यह भी अधिकांश जगहों पर पूरा हो चुका है। वैसे तारीफ करनी चाहिए की जो रोड बने हैं वे बहुत ही शानदार हैं, वो बात अलग है की पहाड़ों की कटाई की वजह से भूस्खलन और भी बढ़ गया है।
बारिश तो नहीं हो रही थी लेकिन मौसम अवश्य बारिश का बना हुआ था और ऐसा लग रहा था की ऊपरी पहाड़ों पर बारिश हो रही है। पहाड़ हमेशा ही खूबसूरत होते हैं लेकिन जब बात चरम सुंदरता की आती है तो वो बरसात का मौसम ही है जब इसे देखा जा सकता है। हल्का सर्द मौसम, हर और फैली हुई हरियाली और उन पर उमड़ते - घुमड़ते बादल बेहतरीन दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक बात जो थोड़ी सी नापसंद हैं, वो यह है की इस मौसम में नदियों का पानी बेहद मटमैला हो जाता है... खैर यह भी प्रकृति का ही एक रूप है।
(आप मेरे 100 से भी अधिक अन्य यात्रा अनुभव मेरे ब्लॉग http://www.yatrinamas.com/ पर भी पढ़ सकते हैं।)
यहाँ से आगे बढ़ते जा रहे थे कि स्थान पर गंगा नदी का विशाल स्वरुप और उस पर झूलता सस्पेंशन ब्रिज दिखा। आबादी के नाम पर केवल एक चाय का खोमचा ही था। नदी के उस और कुछ कैम्प्स थे। हमने यहीं अपना पहला पड़ाव लिया। चाय - नाश्ता करके चल पड़े झूलते पुल पर। बहुत खूबसूरत दृश्य है यहाँ का। यदि आप कभी अपनी गाड़ी से इधर आएँ तो यहाँ कुछ समय अवश्य बितायें। वैसे जगह का नाम मुझे पता नहीं। कुछ देर यहाँ बिताने के बाद आगे चल पड़े।
रास्ता अच्छा तो था लेकिन कई जगह गड्ढे भी खतरनाक ही थे और कहीं - कहीं पहाड़ की कटाई काम चलने के कारण यातायात रोका जा रहा था। यह थोड़ा बुरा लग भी रहा था और नहीं भी। बुरा इस लिए की हमें रुकना पड़ रहा था और अच्छा इसलिये की इसी बहाने प्रकृति दर्शन भी अच्छे से हो जा रहे थे और फोटोग्राफी भी। वैसे उम्मीद थी की देवप्रयाग के आगे रास्ता अच्छा मिलना चाहिये।
यह तय था की तीन धारा के आस - पास भोजन किया जाए और देवप्रयाग में एक घंटे की सैर लेकिन समय इतना नहीं था इतनी बार रुका जाये। समय से याद आया एक एक दिन पहले ही संगीता जी का मैसेज आया था। उनके भाई बीनू कुकरेती जी का देवप्रयाग से लगभग 20 किलोमीटर आगे जयालगढ़ में रिसोर्ट है। उन्होंने हमसे उनके भाई से मिलते हुए जाने को कहा था। बीनू जी भी फेसबुक पर दोस्त हैं, उनसे आज सुबह ही बात की और बता दिया की दिन में 11:30 बजे के आस - पास हम जयालगढ़ Jayal Garh पहुंचेंगे।
सुबह 10 बजे से पहले हम देवप्रयाग पहुँच चुके थे। अब कोई अपनी गाड़ी से केदारनाथ जाये और देवप्रयाग में न रुके ऐसा हो ही नहीं सकता।
देवप्रयाग वही वह स्थान है जहाँ भागीरथी को गंगा के नाम से जाना गया। यहाँ गोमुख से आने वाली भागीरथी और बद्रीनाथ के आगे सतोपंथ से आने वाली अलखनंदा नदियों का संगम है। इन्हीं दोनों नदियों के संगम से बनने वाली नदी को आगे गंगा के नाम से जाना जाता है। समुद्रतल से 830 मीटर की ऊँचाई पर बसा यह स्थान टिहरी गढ़वाल क्षेत्र में है। देखने के लिए कुछ ज़्यादा नहीं तो कम भी नहीं है यहाँ। संगम पर बैठे - बैठे कब शाम हो जायेगी, शायद आपको पता भी न चले। संगम स्थल से थोड़ी ऊपर जाने पर रघुनाथ मंदिर है। एक बात और, हिंदी फिल्म किसना का गाना 'हम हैं इस पल यहाँ' यहीं फ़िल्माया गया था। देवप्रयाग से सीधा जाने वाला रास्ता गाज़ा और खाड़ी की ओर चला जाता है और दाहिनी ओर पुल पार करके जाने वाला रास्ता हमारी मंज़िल की ओर। मुख्य रास्ते से ही एक छोटा सा रास्ता देवप्रयाग संगम की ओर जाता है। हम उधर ही चल पड़े।
हम दिल्ली - एनसीआर वाली चाहे अपने आप को कितना भी शहरी और सभ्य कह लें लेकिन वास्तविकता उलट ही है। देवप्रयाग एक बहुत ही छोटा सा क़स्बा है, हर ओर संकरी गलियाँ लेकिन स्वच्छता के मामले में तथाकथित महानगरों से कहीं आगे। गली में जगह - जगह कूड़ेदान रखे हुए हैं और लोग कूड़ा उसी में डालते हैं। कचरे का नामों - निशान नहीं। अधिकतर दुकानों का सामान अंदर ही रखा हुआ है।
बरसात का मौसम होने के कारण बाढ़ संगम तट पूरी तरह पानी में डूब चुका था। पितृपक्ष का अंतिम दिन होने के कारण अच्छी - खासी भीड़ थी। ज़्यादातर लोग पिण्डदान के लिये आये हुए थे। नहाने की बहुत इच्छा थी लेकिन कपड़े तो हम गाड़ी में छोड़ आये थे, इसलिये गंगा मैया को प्रणाम किया, फोटोग्राफी की और वापसी कर ली। संगम से थोड़ा पहले एक स्कूल है, मध्यांतर होने के कारण बच्चे बाहर ही खेल रहे थे। बच्चों की फोटो लेना मुझे बहुत पसंद है और यही शौक मुझे विद्यालय प्रांगण के अंदर तक ले गया। डिज़िटल कैमरा होने के बावजूद भी मैं मोबाइल से ही फोटो लेना पसंद करता हूँ, थोड़ा सुविधाजनक है न इसीलिये।
मुख्य रास्ते पर आने की बाद पराठों का भोग लगाया। पराठे अच्छे थे, वैसे उम्मीद नहीं थी की ये पराठे ही पुरे सफ़र में साथ देने वाले हैं। भागीरथी पार करके हम बढ़ चले अलकनंदा के साथ - साथ। मैं थोड़ा सा अलर्ट था, जयालगढ़ जो जाना था। हम आगे बढ़ते जा रहे थे मेरी नज़र रास्ते में पड़ने वाले हर बोर्ड को टटोल रही थी की कहीं ज़ायालगढ़ रिसॉर्ट वाला बोर्ड तो नहीं लेकिन हम देखते ही देखते कब कीर्ति नगर से होते हुए श्री नगर पहुँच गये पता ही नहीं चला। बीनू जी और संगीता जी को मैसेज करके क्षमा मांगी।
श्रीनगर ?
नहीं - नहीं, यह कश्मीर वाला श्रीनगर नहीं है। उत्तराखंड में भी है एक श्री नगर और यह गढ़वाल का सबसे बड़ा शहर है। ब्रिटिश सरकार ने इसे गढ़वाल की राजधानी भी बनाया था। एक आम शहर की तरह यहाँ सभी सुविधाएँ मौजूद हैं जैसे कि हेमवती नंदन बहुगुणा विश्ववविद्यालय, पॉलिटेक्निक, बड़े हस्पताल आदि। यहाँ अलकनंदा एक बड़ी घाटी बना कर बहती है। पहाड़ी शहरों में अब तक मुझे दो ही शहर सबसे अधिक पसंद आयें हैं, पहला है उत्तरकाशी और दूसरा श्रीनगर।
शहर के बाहर धारी देवी का मंदिर स्थित है जो नदी के बीच में बना है। कहा जाता है की मंदिर की स्थापना श्री आदि शंकराचार्य ने की थी। अलकनंदा नदी पर बन रही जल विद्द्युत परियोजना के कारण सरकार ने मंदिर को स्थानांतरित करने का आदेश दिया था, जिसका स्थानीय निवासियों ने कड़ा विरोध किया। इस कारण पिलरों के सहारे मंदिर को थोड़ा ऊपर उठा दिया गया। स्थानीय निवासियों की मान्यता है की 2013 की आपदा माता की मूर्ति को अपने स्थान से हटाने के कारण ही आयी थी, लेकिन ऐसा क्यों होगा ? माता ऐसा क्यों करेंगी ?
अब मुझे यहाँ नींद आने लगी थी लेकिन सोना नहीं था। श्रीनगर पार करके धारी देवी मंदिर पहुँचे। मैं, विवेक और आलोक मंदिर में दर्शन करना चाहते थे। वैसे मंदिर मुख्य मार्ग से बहुत नीचे है और नदी के बीच में है, लेकिन जाना तो था। देबासीस और गौरी को कार में ही छोड़ कर मंदिर की ओर चल पड़े। बारिश शुरू हो चुकी थी और अब यह बारिश पुरे सफ़र में साथ ही रहने वाली थी।
अलकनंदा नदी के बीच में स्थित यह मंदिर बहुत सुन्दर है। मंदिर के अंदर माँ धारी देवी पिंडी रूप में हैं। मान्यता अनुसार धारी देवी काली माता का ही रूप हैं और मंदिर की स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। माता सती के शरीर के अंग यहाँ गिरे होने के कारण इसे शक्तिपीठ का दर्जा भी प्राप्त है।
दर्शन करके लौटने तक बारिश तेज़ हो चुकी थी और अब हमें बिना रुके रुद्रप्रयाग पार कर जाना था। अलकनंदा नदी पर हाइड्रोपावर प्लांट होने के कारण बहुत बड़े क्षेत्र में नदी एक रिज़र्वर के रूप में परिवर्तित हो गयी है लेकिन उसके कारण यहाँ कालियासौड़ के पास नदी का दृश्य देखते ही बन पड़ता है। बरसात का मौसम होने के कारण पानी मटमैला हो गया था अन्यथा यहाँ पानी हल्का नीला रंग लिए हुए है और जब पहाड़ का प्रतिबिम्ब उसमें पड़ता है तो ऐसा लगता है जैसे की प्रकृति ने ज़मीन पर शीशा बिछा दिया हो।
आप जैसे - जैसे इस सफर में बढ़ते जाते हैं घाटी की ख़ूबसूरती बढ़ती जाती है। अलकनंदा नदी का गहरा नीला रंग इस स्वर्ग के समान बनाता है। श्री नगर से लगभग 35 किलोमीटर की यात्रा करके 1 बजे तक हम रूद्रप्रयाग पहुँच चुके थे। रुद्रप्रयाग में केदारनाथ से आने वाली मन्दाकिनी और अलकनंदा का संगम है। बस स्टैंड के पास ही एक छोटा सा आर्मी का डीपो है जिसमे सेना की कुछ पुरानी गाड़ियाँ खड़ी है।
लेकिन हमे रुद्रप्रयाग शहर में नहीं जाना था। शहर से पहले ही मार्ग दो भागों में बट जाता है। सीधा मार्ग अलखनंदा के साथ - साथ बद्रीनाथ से होते हुए माणा पास तक जाता है और बायीं ओर नीचे बाई पास की ओर जाता मार्ग मंदाकिनी घाटी से होते हुए गौरी कुंड तक जाता है। हमें बायीं ओर जाना था। रुद्रप्रयाग बाई पास शहर के सामने मंदाकिनी की दूसरी ओर से होकर जाता है और शहर ख़त्म होते ही फिर से मुख्य मार्ग में मिल जाता है।
मन्दाकिनी जिस घाटी से होकर गुज़रती है वह बहुत सी शानदार है। ज्यादातर जगहों पर चौड़ाई कम ही है। तिलवाड़ा और अगत्स्यमुनि शहर पार करते ही रास्ता बेहद ख़राब है और अब इसे अधिकतर स्थानों पर ख़राब ही मिलना था। पहाड़ों की कटान और भूस्खलन के कारण हर जगह कीचड़ हुआ पड़ा है। हम जैसे - तैसे आगे बढ़ते जा रहे थे लेकिन अब सबसे बड़ी चिंता कार की थी। हम वैगनआर में यात्रा कर रहे थे और आप सभी जानते ही होंगे की ऐसी छोटी कारें ऐसे पहाड़ी रास्तों के लिये नहीं बनी हैं। हमें तय कर लिया था की वापसी ऊखीमठ, चोपता से होते हुए गोपेश्वर के रास्ते से करेंगे।
खैर.. जैसे - तैसे तिलवाड़ा, अगत्स्यमुनि, स्यालसौर, चंद्रापुरी और, भीरी होते हुए हम कुंड पहुँच गए। यहाँ से सीधा रास्ता ऊखीमठ होते हुए चोपता और गोपेश्वर चला जाता है। इसे बदरीनाथ लिंक रोड भी कहा जाता है क्योंकि गोपेश्वर से बदरीनाथ पहुँचा जा सकता है। बायीं ओर मंदाकिनी पर बना पुल पार करके हम गुप्तकाशी की ओर बढ़ चले।
गुप्तकाशी इस यात्रा का अहम् पड़ाव है। बहुत से यात्री अपना पहला पड़ाव यहीं डालते हैं और अगले दिन ही आगे की यात्रा आरम्भ करते हैं। हमें यहाँ रुकना नहीं था। अब शाम का हल्का अँधेरा घिर आया था और इसी अँधेरे में हम आगे बढ़ते जा रहे थे। उम्मीद थी की अब रास्ता अच्छा मिलेगा लेकिन असली परीक्षा तो अब शुरू हुई थी। एक तो अँधेरा और ऊपर से हर ओर बारिश और भूस्खलन के कारन तहस - नहस रास्ता। ज़बरदस्त कीचड़, छोटे - बड़े पत्थरों से टकराते हुए हम धीरे - धीरे आगे बढ़ रहे थे और मन में यही चिंता थी की यदि गाड़ी ख़राब हुई तो रात यहीं बितानी पड़ेगी।
कुछ देर में फाटा आया, यहाँ से केदारनाथ के लिये हेलीकाप्टर उड़ान भरते हैं। फाटा को देख कर तो ऐसा लगता है की यहाँ हर घर हेलीकॉप्टर सेवा देता होगा। जगह - जगह हेलीकॉप्टर खड़े दिख रहे थे, मानों हेलीकॉप्टर न हों कोई ट्रेक्टर या कार हो। फाटा से निकलते ही रास्ता और ज़्यादा ख़राब हो चुका था और हर ओर घुप्प अँधेरा। एक जगह पर जाकर गाड़ी बिलकुल फंस गयी.... इसलिये सभी को उतरना पड़ा, तब जाकर गाड़ी निकल पायी। थोड़ा आगे बढे थे की सीतापुर आया।
सीतापुर को सोनप्रयाग का ही हिस्सा माना जा सकता है और सुविधाओं के मामले में शायद यह सोनप्रयाग से बेहतर है। यहाँ बड़े - बड़े होटल और बस अड्डा स्थित है। एक बार तो ऐसा लगा की यही सोनप्रयाग है लेकिन सीता पुर का बोर्ड देख कर हम आगे बढ़ चले। अँधेरे में लड़खड़ाते हुए हम जैसे - तैसे रात 8 बजे तक सोनप्रयाग पहुँच चुके थे।
समुद्रतल से 1829 मीटर की ऊँचाई पर स्थित सोनप्रयाग में मंदाकिनी और बासुकी नदियों का संगम है। केदारनाथ के मार्ग पर स्थित अपने नदियों के पवित्र जल के कारण इस स्थान का अत्यधिक धार्मिक महत्व है। यहीं से एक रास्ता यहाँ से 13 किलोमीटर दूर त्रियुगीनारायण तक जाता है। त्रियुगीनारायण में ही भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था।
चाहे आप अपने वाहन से हों या सार्वजनिक वाहन से, आपका सफ़र यहीं समाप्त हो जायेगा। हरिद्वार / ऋषिकेश और अन्य स्थानों से आने वाली बसें और टैक्सियाँ यहीं छोड़ देती हैं और यदि आप आप अपने वाहन से हैं तो यहीं पार्किंग में आपको वाहन खड़ा करना पड़ेगा। यहाँ से पांच किलोमीटर आगे गौरी कुण्ड तक सफ़र लोकल शेयर्ड टैक्सियों द्वारा तय करना होता है।
यहीं पार्किंग में कार खड़ी कर दी और पास ही एक होटल में 800 रुपये में कमरा मिल गया। लगभग 20 घंटो का सफ़र तय करने के कारण अधिक हिम्मत तो बची नहीं थी की आस - पास की सैर की जाये, अतः रजाई का ही सहारा लेना सही समझा।
आज का सफ़र यहीं तक। अगले भाग में लेकर चलेंगे आपको बाबा केदारनाथ के धाम। सोनप्रयाग से केदारनाथ धाम तक। अगला भाग पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें।