शहर जकड़ने लगता है और पहाड़ जीना सिखाता है। जब लगता है कि ज़िंदगी घड़ी की सुई से चलने लगी है तो इससे छुटकारा नएपन से ही आता है। नयापन कुछ ऐसा हो कि दिल ही नहीं आत्मा भी खुश हो जाए। तब किसी ऐसी जगह पर चले जाना चाहिए जहाँ सुकून हो। मुझसे वो सुकून पूछेंगे तो पहाड़ होंगे। पहाड़ों में प्रकृति का सुकून भी होता है और धर्म का पहलू भी है। उत्तराखंड का एक शहर ऐसा ही है जो प्रकृति से भी जुड़ा हुआ है और धर्म से भी। ये वो शहर है जहाँ भागीरथी और अलकनंदा का संगम होता है, जिसके बाद ही ये नदी गंगा कहलाने लगती है। उत्तराखंड के इस प्राचीन नगर ‘देवप्रयाग’ ने आधुनिकता के दौर में भी अपनी पुराने वैभव को नहीं खोया है। ये शहर पहले भी मंदिरों से भरा हुआ था और आज भी ये शहर प्राचीन मंदिरों के लिए फेमस है।
उत्तराखंड का प्राचीन नगर देवप्रयाग, ऋषिकेश से लगभग 70 कि.मी. दूर है। चीनी यात्री ह्रेनसांग ने अपने लेखों में देवप्रयाग को ब्रम्हपुरी कहा है। सातवीं सदी में इसे ब्रम्हतीर्थ और श्रीखंड भी कहा जाता था। दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रंथ ‘अरावल’ में इसे कंडवेणुकटि नगरम के नाम से पुकारा गया है। 1000 ईस्वी से 1083 ईस्वी तक पूरे गढ़वाल की तरह देवप्रयाग भी पाल वंश के अधीन रहा, जो बाद में पवार वंश के शाह कहलाए। इस शहर के प्राचीन मंदिर रहस्य से भरे हुए हैं। हम धर्मनगरी की बात करते हैं तो हरिद्वार और ऋषिकेश का ज़िक्र करते हैं लेकिन देवप्रयाग को भूल जाते हैं। तो चलिए उत्तराखंड के उसी प्राचीन नगर ‘देवप्रयाग’ के सफर पर चलते हैं जहाँ की प्राचीनता में ही रहस्य छुपा हुआ है।
रघुनाथ मंदिर
पूरे देश में आधुनिकता कितनी भी बढ़ गई हो लेकिन देवप्रयाग ने अपने पुराने वैभव को नहीं खोया। इस नगर में प्राचीन रघुनाथ मंदिर भी है। शहरी के उपरी भाग में एक चबूतरे पर पर बिना किसी चूने-सीमेंट के पत्थरों का बना ये मंदिर है। माना जाता है कि ये मंदिर 1700-2000 वर्ष पूर्व का है। कहा जाता है कि धारानगरी के पवार वंश के राजा कनकपाल के बेटे श्याम पाल के गुरुशंकर ने काष्ठ से मंदिर के शिखर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर की स्थापना के बारे में स्कंद पुराण में उल्लेख है। जिसमें बताया गया है कि त्रेता युग में ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति पाने के लिए श्रीराम ने देवप्रयाग में तप किया था और विश्वेश्वर शिवलिंग की स्थापना की थी। इस मंदिर में भगवान श्रीराम की पूजा की जाती है।
इस मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मंदिर निर्माण के बाद जब हिमालयन शैली विकसित हुई, तब आमलक के पास चारों ओर खंबे बनाकर इस पर तांबे की छत डाली गई। बाद में उसी छत पर कलश रखे गए, जिसे देखकर कहा जाता है है कि ये मंदिर कत्यूरी शैली में बनाया गया है। वास्तव में सच्चाई यही है कि इसका मूल रूप नागर शैली में बनाया गया था।
दो बाहों की पूजा
देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर के गर्भगृह में पाषाण से बनी छह फीट ऊँची चतुर्भुज की मूर्ति भी है। पूजा करते समय इस मूर्ति की दो बाहों को ढक दिया जाता है। इस मंदिर की खासियत ये भी है कि ये किसी चट्टान या दीवार पर टिका नहीं है। ये बिल्कुल बीच में गर्भगृह में स्थित है। इसी मंदिर के चारों ओर शंकराचार्य, हनुमान और भगवान शिव के छोटे-छोटे मंदिर है। मंदिर में ही राजस्थानी शैली की एक छतरी भी बनी हुई है, कई कार्यक्रमों मे इसकी पूजा की जाती है। इसी मंदिर मे 1785 में पंवार राजा जयकृत सिंह ने जान दे दी थी।
जिसके बाद राजा की चारों रानियाँ भी सती हो गईं थीं। उन रानियों को समर्पित मंदिर है, जिसका नाम ही सती मंदिर है। उस घटना के बाद से पंवार वंश का राजा रघुनाथ मंदिर की ओर नहीं जाता है। राजा जब भी देवप्रयाग जाते थे तो मंदिर को पूरी तरह से ढंक दिया जाता था। मंदिर के ठीक पीछे ही एक शिलालेख है, जिसमें ब्राम्ही लिपि में 19 लोगों के नाम गुदे हुए हैं। माना जाता है ये वे 19 लोग हैं जिन्होंने स्वर्ग की प्राप्ति के लिए देवप्रयाग के संगम में जल समाधि ली थी।
मंदिर के शीर्ष पर सोने का कलश और गर्भगृह में भगवान राम की मूर्ति है। मूर्ति के हाथ और पैरों में आभूषण हैं और सिर पर सोने का मुकुट लगा हुआ है। साथ में सीता माता और लक्ष्मण हैं। मंदिर के बाहर गरुड़ की एक मूर्ति है, जो पीतल की है। मंदिर के दाईंं तरफ बदरीनाथ, महादेव और कालभैरव विराजमान हैं। मंदिर के सिंहद्वार तक पहुँचने के लिये 101 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। 1803 में आए भूकंप की वजह से ये मंदिर बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था। तब ग्वालियर राजघराने के माधवराव सिंधिया के पिता दौलतराव सिंधिया ने इसकी मरम्मत करवाई थी।
आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राम्हण भी देवप्रयाग में आए। माना जाता है तिलंग भट्ट बदरीनाथ के परंपरागत पुरोहित हैं। एक पुराने ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभयपाल ने तिलंग भट्ट ब्राम्हणों को बदरीनाथ का पुरोहित होने का अधिकार दिया था।
हरि ही हरि
देवप्रयाग से भगवान विष्णु के पाँच अवतारों का संबंध माना जाता है। जिस स्थान पर भगवान विष्णु वराह के रूप में प्रकट हुए, उसे वराह शिला कहा जाता है। जिस जगह पर वे वामन के रूप में प्रकट हुए उस जगह को वामन गुफा के नाम से जाना जाता है। देवप्रयाग के निकट नरसिंहाचल पर्वत है जिसके शिखर पर भगवान विष्णु नरसिंह के रूप में पधारे थे। इस पर्वत की एक और खास बात है। ये पर्वत परशुराम की तपोस्थली भी है, उन्होंने सहस़्त्रबाहु को मारने से पहले यहीं तप किया था। यहीं पास में ही शिव तीर्थ है जहाँ भगवान श्रीराम की बहन शांता ने श्रृंगी मुनि से विवाह करने के लिए तप किया था। श्रृंगी मुनि के यज्ञ के बाद ही दशरथ को चार बेटे हुए थे। श्रीराम के गुरू भी इस जगह पर रहे थे, जिसे वशिष्ठ गुफा कहते हैं।
गंगा के उत्तर में एक पर्वत है जिसे राजा दशरथ की तपोस्थली माना जाता है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे गिद्धांचल कहते हैं, ये जगह जटायु की भी तपोस्थली रही है। यहीं भगवान श्रीराम ने एक महिला किन्नर को मुक्त किया था, जो ब्रह्मा के श्राप से मकड़ी बन गई थी। इसी प्राचीन नगर में ओडिशा के राजा इंद्रद्युम ने भगवान विष्णु की पूजा की थी।
देव शर्मा के नाम पर ‘देवप्रयाग’
भारत और नेपाल के 108 दिव्य धार्मिक स्थलों में देवप्रयाग का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। यहीं अलकनंदा और भागीरथी के संगम से गंगा का उद्भव होता है। इसी कारण देवप्रयाग को को पंच प्रयागों में सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। स्कंद पुराण के केदारखंड में देवप्रयाग पर 11 चैप्टर हैं। कहते हैं कि ब्रह्मा ने यहाँ दस हजार सालों तक भगवान विष्णु की अराधना की और उनसे सुदर्शन चक्र प्राप्त कर लिया। इस वजह से भी देवप्रयाग को ब्रह्मतीर्थ और सुदर्शन क्षेत्र भी कहा जाता है। एक मान्यता ये भी है कि मुनि देव शर्मा ने 11 हजार वर्षों तक तपस्या की थी और भगवान विष्णु यहीं प्रकट हुए थे। उन्होंने देव शर्मा को वचन दिया कि वे त्रेता युग में वापस देवप्रयाग आएँगे। बाद में भगवान विष्णु ने राम का अवतार लिया और अपना वचन पूरा किया। कहा जाता है कि देव शर्मा के नाम पर ही देवप्रयाग का नाम पड़ा।
देवप्रयाग के आस-पास घूमने की जगहें
देवप्रयाग ऋषिकेश से 70 कि.मी. दूर है। इसके पूर्व में धनेश्वर, दक्षिण में तांडेश्वर, पश्चिम में तांतेश्वर और उत्तर में बालेश्वर मंदिर है। इसके बारे में ये भी कहा जाता है कि यहां गंगाजल के भीतर भी एक शिवलिंग मौजूद है। देव्रपयाग के बारे में सबसे बढ़िया बात ईटी एटकिंसन लिखते हैं, देवप्रयाग एक छोटी सपाट जगह पर एक खड़ी चट्टान के नीचे जलस्तर से 100फीट उँचाई पर स्थित है। उसके पीछे 800 फीट ऊँचे उठते पर्वत का एक कगार था। जल के स्तर से उपर तक पहुँचने के लिए चट्टानों की कटी एक बड़ी सीढ़ी है, जिस पर चढ़कर मवेशी आराम से मवेशी आसानी से आराम से पहुँच सकें। इसके अलावा रस्सी के दो झूला पुल भागीरथी और अलकनंदा नदी के उस पार जाने के लिए हैं।
तो आप कब जा रहे हैं देवप्रयाग के सफर पर। अपनी यात्रा के किस्से Tripoto पर लिखना ना भूलें।
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