दूर तलक खिले सुगंध बिखेरते रंग-बिरंगे फूल, जगह-जगह फूटते असंख्य सफेद झरने, आसमान छूते पहाड़, घाटी के बीचोंबीच बहती दूध सी सफेद पुष्पावती नदी और सामने सीना ताने खड़ा पुष्पावती का जनक टिपरा ग्लेशियर…यह नज़ारा स्वर्ग से कम नहीं था। यहाँ पहुँचते ही आपकी सारी थकान छूमंतर हो जाएगी और आप खुद को किसी दूसरी दुनिया में महसूस करेंगे।
विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी उत्तराखंड के चमोली जिले में स्थित है। हिमालय की गोद में हिमाच्छादित चोटियों के बीच करीब 14,500 फीट की ऊँचाई पर दूर तलक बिखरे रंग-बिरंगे फूल आपको अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। घाटी की प्राकृतिक सुंदरता और विविधता के कारण नंदा देवी राष्ट्रीय पार्क के अंतर्गत फूलों की घाटी को भी 1982 में राष्ट्रीय पार्क घोषित कर दिया गया। करीब 88 वर्ग कि.मी. में फैली फूलों की घाटी में 500 से अधिक फूलों और वनस्पतियों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इतनी कम जगह में दुनिया में शायद ही कहीं और इस तरह की विविधता पाई जाती हो। यही वजह है कि यूनेस्को ने 14 जुलाई 2005 को फूलों की घाटी को विश्व विरासत घोषित किया। सन् 1931 में ब्रिटिश पर्वतारोही फ्रैंक स्मिथ और उनके मित्र रिचर्ड होल्सवर्थ ने कामेट पर्वत से लौटते समय भ्यूंडार नामक इस घाटी का पता लगाया था। कहते हैं कि फ्रैंक स्मिथ घाटी की सुंदरता से इस कदर प्रभावित हुए कि सात साल बाद दोबारा यहाँ आए और वापस लौटकर वैली ऑफ फ्लॉवर नाम से एक किताब लिखी। इसके बाद यह घाटी फूलों की घाटी नाम से दुनियाभर के प्रकृति प्रेमियों के बीच विख्यात हुई। वैसे मेरे हिसाब से इसे देवताओं की घाटी कहना ज्यादा सही होगा।
चूंकि, हम बदरीनाथ और माणा से लौटकर फूलों की घाटी जा रहे थे तो बदरीनाथ से सुबह ठीक आठ बजे गोविंदघाट के लिए निकल लिए। तीन बाइक पर हम कुल छह लोग थे। मेरे साथ नेहा, दूसरी बाइक पर अंकित-अभिषेक और गजब के साहसी विजेंद्र जी स्कूटी से ही अपनी पत्नी यानी कमलेश मैम को लेकर हिमालय नापने चल पड़े थे। नौ बजे तक हम गोविंद घाट पहुँच गए। तब तक भूख भी लग चुकी थी। किसी होटल या ढाबे के बजाय हमने गुरुद्वारे में लंगर चकने का विकल्प चुना। इससे एक फायदा यह भी हुआ कि हमारे बड़े बैग यहीं लॉकर में जमा हो गए। खाने के बाद सबने एक-एक छड़ी खरीदी और ज़रूरी सामान छोटे बैग में रखकर करीब 10 बजे हम निकल पड़े पुलना के लिए। यहाँ बाइक पार्किंग में लगाने के बाद घांघरिया के लिए ट्रेकिंग शूरू करनी थी। गोविंद घाट में ही ब्रिज से ठीक पहले आपको हेमकुंड और फूलों की घाटी के लिए कंप्यूटराइज रिजस्ट्रेशन कराना होता है। यहाँ प्रक्रिया पूरी कर हम आगे बढ़ चले। ब्रिज पार करते ही फूलों की घाटी राष्ट्रीय पार्क का गेट नज़र आया तो सबने फोटो की ज़िद की। फोटो लेने के बाद हमने बाइक स्टार्ट की और आधे घंटे में ही पुलना गाँव पहुँच गए। यहाँ आपको तीन-चार पार्किंग मिल जाएँगी, क्योंकि इससे आगे वाहन नहीं जाते। हमने भी एक पार्किंग चुनी और बाइक लगाकर तैयार हो गए अपनी पहली ट्रेकिंग के लिए। वैसे अगर आप पहली बार ट्रेकिंग कर रहे हैं तो फूलों की घाटी एक बेहतरीन विकल्प है। अब हमें घांघरिया तक करीब 10 कि.मी. ट्रेक करना था, जिसमें अधिकतर खड़ी चढ़ाई है। आखिरकार करीब 11 बजे हम निकल पड़े विश्व प्रसिद्ध फूलों की घाटी के बेस कैंप घांघरिया के लिए। अभी थोड़ी चढ़ाई ही चढ़े थे कि सांसें फूलने लगी थीं। खैर निकल पड़े थे तो फूलों की घाटी की रंगत तो देखनी ही थी। यही सोचकर सब एक-दूसरे का हौसला बढ़ा रहे थे। हालांकि, कुछ और दूर चलने पर कमलेश मैम के पैरों में ज्यादा परेशानी होने लगी तो हमने तय किया उनके लिए घोड़ा कर लेते हैं। हमने एक घोड़े वाले से बात की तो वह तैयार हो गया, लेकिन अब मुसीबत थी कि यहाँ दो घोड़े एक साथ चलते हैं। लिहाजा हमें दो घोड़े लेने पड़े, अब एक नई मुसीबत… दूसरे घोड़े पर बैठने के लिए कोई तैयार ही नहीं था, क्योंकि सब ट्रेक कर ही जाना चाहते थे। आखिर तय हुआ कि दूसरे घोड़े पर बाकी के पाँचों लोग बारी-बारी से बैठेंगे। रास्ते में हमें सिखों के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल हेमकुंड साहिब जा रहे श्रद्धालु भी मिले। एक वीर जी से तो बिजेंद्र जी ने दोस्ती गांठ ली। उनसे बात करते हुए हमनें बहुत तेजी से रास्ता कवर किया। सच कहूं तो उन्होंने हमें ट्रेकिंग कुछ देशी नुस्खे बताए तो अपने घर के नींबू का स्वाद भी चखाया। उनका मानना था कि नींबू और नमक मुंह में रखने से सांस कम फूलती है। वैसे रास्ते में एक-दो जगह छोटी-मोटी दुकानें हैं, जहाँ आपको खाने-पीने की चीजें मिल जाएँगी। तो पानी और कोल्ड ड्रिंक का सहारा लेकर हम आगे बढ़ते गए।
रास्ते में घाटी के दूसरी ओर पड़ने वाले एक के बाद एक झरने ट्रेक को और खूबसूरत बना रहे थे तो घने जंगलों से होकर गुज़रना एक अलग ही एहसास था। रास्ते में जगह-जगह आराम करने के लिए यात्री शेड बनाए गए हैं और पेयजल की भी व्यवस्था है। इससे काफी राहत मिलती है। कभी पैदल तो कभी घोड़ पर सवार होकर करीब छह कि.मी. दूरी नापने के बाद दो बजे के आसपास हम आखिरकार भ्यूंडार गाँव पहुँचे। इसे ट्रेक का एकमात्र पड़ाव कह सकते हैं। यहाँ एक दुकान पर गर्मागर्म आलू पराठे और चाय का स्वाद लिया तो शरीर में एक नई ऊर्जा सी आ गई। हमारे घोड़े वाले ने भी यहाँ भोजन किया। यहाँ से घांघरिया करीब चार कि.मी. और था, लेकिन चढ़ाई एकदम खड़ी। इसलिए तय हुआ कि सबके लिए घोड़ा कर लिया जाए। करीब पांच बजे हम घांघरिया पहुंच गए।
फारेस्ट रेस्ट हाउस में खास बर्थडे पार्टी
घांघरिया चारों ओर से ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरा एक छोटा सा खूबसूरत गाँव हैं, जहाँ भारी बर्फबारी के कारण सर्दियों में छह महीने कोई नहीं रहता है। घांघरिया में प्रवेश करते ही इसकी खूबसूरती देखकर मैं दंग रह गया। सोचने लगा कि जब घांघरिया इतना खूबसूरत है तो फूलों की घाटी कैसी होगी। यहाँ फारेस्ट रेस्ट हाउस में हमारे रुकने की व्यवस्था थी। वैसे तो गढ़वाल के वन विभाग के सारे विश्रामगृह खूबसूरत हैं, लेकिन घांघरिया का रेस्ट हाउस मुझे बहुत पसंद आया। अपना-अपना ठौर जमाने के बाद हम रेस्ट हाउस के अहाते में आ गए और सबके कैमरों ने खूबसूरत दृश्यों को कैद करना शुरू कर दिया। तब तक अंधेरा होने लगा था और गुलाबी ठंडक के साथ ही थकान के कारण सबको चाय की तलब हो चली थी। हम बाज़ार में निकले और एक रेस्टोरेंट में चाय का ऑर्डर कर दिया। वापस लौटे तो खाने के लिए चर्चा चल पड़ी। तय हुआ कि घांघरिया में भी गुरुद्वारे का लंगर चखा जाएगा। वैसे यहाँ गुरुद्वारे में रुकने की भी ठीक-ठाक व्यवस्था है। गुरुद्वारे में लंगर चखने के बाद हम रेस्ट हाउस लौटे और अपने-अपने विस्तर पर चल दिए।
चूंकि, ये दिन था 15 सितंबर यानी अंकित का बर्थडे तो कुछ न कुछ तो करना ही था। घांघरिया में केक-वेक तो मिलने से रहा, इसलिए मैंने पहली से ही इसका विकल्प तैयार रखा था। गोविंदघाट से ही मैंने चार बन पैक करा लिए थे और कमलेश मैम के पास क्रीम, बटर और चाकू था ही…बस और क्या चाहिए। सभी ने मेरी इस व्यवस्था की तारीफ की। रात करीब 10 बजे हमने दूसरे कमरे की लाइट बुझाई और काटने के लिए बन तैयार कर लिए। बहाने से अंकित को उस कमरे में बुलाया तो वह भी बन केक देखकर हैरान रह गया। इसके बाद बन काटकर हमने शानदार बर्थडे पार्टी की, जो शायद अब तक की सबसे अलग और बेहतरीन बर्थडे पार्टी में से एक थी। हिमालय की गोद में जगलों के बीच एक छोटे से सुंदर फारेस्ट रेस्ट हाउस में जन्मदिन मनाने से अच्छा और क्या हो सकता है। खैर थोड़ी गपशप के बाद सभी ने सोने का निर्णय लिया, क्योंकि सुबह हमें जल्द से जल्द फूलों की घाटी का ट्रेक शुरू करना था।
बारिश की आवाज ने नींद से जगाया
सुबह छह बजे हल्की बारिश के शोर के बीच हमारी नींद खुली। बाहर निकले तो भीगी-भीगी वादियों की खूबसूरती गजब रंग ढा रही थी। मौसम का यह अनुभव आपको पहाड़ों में ही मिलता है। मेरे लिए इतनी खूबसूरत सुबह शायद ही पहले कोई रही हो। तब तक सब उठ चुके थे और मैं बाहर जाकर चाय ले आया। वैसे चाय तो हमेशा ही तरोताज़ा कर देती है, लेकिन भीगे मौसम में चाय की चुस्कियों के कहने की क्या। चाय पीने के बाद हमने ट्रेकिंग के लिए तैयारी पूरी कर ली। अब इंतजार था तो केवल बारिश रुकने का। कुछ देर बाद बारिश बहुत हल्की हो गई तो हमने और देर करना ठीक नहीं समझा और निकल दिए, क्योंकि अभी नाश्ता भी करना था। एक दुकान पर चाय-पराठे-मैगी का आनंद लिया और करीब नौ बजे पानी-कोल्ड ड्रिंक्स लेकर निकल पड़े फ्लॉवर ऑफ वैली (विजेंद्र जी के शब्दों में) के खूबसूरत ट्रेक पर...
घांघरिया से थोड़ा आगे निकलते ही खूबसूरत झरने की मीठी आवाज ने हमारे कदम रोक दिए। ठीक वहीं पर फूलों की घाटी का बोर्ड भी लगा था। …और शुरू हो गई कैमरों की क्लिक-क्लिक, जो आगे दिनभर रुकने वाली नहीं थी। एक छोटा लकड़ी का पुल करने के बाद वन विभाग की चेक पोस्ट पर हमने अपने नाम-पते दर्ज करवाए। यहाँ प्रवेश शुल्क के तौर पर 150 रुपये जमा कराए जाते हैं, लेकिन पत्रकार होने के नाते हमें शुल्क नहीं देना पड़ा। चौकी में पता चला कि अभी 10-12 लोग ही घाटी की ओर गए हैं। चेक पोस्ट घांघरिया गुरुद्वारे से एक कि.मी. दूर है, लेकिन यहाँ तक के ट्रेक में हमें ज्यादा परेशानी नहीं हुई। यहाँ से फूलों की घाटी करीब तीन कि.मी. है। चेक पोस्ट से आगे बढ़े तो ट्रेक के अगल-बगल फूल नज़र आने लगे थे। फूलों को देखकर नेहा कुछ ज्यादा ही उत्साहित हो उठती है। फूल देखकर उसका मन मचलने लगा और मोबाइल फोटोग्राफी शुरू हो गई। कुछ दूर बढ़ने पर नीचे की ओर नजर गई तो एक जगह ठहर सी गई। वहाँ से देवदार के जंगलों और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच घांघरिया किसी जन्नत से कम नहीं लग रहा था। कुछ और आगे बढ़ने पर लोहे के पुल के पास उछलती-कूदती और पूरे वेग से बहती पुष्पावती नदी ने हमारा स्वागत किया। यहाँ से चढ़ाई बेहद कठिन होने वाली थी, लेकिन गोविंद घाट से घांघरिया और अब यहाँ तक चलने से हमें ट्रेकिंग में ज्यादा परेशानी नहीं हुई। सीढ़ीनुमा रास्ता पत्थरों को जोड़कर बनाया गया है। साथ ही अब हमें भोजपत्र के घने जंगल से होकर ट्रेक करना था। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे घाटी की खूबसूरती परत-दर-परत खुलती जा रही थी। कुछ आगे बढ़ने पर ग्लेशियर के साथ-साथ कुछ-कुछ फूलों की घाटी भी नज़र आने लगी थी। खूबसूरत नजारों को देखते हुए हमने दो कि.मी. की खड़ी चढ़ाई कब पार कर ली पता ही नहीं चला। करीब 12 बजे हम फूलों की घाटी में थे।
पॉलीगोनम ने किया हमारा स्वागत
बावन धौर में करीब 10,500 फीट पर इनर लाइन खत्म होते ही सफेद पॉलीगोनम और गुलाबी फूलों ने हमारा स्वागत किया। चारों ओर फूल इस तरह नज़र आ रहे थे जैसे प्रकृति ने अपने हाथों से से इन्हें क्यारीबद्ध किया हो। खूबसूरत नजारों को आंखों में कैद करते हुए लकड़ी के छोटे-छोटे पुल पार कर हम घाटी में बढ़ते जा रहे थे। दूर तलक खिले सुगंध बिखेरते रंग-बिरंगे फूल, जगह-जगह फूटते असंख्य सफेद झरने, आसमान छूते पहाड़, घाटी के बीचोंबीच बहती दूध सी सफेद पुष्पावती नदी और सामने सीना ताने खड़ा पुष्पावती का जनक टिपरा ग्लेशियर…यह नज़ारा स्वर्ग से कम नहीं था। मैं इसे फूलों की घाटी की बजाय देवताओं की घाटी कहना ज्यादा पसंद करूँगा। कदम-कदम पर अलग-अलग फूलों की मादक खुश्बू आपको एक अलग ही दुनिया की सैर कराती है। सम्मोहन इतना कि वापस लौटने का जी ना करे। खूबसूरती इतनी कि वर्णन करने के लिए शब्द कम पड़ जाएँ। किसी स्वप्नलोक सरीखी करीब तीन कि.मी. लंबी और आधी किमी चौड़ी फूलों की घाटी में जून से सितंबर माह के बीच करीब 500 प्रजातियों के फूल और 18 से ज्यादा फर्न खिलते हैं। इसमें 112 से ज्यादा औषधीय वनस्पतियाँ हैं, जिनमें कई दुनिया में केवल यहीं पाई जाती हैं। कहते हैं कि अलग-अलग समय पर नए फूल खिलने और पुराने मुरझाने से हर 15 दिन में घाटी की रंगत बदलती रहती है, लेकिन जुलाई और अगस्त में फूलों की घाटी पूरे सबाब पर होती है। इस दौरान आप सबसे ज्यादा किस्म के फूलों का दीदार कर सकते हैं। चूंकि, हम सितंबर मध्य में घाटी पहुँचे थे तो कुछ फूल नहीं देख पाए, जिसमें उत्तराखंड का राज्य पुष्प ब्रह्मकमल भी शामिल है। बावजूद इसके हमने घाटी में खिले बहुतायात फूलों की सुगंध को अपने दिलो-जां में घोल लिया था। देखते ही देखते दो कब बज गए पता ही नहीं चला। दूर पहाड़ों पर बादल आने से मौसम खराब होने का संकेत मिल चुका था। साथ ही पेट में चूहे भी कूदने लगे थे। एक चट्टान पर बैठकर हमने ड्राई फ्रूट और भुने हुए चने से पेट पूजा की, ग्लेशियर का ठंडा पानी पिया और लौटने का निर्णय लिया। नेहा का और आगे जाने का मन था, लेकिन खराब मौसम और समयाभाव के कारण लौटने पर ही सहमित बनी। शाम पाँच बजे तक हमें चेक पोस्ट पहुँचने की हिदायत दी गई थी। तो चल पड़े हम जन्नत सी जमीं से कई खूबसूरत नजारों और यादों के समेटकर। वापसी में ज्यादा दिक्कत नहीं हुई और हम तेजी से बढ़े जा रहे थे। बीच में हल्की बूंदाबांदी भी हुई। फिर भी पाँच तक हम चेक पोस्ट पार कर घांघरिया के करीब थे। वापस झरने के पास रुके तो हेमकुंड साहिब से श्रद्धालुओं का जत्था भी लौट रहा था। घांघरिया आते समय रास्ते में मिलने वाले सरदार जी भी नज़र आ गए। मुस्कराकर पूछा… देख आए फूलों की घाटी। गजब की जीवटता थी उनमें, 25 कि.मी. पैदल ट्रेक के बाद भी उनके चेहरे पर थकावट का नामो-निशान नहीं था। बोले हिम्मत जुटाओ और कल हेमकुंड भी जाना, अच्छा लगेगा, लेकिन थकावट और समयाभाव के कारण हम हेमकुंड नहीं गए।
चल मेरी लाटी फूलों की घाटी
घांघरिया लौटे तो हमें फारेस्ट रेस्ट हाउस छोड़ना पड़ा। चौकीदार ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट के कोई जज आए हैं तो आप लोग कहीं और रहने का इंतजाम कर लीजिए। सभी लोक थककर चूर थे तो बगल में ही एक होटल देख लिया। 400 में एक बड़ा सा छह बेड वाला कमरा आसानी से मिल गया वह भी गरम पानी के साथ। इतने कम पैसे में और क्या चाहिए। पैर को थोड़ा आराम देने के बाद मैं, अंकित और अभिषेक बाहर निकले तो एक खच्चर वाले को पारंपरिक गीत गाते सुना, चल मेरी लाटी फूलों की घाटी…। पूछने पर उसने बताया कि वे लोग घोड़े को लाटी पुकारते हैं और यही गीत गुनगुनाते हुए अपनी दिहाड़ी करते हैं। इसके बाद यह गीत मेरी भी जुबान पर चढ़ गया। रात होते ही बारिश शुरू होने से ठंड बढ़ चली थी। ग्लेशियर का पानी पीने से मेरा और अभिषेक का गला भी खराब हो गया था। वहीं खाना ऑर्डर किया और पेट पूजा के बाद सोने चले गए। दवा साथ ले आए थे तो ज्यादा सोचना नहीं पड़ा। चल मेरी लाटी फूलों की घाटी… गुनगुनाते हुए नींद कब आ गई पता ही नहीं चला
कभी न भूलने वाली यादें लेकर चल पड़े
सुबह उठे तो बाहर तेज बारिश हो रही थी। नाश्ता करने के बाद सामान पैक किया। अब लौटने के लिए बारिश थमने का इंतजार था। होटल वाले ने बताया कि बारिश अभी रुकने से रही। लिहाजा समय बर्बाद करने से अच्छा हमने रेनकोट पहनकर निकलना की बेहतर समझा। इस तरह फूलों की घाटी की अनगिनत कभी न भूल पाने वाली यादें लेकर हम निकल पड़े। 8.30 बजे गोविंद घाट की ट्रेकिंग शुरू की और एक बजे पहुँच गए पुलना। वहां से बाइक उठाई और चल दिए देहरादून की ओर। रास्ते में पीपलकोटी रुकने का विचार था। शाम करीब सात बजे पीपलकोटी पहँचे तो एक दोस्त के रिश्तेदार होटल मालिक में उगाई गई लौकी की सब्जी और दाल-चावल बनवाकर हमारा इंतजार कर रह थे। भरपेट स्वादिष्ट भोजन करने के बाद 10 बजे तक सभी लोग सो गए। अगली सुबह उठे और सीधे देहरादून।