उतरती जनवरी के साथ ही उत्तर भारत की फिज़ा में नरमाई घुलने लगी है। सुबह अब चुभती नहीं बल्कि गुलाबी ठंड चेहरे को नर्म और मखमली हाथों से छूकर दिन की शुरूआत कराती है। इससे पहले कि मौसम का मिजाज सूरज की तपिश से लाल हो , मैंने रंगीले राजस्थान के एक रंगीले हिस्से से मुलाक़ात तय कर ली थी। यों समझिए कि 15 फरवरी तक के ये दिन मौसम की आखिरी मौहल्लत हैं जोधपुर-जैसलमेर जैसे गर्म मिजाज़ इलाकों की नज़ाक़त से भरी मेहमाननवाज़ी का आनंद लेने के लिए। किसी काम के सिलसिले में जोधपुर आना हुआ। हुआ कुछ यूं कि तीन दिन की इस यात्रा में दो दिन जोधपुर में ही निपट गए। इधर जैसलमेर के लिए ले दे कर केवल एक दिन बचा था। एक घुमक्कड़ को अगर एक दिन मिल जाए तो वो पूरी दुनिया नाप देना चाहता है। कुछ ऐसा ही हाल अपना भी था। अब एक दिन में जोधपुर से जैसलमेर तक आने-जाने में लगभग 600 किलोमीटर का सफर तय कर उसी दिन वापिस जोधपुर लौटना आसान काम तो कतई नहीं था। इस तूफानी दौरे के लिए तो बढि़या सारथी की जरूरत थी। तभी ख्याल आया भरोसेमंद सवारी कार रेंटल सर्विस का और जोधपुर से जैसलमेर के लिए झटपट ऑनलाइन कैब बुक कर डाली ।
इस बार इत्तेफ़ाक से मेरे एक मित्र भी मेरे साथ थे जो खुद राजस्थान से हैं और घुमक्कड़ी का शौक रखते हैं। अब दो घुमक्कड़ मिल जाएं तो हौसला दोगुना नहीं चार गुना हो जाता है। हम तैयार थे। गूगल मैप बता रहा था कि जोधपुर से जैसलमेर तकरीबन 277 किलोमीटर पड़ेगा। अब जब हम जैसलमेर तक हिम्मत कर ही रहे थे तो दिल जैसलमेर से तकरीबन 40 किलोमीटर आगे सम में रेत के धोरों पर ढ़लते सूरज को देखने के लिए भी मचल उठा। ड्राइवर से बात की तो वह हमारे हौंसले देखकर हंस पड़ा और बोला कि ' सब दिखा दूंगा , लेकिन आपको सुबह 5 बजे से पहले जोधपुर छोड़ना होगा ' । मोटा-मोटा अंदाजा लगाया तो साफ हो गया कि हम अगली सुबह ठीक 5.15 पर सफर शुरू कर दिया। सम सैंड ड्यून्स (Sam Sand Dunes) तक की यात्रा निपटा कर रात 10-11 बजे तक जोधपुर लौट सकते हैं। हमने उसका हुक्म सर आंखों पर लिया और कुछ घंटों की नींद भरने के बाद
जैसे ही जैसलमेर की राह पकड़ी , एक चमचमाते हुए शानदार , हड्डियों को थोड़ा पैम्पर करने और इस बहाने ड्राइवर को थोड़ा सुस्ताने का मौका देने का। और इससे भी ज्यादा किसी रोड ट्रिप के बीच कहीं ठहर कर सफ़र के रोमांच को चाय की चुस्की में महसूस करने का। हाइवे के एक ओर अलसाया सा ढ़ाबा नज़र आ रहा था। गूगल मैप नज़र डाली तो कोई नेशनल हाइवे नंबर 125 ने हमारा स्वागत किया। ड्राइवर ने बताया कि राजस्थान में सड़कों का जाल बहुत अच्छा है और खासकर यहां हाइवे बहुत अच्छी हालत में हैं। जैसलमेर को जाने वाला ये हाइवे सामरिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। जोधपुर से जैसलमेर तक बीच-बीच में इस हाइवे के दोनों ओर फौजी ठिकाने बने हुए हैं मगर कहां कितनी फौज और साजो-सामान मौजूद है इसका पता नहीं लगाया जा सकता। कुछ निशान हैं सड़क के किनारे जिन्हें सिर्फ फौज के लोग ही समझ सकते हैं। इस पूरे इलाके पर फौज की अच्छी पकड़ थी इस बात की तस्दीक हाइवे से लगातार गुज़रने वाले फौजी ट्रक कर रहे थे। जोधपुर छोड़े हमें कोई दो घण्टे हो आए थे और चाय की तलब और जोर मारने लगी थी। दरअसल चाय तो बहाना है गाड़ी में पड़े शरीर को सीधा करने धीरपुरा नाम की जगह थी। बस यहीं पहला पड़ाव डाला गया। उस अंधेरे हम चाय के तलबगारों के आने से ही ढ़ाबे में काम करने वालों की नींद टूटी। बड़ी खुशी-खुशी चाय तैयार की गई। कड़क अदरक वाली चाय ने ठंड की सुरसुरी को तुरंत दूर कर दिया और उधर सूरज की किरणें बस अंगडाई लेती हुई दिखने लगी थीं।
हाइवे पर जहां-जहां काम चल रहा था। कुछ ही देर में सड़क के बाईं ओर रेत के टीलों ने हमारे साथ चलना शुरू कर दिया। दूर कहीं पवनचक्कियां भी झूमती नज़र आ रही थीं। यूं ही चलते-चलते हम यात्रा के पहले पड़ाव पोकरण आ पहुंचे। यहां से हमें एक और मित्र को अपने साथ लेना था। पोकरण तो आप जानते ही होंगे। यहीं भारत ने दो परमाणु परीक्षण किए थे। पहला 1974 में जिसका कोड नेम' स्माइलिंग बुद्धा ' था और दूसरा 1998 में ' ऑपरेशन शक्ति ' । मगर इस बात को बहुत कम लोग जानते हैं कि न्यूक्लियर टेस्ट की वास्तविक जगह दरअसल पोकरण नहीं बल्कि यहां से तकरीबन 26 किलोमीटर दूर एक जगह है। कुछ ही देर में हम पोकरण गांव में अपने मित्र के घर पर थे। झटपट चाय-नाश्ते ने धीमी पड़ती बैटरी में प्राण फूंक दिए और हम हम तीन लोग आगे के सफर पर निकल पड़े। लेकिन इस तीसरे साथी ने सड़क पर आते ही यात्रा में एक और पड़ाव जोड़ दिया।
रोड ट्रिप का यही सबसे बड़ा आनंद है कि इसमें आप जब जी चाहे परिवर्तन कर सकते हैं। अब हवाई या रेल यात्रा में ये सुख कहां। बस फिर क्या था पोकरण से जैसलमेर की सड़क पर आगे-बढ़ते हम अचानक बाईं ओर राम देवरा की ओर निकल लिए। राम देवरा दरअसल हिंदुओं और मुस्लिमों के आराध्य संत बाबा रामदेव की स्थली है और न केवल राजस्थान बल्कि आस-पास के सभी राज्यों से हजारों की संख्या में उनके भक्त यहां आते हैं। यहां शायद सावन के महीने में कोई मेला लगता है। लोगों का कहना है कि मेले के वक़्त यहां हाइवे पर आधी सड़क पैदल चलने वाले भक्तों से भर जाती है और मंदिर में भी दर्शन करना आसान नहीं होता है। मगर उस दिन वहां कोई भीड़ नहीं थी। हमने बड़े सुकून से दर्शन किए और थोड़ी देर मंदिर परिसर के शांत माहौल में बिताए और फिर वापिस अपने सफ़र पर लौट लिए।
जैसलमेर की ओर जाने वाली सड़क एक बार फिर दोनों तरफ के वीरान इलाके को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी। आगे चलकर ये सड़क कुछ दिलचस्प नाम वाले गांवों से होकर गुज़री। जैसे कि एक गांव का नाम था तो एक दूसरे गांव का नाम था। भला लाठी भी कोई नाम होता है गांव का। अब होता है तभी तो था। लाठी पार करते ही सड़क के एक ओर ऊंटों का जैसे कोई मेला लगा था। हमने गाड़ी रोक ली और इस ऊंटों के इस जमघट को निहारने लगे। ऊंटों के एक बुजुर्ग मालिक से पूछा कि ये लश्कर आखिर कहां जा रहा है तो उन्होंने बताया कि वे इन ऊंटों को बेचने के लिए ले जा रहे हैं। कुछ खरीदार इसी जगह पर आकर भी ऊंट खरीद कर ले जाते हैं। जैसे दिल्ली जैसे इलाकों में लोग अपने घर में गाडियों को संपत्ति की तरह देखते हैं ठीक वैसे ही राजस्थान के इस इलाके में ऊंट लोगों के लिए संपत्ति से कम नहीं।
उन बुजु्र्गों से विदा लेकर हम एक बार फिर तेज रफ्तार से जैसलमेर की ओर बढ़ने लगे। तभी अचानक मेरी नज़र दाईं ओर एक बड़े कॉम्पलेक्स पर पड़ी। इसके मुख्य द्वार पर लगे बोर्ड पर लिखा था जैसलमेर वॉर म्यूजियम । मैंने एकदम से ड्राइवर को रुकने के लिए कहा। ड्राइवर ने बताया कि ये म्यूजियम अभी दो एक साल पहले ही बना है और हमें जरूर देखना चाहिए। सुबह जोधपुर छोड़ते वक़्त तय किया गया था कि हम बिना रुके सीधे जैसलमेर ही पहुंचेंगे और यहां एक के बाद एक पड़ाव जुड़ते चले जा रहे थे। ड्राइवर ने मन पढ़ लिया और बोला कि अभी हमारे पास समय है आप 20 मिनट में इसे देख सकते हैं। बस अगले 20 मिनटों में इस म्यूजियम में भारत-पाकिस्तान के तमाम युद्धों से जुड़े तथ्यों , जवानों की वीर-गाथाओं , युद्ध में जब्त किए गए पाकिस्तानी टैंकों , युद्धक विमानों , ट्रकों के साथ-साथ परमवीर चक्र और महावीर चक्र विजेताओं के स्टेच्यू को निहारते हुए गुजरे। तो ठीक 20 मिनट बाद हम एक बार फिर सड़क पर फर्राटा भर रहे थे। जैसलमेर अब बस 12 किलोमीटर ही दूर था मगर एक विशाल रेगिस्तान के बीच सांप की तरह बलखाती सड़क हमें तेजी से अपनी मंजिल की ओर लिए जा रही थी।
मगर सैकड़ों किलोमीटर के रेगिस्तान को पीछे छोड़ आने के बाद इस वीराने को देख-देख कर मन में एक सवाल उठने लगा कि जोधपुर जैसे बड़े शहर से इतनी दूर रेगिस्तान के बीच जैसलमेर नाम की कोई जगह है भी तो वह इस हजारों मील के वीराने में कैसे बसी हुई है ? जवाब बड़ा दिलचस्प है। दरअसल जैसलमेर सदियों से चीन से तुर्की और इटली को जोड़ने वाले 2000 साल पुराने और सिल्क रूट पर बसा एक शहर रहा है। लगभग 400 साल पहले व्यापारियों और यात्रियों ने मध्य एशिया में पामीर के पहाड़ों की बजाय इस थार मरुस्थल के बीच से होकर गुज़रना ज्यादा बेहरत समझा। इसीलिए जैसलमेर के आस-पास तमाम कारणों से उजड़ गए कुलधरा कनोई जैसे इलाकों के अवशेष इस बात की गवाही देते हैं कि ये इलाका यात्रियों का पसंदीदा पड़ाव हुआ करता था। मगर अब आजादी के बाद तो सरकार और फौज ने पाकिस्तान बॉर्डर के निकट एक शहर को बसाए रखना तमाम कारणों से जरूरी समझा है। सरकार बेहिसाब पैसा यहां के विकास के लिए खर्च करती है। मगर फिर भी जिंदगी इतनी आसान नहीं है। जिंदगी की जरूरत की चीजें यहां तक पहुंचते-पहुंचते मंहगी हो जाती हैं। पर्यटन इस इलाके के लोगों की जीवन-रेखा है और अक्तूबर से लेकर फरवरी के आखिर तक का वक़्त यहां का सीजन है। इसके बाद तो जैसलमेर की जमीन बस आग ही उगलती है। इसीलिए यहां फरवरी की शुरूआत में आयोजित होने वाले मरू महोत्सव ने इंटरनेशनल टूरिस्ट मैप पर इस इलाके की पहचान कायम कर दी है।
ड्राइवर से बातें चलती रहीं और सफर अब और दिलचस्प हो चला था। असल में रोड ट्रिप में अगर ड्राइवर इलाके की जानकारी रखता हो तो आप कम समय में ही इलाके के इतिहास , भूगोल और संस्कृति की नब्ज़ पकड़ लेते हैं। इस , आउटस्टेशन कार रेंटल सर्विस के बारे में दोस्तों से काफी तारीफ सुन चुका था कि ये एक सस्ती और भरोसेमंद कार रेंटल सर्विस है और ड्राइवर के साथ अब तक के सफर ने इस कार सेवा को चुनने के मेरे फैसले को सही साबित कर दिया था। बातों-बातों में ही हम जैसलमेर के नज़दीक आ पहुंचे। कई किलोमीटर दूर से ही जैसलमेर फोर्ट या कहिए कि सोनार किला नज़र आने लगा। लगा कि दो-चार मिनट में ही हम फोर्ट के सामने होंगे। लेकिन अभी कहां। रोड ट्रिप आपको हर कदम पर न चौंकाए और छकाए तो रोड ट्रिप काहे की। हम जैसलमेर शहर में प्रवेश करते इससे पहले ही गड़ीसर लेक ने अपनी ओर खींच लिया।
दरअसल जैसलमेर के पहले शासक राजा रावल जैसल द्वारा बनवाई गई झील है जिसका बाद में महाराजा गडीसीसार ने पुननिर्माण और जीर्णोद्धार करवाया। यहां के सूर्योदय और सूर्यास्त के नज़ारे हमेशा यादों में बस जाते हैं। इस लेक से बाहर निकले तो पेट में चूहे दौड़ने लगे। गाड़ी को सीधे बाजार में मचान नाम के रेस्तरां के बाहर रोका। पहली मंजिल पर बने इस रेस्तरां में बैठकर तसल्ली से गोल्डन फोर्ट को निहारते हुए भोजन किया गया। उस दोपहर और फोर्ट के उस दिलकश नजारे को कभी नहीं भुलाया जा सकता।
अब तक घड़ी में दोपहर का डेढ़ बज चुका था। अब शुरू हुआ जैसलमेर किले को भीतर से समझने का सिलसिला।अगले दो-ढ़ाई घंटे हमने पूरे किले का करीब से जाना और समझा। इसके बाद बारी आई पटवों की हवेलियों की। हर चीज अपने आप में पूरा इतिहास समेटे हुए है। उन हवेलियों में की गई बारीक कारीगरी तो बस मन ही मोह लेती है और पहली ही नज़र में हैरान कर देती है। किले से बाहर निकले तो रावणहत्था पर फिल्मी गीतों की तान पीछे तक चली आईं। उस मधुर स्वर लहरी के बीच हम सड़क पर आए तो पाया कि सूर्यास्त में अभी देर है। सड़क पर हम जहां खड़े थे वहां से एक रास्ता बाईं ओर कुलधरा तक जाता था। समय हाथ में था तो हम भी कुलधरा की ओर हो लिए। अब जब यहां तक आ ही गए हैं तो कुलधरा से भी मिल लेते हैं। कुलधरा के किस्से तो हम सभी सुनते ही आए हैं। अगली पोस्टों में इन जगहों के बारे में विस्तार से बात करूंगा मगर यहां संक्षेप में बताता चलूं कि कुलधरा के बारे में लोगों का मानना है कि कुलधरा वो बदकिस्मत गांव है जहां के बाशिंदों यानि कि पालिवाल ब्राह्मणों को वहां के दीवान सालिम सिंह के जुल्मों से तंग आकर इसे रातों- रात खाली करना पड़ा था। और उन्होंने ही इस गांव को शाप दिया था कि जैसे हम अपने गांव और घरों में नहीं रह पा रहे हैं इसी तरह कोई भी यहां नहीं बस पाएगा। बस तभी से भुतहे किस्से और कहानियां कुलधरा को जब-तब हमारे सामने लेकर आते रहते हैं।
सूर्यास्त में अब मुश्किल से आधा घंटा बचा था। और आधे घंटे बाद हम सम के उन मनमोहक रेत के टीलों के ऊपर थे जहां से ढ़लते को सूरज को देखने के लिए देश और विदेशों के सैलानी पहले से मजमा लगाए बैठे थे। हमने थोड़ी देर ऊंटों की सवारी की और फिर दिन भर की थकान उतारने के लिए खुद को रेत के हवाले कर दिया। रेत जितनी जल्दी गर्म होती है उतनी ही जल्दी ठंडी भी। रेत में पैर धंसाए हम देर तक वहां बैठे रहे और सामने सूरज किसी सुनहरी तश्तरी की तरह रेत में उतरता हुआ दिखने लगा। ये नज़ारा अद्भुत था। दूर कहीं टैंटों से गीत-संगीत की आवाजें आने लगीं। वहां रात के उत्सव की तैयारियां जोर पकड़ रही थीं और उधर हमारी कार हमें वापिस जोधपुर ले जाने के लिए रेत के टीलों के उस पार हमारा इंतज़ार कर रही थी। बस , उन ढ़लती किरणों के बीच हम जैसलमेर को अलविदा कह कर तेजी से अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले। जोधुपर - जैसलमेर की ये रोड ट्रिप मुझे ताउम्र याद रहेगी। आप अपनी अगली रोड ट्रिप पर कहां जा रहे हैं ?
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