नजीर बनारसी ने अपनी कविता में कहा है कि गर स्वर्ग में जाना हो तो जी खोल के खरचो, मुक्ति का है व्योपार बनारस की गली में। इन्हीं बनारस की गलियों में मेरी सालों से टहलने की तमन्ना थी। मेरे दोस्त मुझे बनारस की बातें बताया करते थे जिससे बनारस के लिए मेरी हसरत और बढ़ गई। हर कोई यही कहता है कि बनारस के रूआब समझना है तो वहाँ घूमने नहीं, रहने जाइए। अक्सर मैं किसी नई जगह पर 4-5 दिन से ज्यादा नहीं रूकता हूं। बनारस को मुझे देखना नहीं था समझना था इसलिए मैंने बनारस को घूमने के लिए कुछ दिन रखे और बाकी दिन मैंने बनारस को अपना बनाने में लगा दिया।
अब मैं कह सकता हूं कि तुम बनारस कहना है और मैं इश्क समझ लूंगा। अब बनारस मेरे लिए अपना-सा है। जहाँ कुछ लोग हैं जिनको मैं जानता हूं। यहाँ की गलियां, चौराहे, दुकानें और घाट को याद करता हूं। मिला जुलाकर मैंने बनारस में पूरे 20 दिन बिताए। इस दौरान मैं सिर्फ घूम ही नहीं रहा था, काम भी कर रहा था। अक्सर काम करने वालों को ये शिकायत होती है कि काम करते हुए घूमने का मौका नहीं मिलता है। ये कोई शिकायत नहीं है, हमने बस बना ली है। मेरे लिए अच्छी बात ये थी कि मैं वर्क फ्राॅम होम कर रहा था जिसे मैंने वर्क फ्राॅम ट्रेवल बना दिया था।
बनारस के बारे में कहा जाता है कि ये एक जिंदा शहर है जो भगवान शंकर की जटा पर बसा हुआ है। वरूणा नदी और अस्सी से मिलकर वाराणसी बना है। हर-हर महादेव की गूंज से उठता ये शहर रात में भी उतना ही गुलजार रहता है। इसी गुलजार और मोहब्बत वाले शहर में मैं काम करते हुए 7 दिन घूमता रहा। अपनी छुट्टी के दिन मैंने रात को बनारस के लिए ट्रेन पकड़ी। मेरे घर से बनारस पहुँचने में 12 घंटे लगते हैं। मैं अगली सुबह जिंदादल शहर बनारस की धरती पर था।
दिन 1
मैं वाराणसी रेलवे स्टेशन पर उतरा। थोड़ी देर बाद मैं बड़े-से रेलवे स्टेशन के बाहर था। मुझे लेने के लिए मेरा दोस्त आया हुआ था। वो मुझे रोड के उस पार ले गया, जहाँ से हम लंका जाने वाली ऑटो में बैठे। मैं रास्ते भर इस नए शहर को देख रहा था। बड़ी-बड़ी सड़कें, मॉल, बड़ी-बड़ी दुकानें और गाड़ियों का रेला दिखा। मेरी कल्पना में जो बनारस था, ये उससे विपरीत था। थोड़ी देर बाद हम लंका के रविदास गेट पर थे। मैं दोस्त के कमरे पर गया और नहा-धोकर थोड़ा आराम किया। इसके बाद हम कुछ दोस्तों से मिलने के लिए निकल पड़े। बनारस के एक रेस्तरां में हम खाने के लिए बैठे। कुछ घंटे हमने वहीं बिता दिए। इसके बाद सब अपनी-अपनी राह पर निकल पड़े। कुछ ही देर में मेरी शिफ्ट शुरू होने वाली थी तो मैं वापस कमरे पर आ गया।
दूसरा दिन
दूसरे दिन सुबह के वक्त हमने बनारस की एक जगह का प्लान बनाया। हम कुल जमा 6 लोग थे। हम बीएचयू गेट के सामने गए, वहाँ की दुकान पर इडली खाई और फिर ई-रिक्शा में बैठकर रामनगर किले के लिए निकल पड़े। थोड़ी देर बाद हम एक पुल से गुजरे, जहाँ से दूर-दूर तक गंगा ही गंगा नजर आ रही थी। पुल से गुजरते हुए मेरे जेहन में दुष्यंत कुमार की वो लाइन कौंध गई, तू किसी रेल-सी गुजरती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूं। थोड़ी देर बाद हम रामनगर किले के बाहर थे। रामनगर किले के अंदर अंदर जाते ही हम टिकट काउंटर पर गए। एक टिकट 60 रुपए का था। टिकट लेकर हम म्यूजियम के अंदर गए। म्यूजियम में हथियार, पुरानी कारें, पोशाकें और भी बहुत कुछ देखने लायक था।
म्यूजियम के बाद हम किले के पीछे की तरफ गए, जहाँ से गंगा नदी का शानदार नजारा दिखाई दे रहा था। हमारे साथ जो साथी थे उन्हीं में से किसी ने बताया कि ये बनारस की राजधानी हुआ करती थी। यहाँ पर फोटो खींचना मना था सो हमने फोटो नहीं खींची। किले के बड़े भाग पर आज भी राजा के परिवार के लोग रहते हैं। इसके बाद हम बाहर निकले और रामनगर के शिवप्रसाद लस्सी भंडार गए। पहली बार मैंने बनारस में लस्सी का स्वाद लिया और मन खुश हो गया। इसके बाद हम फिर से ऑटो में बैठे और जा पहुँचे बीएचयू के बाबा विश्वनाथ मंदिर। मंदिर अभी बंद था सो हम थोड़ी देर वहाँ रूके। मेरे शिफ्ट का वक्त होने को था तो मैं वापस रूम पर आ गया।
दिन 3
अब तक बनारस कुछ अपना-अपना लगने लगा था। हर रोज सुबह उठकर पहलवान लस्सी की दुकान पर कचौड़ी खाना और फिर एक नई जगह को देखना। तीसरे दिन किसी जगह पर घूमने का प्लान नहीं था। हम बीएचयू के मधुबन गए जहाँ कुछ पुराने दोस्त और नए लोगों से मिला। एक दोस्त से तो लगभग 3 साल बाद मिला। इसके बाद हम बनारस के एक कैफे में गए, टेर्रीकोटा कैफे। माहौल बड़ा कूल-सा था। छोटी-छोटी टेबल और फर्श पर गद्दे बिछे थे।
उसके बाद मैं अस्सी वाली गलियों में घूमते हुए अस्सी घाट पहुँच गया। ये पहली बार था जब मैं बनारस के घाट को अपनी आंखों से देख रहा था। कुछ देर बनारस के घाट पर ही बैठा रहा। गंगा में चल रही नावें और दूसरे छोर पर दिख रहे लोगों को देख रहा था। यहाँ भीड़ थी लेकिन सब शांत-सा लग रहा था। इसके बाद मैं वापस कैफे आ गया। काम करने का वक्त हो रहा था लेकिन आज कमरे पर जाने की जल्दी नहीं थी क्योंकि हमने वर्क फ्रॉम कैफे का प्लान बनाया था।
दिन 4
इस दिन हमने सारनाथ घूमने का प्लान बनाया। मैं सोचता था कि सारनाथ बहुत दूर होगा लेकिन वाराणसी से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर सारनाथ था। सारनाथ के बारे में हमने जीके के किताब से पढ़ते आ रहे हैं। सबसे पहले हमने कैंट के लिए टैक्सी ली। वहाँ से हमने फिर से पांडेयपुर के लिए ऑटो ली और फिर वहाँ से हम सारनाथ पहुँचे। सारनाथ में एक दोस्त हमारा इंतजार पहले से कर रहा था। इस दिन सारनाथ में म्यूजियम बंद था सो हम दूसरी जगह को देखने के लिए निकल पड़े। अंदर जाने के लिए टिकट की जरूरत थी और वो भी ऑनलाइन। थोड़ी देर बाद मैं सारनाथ के पुराने शिलालेखों के बीच घूम रहा था।
थोड़ी देर बाद हमने अशोक स्तंभ देखा। उसके बाद इंटरनेट पर सारनाथ की जो पहली तस्वीर आती है उस सांची स्तूप को देखा। स्तूप को देखने के बाद हम बाहर आ गए। उसके बाद हम उस जगह पर गए, जहाँ पर महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों को का संदेश दिया था। वहाँ पर बुद्ध और शिष्यों की मूर्तियां हैं। इसके बाद हम उस पार्क में गए जहाँ पर भगवान बुद्ध की बहुत 80 फीट ऊँची प्रतिमा है। उसको देखने के बाद हम वापस बनारस चले आए।
पांचवा दिन
इस दिन की मैंने ऑफिस से छुट्टी ले ली थी। जिससे मैं दिन भर मैं बनारस को घूमता रहूं। इसके बावजूद हम सुबह की जगह दोपहर में घाट की तरफ निकले। पैदल-पैदल चलते हुए सबसे पहले उस जगह पर गए, जहाँ झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म हुआ था। ये छोटी-सी जगह थी। जहाँ पर रानी लक्ष्मीबाई के घोड़े के साथ मूर्ति थी। इसके अलावा दीवारों पर उनके जीवन का पूरा चित्रण था। इस जगह को देखने के बाद हम अस्सी घाट गए।
अस्सी घाट पर हम बहुत देर तक बैठे रहे और बातें करते रहे। बनारस में लगभग 88 घाट हैं जिनमें कुछ पर बहुत भीड़ रहती है तो कुछ पर बिल्कुल भी। इसके बाद हमने बनारस की आरती दिखी और फिर रात होने के बाद पैदल-पैदल घाट चलने लगे। हम दश्वाश्वमेध घाट तक पैदल-पैदल गए। उसके बाद हम गदौलियां गए। गदौलिया बनारस की फेमस जगह है, जहाँ पर खाने को बहुत कुछ मिलता है। यहाँ पर हम दानी चाट की दुकान गए, जहाँ हमने टमाटर चाट, बास्केट चाट और भी कई चाटों का स्वाद लिया। इसके बाद हम फिर से घाट पर थे। लगभग 12 बजे के बाद हम अपने कमरे पर लौट आए।
दिन 6
पिछले दिन की थकावट बहुत थी तो जमकर नींद ली और उठे तो पहलवान लस्सी पहुँच गए। जहाँ पर मैंने मलइयो, लस्सी और रबड़ी खाई। इसके बाद हम बाबा विश्वनाथ मंदिर गए। आमतौर पर इसके लिए लंबी लाइन में लगना पड़ता है लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं हुआ। कुछ मिनटों में ही दर्शन कर लिए। उसके बाद हम बनारस की गलियों में घूमते हुए आलमगीर मस्जिद गए। ये मस्जिद पंचगंगा घाट के पास थी। यहाँ से गंगा और नावें दिख रहीं थीं। मस्जिद को देखने के बाद हम घाट गए। यहाँ पर कुछ लोग नहा रहे थे तो कुछ बतिया रहे थे। यही बनारस तो मुझे देखना था जो अब मुझे दिख रहा था। इसके बाद हम फिर से अस्सी घाट पर आ गए।
शाम को हम एक नाव में बैठ गए जो हमें मणिकर्णिका तक ले जाने वाली थी। हमने पैदल चलते हुए घाट और गंगा देखी थी। अब गंगा से घाट देख रहे थे। नाव में बैठते ही सब कुछ धीमा हो गया था। ये नाव का सफर अच्छा लग रहा था। लग रहा था कि ये सफर चलता रहे और ये कभी खत्म न हो। सफर तो खत्म होना ही था और हुआ भी। इसके बाद हमने ठंडई पी और फिर काशी चाट भंडार के यहाँ कुछ नए जायके लिए।
दिन 7
अब तक बनारस को लगभग पूरा देख लिया था। घूमते-घूमते हर शहर अपना-सा लगने लगता है। बनारस कुछ ज्यादा ही अपना लग रहा था। इस दिन हमें चुनार किला जाना था जो बनारस से लगभग 30 किमी. की दूरी पर था। पहले हम स्कूटी रेंट पर लेकर जाने वाले थे लेकिन फिर हमें ट्रेन से चुनार गए। 1 घंटे में हमने चुनार पहुँच गए। उसके बाद हमने पूरे चुनार में पैदल चले और फिर अंत में किला पहुँचे। गंगा नदी के किनारे बना ये किला बहुत बड़ा नहीं है लेकिन बनारस आएं तो इस जगह को देख लेना चाहिए। इस किले को देखने के बाद, घंटों यहाँ टहलने के बाद हम टैक्सी से बनारस लौट आए।
इसके बाद भी मैं काम करते हुए दो हफ्ते बनारस में रूका लेकिन किसी नई जगह पर नहीं गया। इन्हीं पुरानी जगह पर बार-बार जाता रहा। बनारस में इतना सब कुछ देखने के बाद कुछ फिर भी रह गया। कुछ जगहें अब भी रह गईं जो अगले सफर में देखने की कोशिश करूंगा। बनारस से लौटने के बाद भी बनारस अब भी मुझमें बना हुआ है।
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