हॉस्टल जबर जगह है। और कॉलेज वादियों में हो तो क्या बात। मस्तीखोरों का ठिकाना, पागलों का अड्डा, जिसने वो दुनिया जी है, कभी भूल नहीं पाया है। यहाँ मिले हम 7 दोस्तों ने प्लान बनाया त्रिउंड ट्रिप का। मार्च ख़त्म हो रहा था। अप्रैल फूल आने वाला था। वो अनजान शख़्स, जिसने मेरा त्रिउंड ट्रेक फ़्री में करा दिया।
कटरा से हमने पठानकोट की ट्रेन पकड़ी और निकल पड़े। वहाँ पहुँचकर पता चला कि तीन टेंट लाने हैं। लेकिन छोटू अपने बैग में टेंट रखना भूल गया।
ख़ैर, हम बचे हुए दो टेंट के साथ आगे बढ़े और पठानकोट स्टेशन से बड़ा ऑटो करके पठानकोट बस स्टॉप पहुँचे। वहाँ से मैक्लॉडगंज की बस रात को चलने वाली थी। तब तक हमने खाना खाया और फिर हमारी हुल्लड़बाजी चालू। इंजीनियरिंग कॉलेज के सात लड़कों को खुल्ला छोड़ दो तो यही करेंगे।
रात को बस आई, हम चढ़े और दो एक घंटे बाद बस एक नुक्कड़ पर रुकी। हमने भी रुक कर चाय का आनंद लिया। रात के दो बजे हम मैक्लोडगंज पहुँचे। हम सात दोस्त, सबके पास एक एक बैग, और दो टेंट।
बहरहाल, जैसे तैसे हमने इतनी रात अपने लिए तीन कमरे बुक किए। पिछली शाम से हम में जज़्ब हुई थकान अब रंग दिखा रही थी। बिस्तर मिलते ही चूर हो गए सारे, अब सुबह देखेंगे क्या करना है।
नींद खुली सुबह के दस बजे। सूरज सर पर था। जल्दी जल्दी हमने नाश्ता किया और नज़दीक के ही मंदिरों के दर्शन की तरफ़ निकल पड़े।
नज़दीक ही बौद्धों का एक मंदिर था। उस वक़्त शायद कोई त्यौहार था, इसीलिए साज सजावट ख़ूब थी और भीड़ भी। हमने प्लान किया कि 1 बजे मंदिर के बाहर मिलेंगे और सारे अलग हो गए।
दोपहर के एक बजे और केवल मैं और साहिल पहुँचे। बाक़ी सारे न जाने कहाँ ग़ुम हो गए थे। जम्मू कश्मीर का प्रीपेड सिम बाहर काम नहीं करता, मतलब न तो वो हमको कॉल कर सकते थे, न हम उनको।
साहिल ने प्लान कैंसिल करने को बोला, लेकिन अब बढ़ गए तो बढ़ गए। यहीं से शुरू होता है हमारी सैर का दूसरा क़िस्सा।
त्रिउंड ट्रेक की शुरुआत जहाँ से होती है, वहाँ के लिए मैक्लॉडगंज से बस जाती है। हमने बस की और निकल गए।
स्टॉप पर पहुँचते ही हमने आगे का सफ़र किया। यहाँ पर हमको मिलते हैं एक भैया। ये हमारी कहानी के अनजान शख़्स हैं, जो पासआउट तो हो गए हैं लेकिन कॉलेज ख़त्म नहीं हुआ लगता है। आपका नाम अर्जुन है। जॉब वाले थे, तो पैसा भी ठीक ठाक था। हम भी पैसे वाले के साथ हो लिए।
अब भाई ने अपने क़िस्से सुनाने शुरू किये। किस तरह से कॉलेज के प्रोफ़ेसर हमेशा उनसे डरते थे। अपने ज़माने में वो कैसे अपने से बड़ों की भी छुट्टी कर देते थे। कॉलेज की कितनी ही कन्याओं ने उनको प्रपोज़ मारा था। लेकिन भाई अपनी कहानी के हीरे थे, साहिर लुधियानवी टाइप। प्यार सबसे किया, शादी किसी से नहीं।
दोपहर दो बजे हम त्रिउंड ट्रेक के स्टार्टिंग प्वाइंट पर पहुँचे। तीन बजे तक हमने अपने साथियों का इंतज़ार किया। लेकिन वो नहीं आए। फिर हम ऊपर चल दिए।
त्रिउंड ट्रेक में आप जितना ऊपर जाते जाएँगे, चीज़ों के दाम उतने ही ज़्यादा होते जाते हैं। पानी की बोतल नीचे 25 की तो सबसे ऊपर 60 रु. की मिलेगी। लेकिन भाई साथ हैं तो डरने की क्या बात है। चलो भैया।
त्रिउंड ट्रेक पर चलते वक़्त ढेर सारे बेस्ट व्यू कैफ़े मिलते हैं। जहाँ एक ओर है पहाड़ और दूसरी ओर खाई। सब जगह आपको वॉशरूम नहीं मिलेगा। यहाँ पर मिली हमें कुछ लकड़ी, जो हम साथ लाना भूल गए थे। भाई के स्वैग में कुछ लकड़ी हमने चुरा ली और भग लिए। बाकी व्यवस्था हम करके चले थे।
आगे चलकर हमने कुछ सामान खरीदा। शाम हो रही थी और अभी तक हमारा ट्रेक पूरा नहीं हुआ था। अगर हम शाम ढलते ऊपर नहीं पहुँच पाते तो हालत खस्ता हो जाती। क्योंकि न हमारे पास फ़ोन था, न ही ट्रेक का कोई पक्का रास्ता। सब लोग अपने ही हिसाब से ट्रेक पर पहुँचते हैं। देख देख कर, उसके लिए भी तो लाइट चाहिए होती है।
पहाड़ चढ़ते चढ़ते हम भी भाई से भाभी के क़िस्से सुनते जा रहे थे। वो ऐसी हैं, वो वैसी हैं। आगे का रास्ता कठिन होता जा रहा था।
इसी बीच पैसे की औक़ात समझ आई। त्रिउंड ट्रेक पर इतने लोग नहीं जाते कि ढेर सारा पैसा बने। तो ट्रेक की व्यवस्था कैसी है, न तो लाइट है, न ही कुछ और। वहीं वैष्णो देवी का ट्रेक पर कितनी सारी व्यवस्था है लोगों के लिए। माता का नाम लेकर हर साल लाखों लोग दर्शन करने आते हैं। तो भक्तों के लिए श्राइन बोर्ड ने कितनी अच्छी व्यवस्था कर रखी है। कितने ही प्रकार से दर्शन करने की व्यवस्था है। और यहाँ साला चाँद की रौशनी में रास्ता ढूँढ़ना पड़ रहा है।
ख़ैर, हम अँधेरे में लात चला रहे थे।
और फिर आया वो मौक़ा, जब हम थे सारी ऊँचाइयों के पार। रात के अँधेरे में हमने अपना ट्रेक पूरा किया था। रात के 9 बज रहे थे। हम चिल्ला चिल्ला के अपनी जीत की गवाही दे रहे थे। जीत लिया भइ जीत लिया, त्रिउंड का पर्वत जीत लिया। लोग सोच रहे होंगे कि ये कौन तीन बेवकूफ़ लोग बिना बात रात के वक़्त बाँग दे रहे हैं, लेकिन हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
ऊपर जाकर देखा तो सैकड़ों लोग आए हुए थे। एक कंपनी ने लोगों के लिए ख़ूबसूरत टेंट की व्यवस्था के साथ खाने पीने का भी इंतज़ाम कर रखा था।
लेकिन भाई हमारे साथ थे।
तीन मैगी हमने ले ली। दाम 180 रुपए। लेकिन भाई साहब उस ठंड और उस ऊँचाई में इस मैगी की इतनी क़ीमत भी कम लगती है। यक़ीन मानो बिना बियर, वहाँ काण्ड ही हो जाता हमारा।
15 मिनट बाद हमारी ही तरह कुछ लोगों की आवाज़ें आना शुरू हुईं। "जीत लिया भाई जीत लिया, त्रिउंड का पर्वत जीत लिया।" हम समझ गए, हमारे बदमाश यार पहुँच चुके हैं। हमने भी यहाँ से भौंकना शुरू किया। सारे लोग मिलकर भयंकर ख़ुश हुए।
हमने अर्जुन भाई से सबको मिलवाया। साहिल ने पूरा खर्चा किया था बाकी लोगों का। वो हिसाब गिनाना शुरू ही हुआ था कि हमने टेंट लगाने का बोल दिया। बेचारा आत्माराम भिड़े की तरह बस चुप ही हो गया।
टेंट लगाने की जगह तय की। हम 4 लोग टेंट लगाने में लग गए। बाकी लोग आग लगाने की व्यवस्था करने लगे। टेंट लगा तो साँस में साँस आई। सामान रखकर हम जो मैगी लेकर आए थे, वो बनाने की व्यवस्था करने लगे।
लकड़ी थी, लाइटर था, सूखी घास भी थी। जैसे तैसे हमने मैगी का बर्तन सेट किया। पानी डाला और मैगी बनाने का काम शुरू। हमारे मास्टरशेफ़ प्रसाद ने जो कच्ची मैगी बनाई, उसका स्वाद भगवान जाने, इस मौसम में सेक्सी लग रही थी।
इसके साथ भाई हमारे लिए दाल चावल ले आए थे। अब हमको फ़्री का खाना क्यों काटेगा। सब मैगी के साथ दाल चावल पर भी टूट पडे़।
फिर हमने आग में खेलने का दौर शुरू किया। सब कोई अपनी लड़ाइयों और प्रेमिकाओं के क़िस्से सुना रहे थे। अर्जुन भाई इस मामले में ग़ज़ब खिलाड़ी हैं। उनके पास हमेशा कोई नई कहानी होती है। इस बार उन्होंने किसी शिवानी मैम की कहानी सुनाई।
आसमान एकदम साफ़ था। दिल्ली की धुंध में आसमान नहीं दिखता, वहीं त्रिउण्ड में तो तारों की छाँव में हम कव्वाली गा रहे थे। सबमें नुसरत साहब की आत्मा घुस गई थी। कि शराब पीना सिखा दिया... तेरे प्यार में तेरी चाह ने... मुझे इक शराबी बना दिया...।
इस ठण्डक भरे माहौल में बस एक कमी थी, वो कमी थी शराब की। मायूस सब थे, मुझे छोड़ कर। मैं अपने साथ चरस लेकर चलता हूँ। मज़ाक कर रहा हूँ। मैं पीता नहीं।
ख़ैर, हम सब रात 12 बजे तक सो गए।
बचे हुए दो टेंट में हम सब जैसे तैसे सेट हुए। किसकी लात, किसके हाथों में थी और कौन किसके मोज़ों की ख़ुशबू पा रहा था, कौन जाने। बस रात के गुज़रने का इंतज़ार था सबको। इस मामले में मैं सबसे किस्मत वाला था। मैंने अपने साथ एक इनर, एक शर्ट, उस पर एक स्वेटर, एक जैकेट और सबसे ऊपर एक फिरन पहन लिया था। ठंड का दीवाला निकल जाए मुझ तक पहुँचने में।
हम पड़ गए और उठे सुबह 6 बजे। बाहर सूरज तो नहीं उगा था, लेकिन सुबह हो गई थी। पहाड़ के पीछे सूरज था, और हम जाबड़ मूड में थे। अर्जुन भाई ने सबको एक चाय ख़रीद दी। एक कप का दाम 30 रुपए। अर्जुन भाई ज़िन्दाबाद।
उस दिन की तस्वीरों का एक बड़ा ज़ख़ीरा हमने अपने कैमरे में क़ैद करने की कोशिश की। मेरे अन्दर का डब्बू रत्नानी अपने रेडमी के 2 साल पुराने फ़ोन पर कलाकारियाँ दिखा रहा था।
अपने नज़दीक के सारे हिस्से को कवर कर लिया था हमने। अब इच्छा थी और ऊपर बढ़ने की। जिस पर 8 में से 5 ने ही हाँ की। अर्जुन भाई ने भी मना कर दिया।
लेकिन हम बढ़ गए। पूछने पर पता चला कि आगे का रस्ता 1 घंटे का है। हम बढ़ गए, अपने फिरन में ही सही, घूमना हमारे लिए ज़रूरी था।
फिर क्या बढ़ चले, सवा घंटे के बाद जब हम ऊपर पहुँचे तो देखा जन्नत किसे कहते हैं। ऊपर सूरज अपनी गर्मी दिखा रहा था, और नीचे बर्फ़ चाँदी सी चमक रही थी। बीच में हम अपनी इस चढ़ाई पर नाज़ कर रहे थे।
बहुत सारी तस्वीरें खिंचाने के बाद हम शायर लोग नीचे की तरफ़ बढ़ चले। नीचे का सफ़र ज़्यादा कठिन था, लेकिन वो सवा एक घंटे का सफ़र जो हमने चढ़ने में लगाया था, वो आधे घंटे से भी कम में निपट गया। एक तरफ़ पहाड़, दरकती ज़मीन और दूसरी तरफ़ खाई। आख़िर में तो हम उस पर पागलों की तरह भाग रहे थे।
फिर हमने नीचे जाने का सफ़र तय किया। पिछली बार जिन्होंने टेंट उठाया था, वो अब मौज में थे, और हमने अपने कंधे पर टेंट ले लिया। कोल्हू का बैल देखा है आपने, हम भी वही लग रहे थे।
अब धूप थी, नीचे उतरने में टाइम ज़्यादा नहीं लगा। बीच में खाने पीने की व्यवस्था के लिए अर्जुन भाई साथ दे रहे थे।
चाय में पकौड़े डुबोते हुए शर्म भी आ रही थी। क्योंकि किसी को हमने इतना नहीं लूटा होगा अपनी ज़िन्दगी में। लेकिन पकौड़े प्याज़ के थे और चाय एकदम गर्म। हमने शर्म को चाय के साथ गटक लिया।
नीचे चलते चले हम। इस सफ़र के बाद हमको इतना सुकून मिला था कि क्या कहना। मैक्लॉडगंज पहुँचकर हमने अर्जुन भाई को विदा किया और पठानकोट की तरफ़ रुख़ किया। हमारा सफ़र ख़त्म हो चुका था।
पठानकोट से जम्मू की बस का इंतज़ार हमारे नसीब में था। हमें बस मिली और रात के एक बजे एक दोस्त के घर दरवाज़ा खटखटाया। पहुँचने से पहले हमने उसे बता दिया था कि हम उसके पास आ रहे हैं लेकिन इस बार हमने उसे अप्रैल फ़ूल नहीं बनाया था। हम 7 लोग सच में उसके घर में ज़बरदस्ती घुस गए थे।
लेकिन अंटी बहुत अच्छी हैं। उन्होंने सबके लिए आलू के पराँठे और चाय बनाया। सुबह तड़के 11 बजे की बस से हम कॉलेज पहुँचे। ये रहा हमारा सफ़र।
झेलने के लिए शुक्रिया!