उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। ये वो राज्य है जिसकी सुंदरता के चर्चे केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्वभर में होते आए हैं। विशाल पहाड़, हरी-भरी घाटियाँ और उन घाटियों से बहती तमाम नदियाँ इस राज्य में बसने वाली बेशुमार खूबसूरती का जीता जागता उदाहरण की तरह हैं। लेकिन क्या उत्तराखंड आज भी वैसा ही है जैसा कि 50 साल पहले था? क्या आज भी उत्तराखंड जाने पर आपको वही लहलहाते हुए पेड़, ठंडी मदमस्त हवाएँ और बर्फ से ढके पहाड़ दिखाई देते हैं? राज्य के कुछ हिस्सों में आपको ये सब आज भी देखने के लिए मिलेगा। लेकिन इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहाँ इन्सानों ने इतने ज्यादा बदलाव लाने की कोशिश की है कि उसका खामियाजा प्रकृति को भरना पड़ रहा है।
इन बदलावों के लिए किसी एक व्यक्ति या समय को दोषी ठहराना मुमकिन नहीं है। उत्तराखंड में हर साल नए-नए डैम बनाए जा रहे हैं जिनका राज्य में बढ़ते लैंडस्लाइड और भूकंप से सीधा संबंध है। इन प्रोजेक्ट्स को बनाने के लिए लाखों हेक्टेयर जंगल काटे जा रहे हैं जिससे इकोसिस्टम को सीधा नुकसान हो रहा है। लेकिन दुख की बात ये है कि इतना सबकुछ होने के बाद भी उत्तराखंड में बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं की सुध लेने वाला कोई नहीं है। स्थानीय लोगों और विशेषज्ञों के कहने के बावजूद भी नए प्रोजेक्ट्स बनाने के लिए लगातार स्कीमों को मंजूरी दी जा रही है। जिससे लैंडस्लाइड और भूमकंप होने का खतरा बढ़ जाना जाहिर है। अब इन मुद्दों को समझने की कोशिश करते हैं। इसके लिए हमने एक सूची तैयार की है जिससे उत्तराखंड में लगातार हो रहे लैंडस्लाइड को समझना थोड़ा आसान हो जाएगा।
1. स्थानीय लोगों को नजरअंदाज
2013: केदारनाथ त्रासदी, 1998: मलपा लैंडस्लाइड, 1991: उत्तरकाशी भूकंप और 2021: ऋषिगंगा त्रासदी। इन सभी आपदाओं में हुए नुकसान का अंदाजा आज तक नहीं लग पाया है। कितने लोगों की जानें गईं, कितने बेघर हुए इन सबके आंकड़ों कागजों पर जरूर हैं लेकिन क्या वो हुए नुकसान की असल तस्वीर दिखा पाएंगे? ये बात समझनी होगी कि हम प्रकृति के साथ जितनी छेड़छाड़ करेंगे, उसका नुकसान हमें ही भुगतना पड़ेगा। ये बात किसी भी राज्य के स्थानीय लोगों से अच्छा और कौन समझ सकता है? इसी के चलते उत्तराखंड के लोकल लोगों ने सरकार द्वारा बनाए जा रहे ऐसे बेकार के प्रोजेक्ट्स के खिलाफ आवाज उठाने की भी कोशिश की है। रेनी गाँव के कुंदन सिंह ने 2019 में ऋषिगंगा प्रोजेक्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी। जवाब में कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से 3 हफ्तों के अंदर इस मुद्दे के बारे में जानकारी मांगी थी लेकिन ये कैस आजतक कभी ना खत्म होने वाली सरकारी कारवाही में फंसा हुआ है। अगर इसपर समय से कारवाही की जाती तो आज शायद ऋषिगंगा त्रासदी को रोका जा सकता था।
2. बेबुनियादी प्रोजेक्ट्स
उत्तराखंड में लगातार बढ़ती आपदाओं का दूसरा कारण है सरकार द्वारा बनाए जा रहे प्रोजेक्ट्स। हर साल किसी ना किसी नए डैम या जंगल को काटने की मंजूरी दे देती जाती है। इससे इकोसिस्टम प्रभावित होता है जिसका अंदाजा लगा पाना मुश्किल है नहीं नामुमकिन है। नीति आयोग के बार-बार कहने के बावजूद सरकार की तरफ से इसपर कोई काम नहीं किया जा रहा है जिससे ऐसे बेबुनियादी प्रोजेक्ट्स को रोका जा सके। उत्तराखंड में बन रहे चार धाम हाईवे का उदाहरण ले लीजिए। बार-बार टोकने के बाद भी इस प्रोजेक्ट को रोकने वाला कोई नहीं है। एक तरफ जहाँ सुप्रीम कोर्ट सड़क की चौड़ाई निश्चित करने में लगा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ इससे पर्यावरण को कितना नुकसान होगा इसकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। वैसे देखा जाए तो ये हाल केवल उत्तराखंड तक ही सीमित नहीं है। मुंबई के आरे जंगलों को रातभर में काटने का आदेश दे दिया जाता है क्योंकि कोर्ट को उसपर स्टे ऑर्डर लगाना उचित नहीं लगता है। देहरादून के रवि चोपड़ा ने गंगा पर बनाए जा रहे तमाम डैम पर रोक लगाने के लिए याचिका दाखिल की थी लेकिन आजतक उसका भी कोई हल नहीं निकल पाया है।
3. प्रकृति के साथ छेड़छाड़
इन प्रोजेक्ट्स को बनाने के लिए लाखों हेक्टेयर जमीन चाहिए होती है। जिसके लिए जंगल काटे जा रहे हैं। डैम बनाने के लिए नदियों का पानी या तो रोका जा रहा है या उनके बहाव को घुमाया जा रहा है। सड़क और हाईवे बनाने के लिए जानवरों के घर नष्ट किए जा रहे हैं। खनन के काम के लिए पहाड़ों में बॉम्ब ब्लास्ट किए जा रहे हैं। इतना सबकुछ होने के बाद भी यदि आपको लगता है कि इन प्रोजेक्ट्स का होना सही है तो शायद आपको थोड़ा और सोच लेने की जरूरत है। हर साल नए प्रोजेक्ट्स पर काम शुरू किया जा रहा है जिससे प्राकृतिक नुकसान के साथ-साथ इन्सानों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ रही है। असम के देहिंग पत्काई, छत्तीसगढ़ के हरदेव अरंड, झारखंड के सरांदा और वेस्टर्न घट तक के सभी इलाकों में बढ़ती मानव गतिविधियाँ इस बात के लिए आइना समान हैं।
4. कोई सबक नहीं
उत्तराखंड में लगातार हो रही आपदाओं के बाद भी सरकार उससे सबक लेने को तैयार नहीं है। ऋषिगंगा त्रासदी के तुरंत बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल में 614 हेक्टेयर में फैले जंगलों को काटने की अनुमति दे दी है। ऐसा मानना है कि इन जंगलों को 138 बड़े प्रोजेक्ट्स बनाने के चलते हटाए जाने की बात है। प्रकृति से छेड़छाड़ कितना नुकसानदायक हो सकता है इस बात से अब कोई अनजान नहीं है। लेकिन बढ़ते लैंडस्लाइड और भूकंप के बाद भी हम इससे सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। आखिर कब तक हम इन चीजों को अनदेखा करते रहेंगे?
क्या है असल तस्वीर?
बढ़ते शहरीकरण के चलते हो रहे नुकसान की भरपाई कर पाना मुश्किल है। लेकिन इसका ये मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि इस नुकसान को कम नहीं किया जा सकता है। नेचुरल हेरिटेज डिवीजन की रिपोर्ट के मुताबिक हिमालई क्षेत्र में विकास के नाम पर बनाए जा रहे डैम से आसपास के इलाकों को भरी नुकसान उठाना पड़ रहा है। केवल 2019 में ही गंगा पर कुल 1000 डैम बनाए जा चुके हैं जिससे नदी के प्राकृतिक बहाव में बदलाव आ चुका है। अकेले उत्तराखंड में ऐसे 76 प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी जा चुकी है जिससे नदी पर असर पड़ना तय है। इसके बाद 70 और प्रोजेक्ट्स हैं जो पाइपलाइन में हैं और इन्हें बस मंजूरी मिलने की देर है। हिमाचल की बात करें तो वहाँ भी ऐसे तमाम प्रोजेक्ट्स को बहाल किया जा चुका है। इन सबमें सबसे बड़ा है जिस्पा प्रोजेक्ट जिसके तहत एक बार में 12 गाँवों के डूब जाने का खतरा बना हुआ है।
क्या असल में ऐसे प्रोजेक्ट्स की जरूरत है?
इतना सबकुछ होने के बाद भी एक सवाल है जो हर किसी के मन में होगा। प्रकृति को हो रहे नुकसान और बढ़ती आपदाओं के बाद भी क्या इन प्रोजेक्ट्स पर रोक लगनी चाहिए? या क्या अभी हो रहे नुकसान को झेलने के बाद आगे आने वाले समय में ये प्रोजेक्ट्स फायदेमंद रहेंगे? अगर आपके मन में भी ऐसे सवाल उठ रहे हैं तो उसका जवाब हम आपको दे देते हैं।
1. प्रोजेक्ट्स पर होने वाला खर्च
इन प्रोजेक्ट्स को बनाने के लिए हर साल करोड़ों रुपए खर्च किया जाते हैं। जिससे सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा खर्च हो जाता है। बाद में इन प्रोजेक्ट्स की वजह से हो रही आपदाओं के राहत कार्य में अलग खर्च करना पड़ता है। जो इन प्रोजेक्ट्स को और भी महंगा बना देता है। अगर आप एक बार इन प्रोजेक्ट्स के प्राकृतिक प्रभाव को नजरअंदाज कर भी दें तो क्या आपको नहीं लगता कि इतने करोड़ों रूप खर्च करने के बाद भी इससे मिलने वाली सुविधाएँ दूर-दूर तक नदारद हैं? सुविधाएँ तो छोड़िए बल्कि इससे केवल नुकसान ही हो रहा है।
2. लंबे समय तक फायदा
बाकी सभी मुद्दों के अलावा एक और सवाल है जिसका जवाब हम सबके पास होना चाहिए। क्या इतनी मेहनत और खर्च से बनाए जा रहे ये प्रोजेक्ट्स आगे आने वाले 25-30 साल के बाद भी फायदेमंद रहेंगे भी या नहीं? देखा जाए तो जिस तेजी से ग्लेशियर पिघल रहे हैं, कुछ समय बाद इन प्रोजेक्ट्स में लगने वाला पानी होना भी मुश्किल है।
3. सोलर एनर्जी बेहतर विकल्प
समझदारी से सोचा जाए तो डैम बनाने से बजाए सोलर एनर्जी इस्तेमाल करना ज्यादा किफायती और सस्टेनेबल तरीका है। सोलर एनर्जी के लिए केवल आपको सोलर पैनल लगवाने का शुरुआती खर्च उठाना पड़ता है। इससे पर्यावरण को ना अभी कोई नुकसान होता है और ना ही आगे जाकर कोई आपदा का खतरा पैदा होता है।
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