देवभूमि उत्तराखंड और शिव का बेहद अटूट रिश्ता है।
गहरे नीले आसमान के तले बर्फीले हिम पर्वतों से निकलती, चट्टानों में सुराख बनाये गुफाओं और बड़ी-बड़ी शिलाओं के बीच से बहती नदियाँ शिव की जटाओं जैसी दिखती हैं। कहीं तेज़ रफ़्तार से बहती नदी तांडव में चूर शिव की उछलती लटों जैसी हैं, तो शांत-छिछली बहती धारा ध्यान में लीन शिव के कंधे पड़े केशों जैसी लगती हैं ।
बात करते हैं पंच-केदार की, जो उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र में आता है।
पंच मतलब 5 और केदार शिव का ही एक और नाम है। तो पंच-केदार उन पाँच धार्मिक जगहों के समूह का नाम है, जो भगवन शिव को समर्पित हैं।
इन पाँच मंदिरों के तीर्थ को क्रम से करने की मान्यता है -
केदारनाथ (3,583 मीटर /11,755 फ़ीट )
तुंगनाथ (3,680 मीटर /12,070 फ़ीट)
रुद्रनाथ (2,286 मीटर/7,500 फ़ीट)
मध्यमहेश्वर या मदमहेश्वर (3,490 मीटर/11,450 फ़ीट)
कपलेश्वर (2,200 मीटर/7,200 फ़ीट)
कथाओं की मानें तो महाभारत के युद्ध के बाद, पांडव अपने पापों का प्रायश्चित करने लिए यहाँ शिव के दर्शन के आये थे। पांडवों की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव बैल का रूप लेकर उन्हें यहाँ-वहाँ खदेड़ते रहे। दृढ़ निश्चयी पांडवों ने भी हार नहीं मानी और बैल रुपी शिव का पीछा करते रहे। पीछा किये जाने पर बैल ने ज़मीन में सींग दे मारे और खाली उनका कूबड़ ज़मीन से बाहर रह गया। इसी कूबड़ को आज केदारनाथ में पूजा जाता है। गढ़वाल की अलग-अलग जगहों पर शिव के अंग कुछ इस तरह दर्शन देते है :
केदारनाथ में कूबड़
तुंगनाथ में बाहु (हाथ)
रुद्रनाथ में मुख
मद्महेश्वर में नाभि
कल्पेश्वर में जटायें (केश)
इन सभी मंदिरों में जाने बाद बदरीनाथ में भगवान विष्णु के दर्शन की बारी आती है, जो क्रमानुसार की हुई इस यात्रा के साक्षी है। यात्रा जो हमें ले जाती है केदारनाथ वाइल्डलाइफ सेंचुरी से 150 कि.मी. पैदल और 150 कि.मी. रोड पर, खूबसूरत वादियों और वन्यजीव के बीच से। सफर ऋषिकेश से शुरू होता है। हमने ज़्यादातर रास्ते के लिए एक टवेरा बुक का ली थी।
पहला दिन
सुबह-सुबह हम ऋषिकेश से अपने पहले केदार; केदारनाथ की ओर निकले। रास्ता 5 संगमों से होते हुए निकलता है - देव, रूद्र, कर्ण , नंद और विष्णु प्रयाग, और गौरीकुंड तक जाता है, जहाँ से केदारनाथ की चढ़ाई शुरू होती है। 2013 की भयंकर बाड़ के कारण रास्ता बदल चुका है।
दूसरा दिन
सुबह करीब 8 बजे हमने केदारनाथ मंदिर की ओर अपनी 13 कि.मी. की चढ़ाई शुरू की।
हमारे केदारनाथ पहुँचने तक काफी तेज़ बरसात शुरू हो गयी थी। मुंबई जैसे तटवर्ती इलाके से होने के कारण हम केदारनाथ की 12000 फ़ीट की ऊंचाई के माहौल में आसानी से नहीं ढल पाए। इसलिए रात बिताने के लिए महाराष्ट्र मंडल के गेस्ट हाउस का कमरा लिया और सो गए।
तीसरा दिन: केदारनाथ मंदिर- शिव रुपी बैल की कूबड़
मन्दाकिनी नदी के मुहाने पर बने प्राचीन केदारनाथ मंदिर के ढाँचे को सदियों से पुननिर्मित करा जाता रहा है। यहाँ स्थापित लिंग भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है और ख़ास बात ये कि इसका आकार कोई आम लिंग जैसा न हो कर पिरामिड जैसा है! 3581 मीटर की ऊँचाई पर बना केदारनाथ सृष्टि के सृजनकर्ता और विनाशक शिव का ही दूसरा नाम है।
लिंग दर्शन के बाद मंदिर के पीछे बनी आदि शंकराचार्य की समाधि देखने गए। मान्यता है कि एक दिन शंकराचार्य मंदिर के पीछे रहस्यमयी तरीके से गायब हो कर हमेशा के लिए समाधि में लीन हो गए। इसीलिए वैदिक काल की पुनर्स्थापना करने वाले आदि शंकराचार्य की पुण्य - स्मृति में ये समाधी बनाई गयी है।
केदारनाथ से 8 कि.मी. की चढ़ाई करने पर एक खूबसूरत झील वासुकीताल जाने का मन बनाया। पर चूँकि और भी केदार देखने थे और चढ़ाई भी मुश्किल थी इसलिए हम गौरीकुंड की तरफ चल दिए।
गौरीकुंड शाम को पहुँचे, पैक किये हुए कुछ हल्के-फुल्के स्नैक्स खाये और अपने अगले ठिकाने, उखीमठ, जो रुद्रप्रयाग से करीब 46 कि.मी. दूर है और हमारे अगले केदार मद्महेश्वर का बेस है, की ओर बढ़ चले। शाम को उखीमठ पहुँच कर लॉज में ठहरने की व्यवस्था की। एक ट्रेक के लिए हमे कुछ लोकल गाइड्स की ज़रूरत थी, जिसका इंतज़ाम होटल के मालिक ने कर दिया। इन दो जोशीले नौजवानों के साथ काफी अच्छी दोस्ती हो गयी थी।
दिन 3
उखीमठ से करीबन 22.5 कि.मी. दूर उनिआना तक रास्ता जाता है जहां से ट्रैक शुरू होती है। हमने सफर सुबह जल्दी शुरू किया और उनिआना 9:00 तक पहुंचे। यहाँ से कच्चा रास्ता एक छोटे से गाँव रांसी की ओर ले जाता है।
रांसी के बाद पहला बड़ा पड़ाव गौनधार है। मद्महेश्वर जाने वाले ज्यादातर श्रद्धालु गौनधार में रुकना पसंद करते हैं (उनिआना से करीब 8 किलोमीटर ) और फिर यहाँ से मंदिर की 12 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ते हैं। कैलाश टूरिस्ट लॉज रुकने के लिए काफी सही है।
हमने अपना पूरा जोर लगाया और नानो गाँव तक पहुँचने की पूरी कोशिश। पर रास्ते में पता चला कि गाँव के मुखिया की बेटी की हाल ही में मौत हुई है तो शायद हमें वहाँ रुकने की व्यवस्था नहीं मिलेगी।
इसीलिए हमने खदरा खाल जाने का फैसला किया, जो नानो से थोड़ा सा पहले आने वाला एक खूबसूरत-सा गाँव है। रात भर आराम किया और वहीं उगाई हुई स्वादिष्ट लौकी और गेहूं की रोटियाँ खाई। रात का हसीं आसमान अपने कमरे की खिड़की से देख कर क्या प्यारी नींद आयी!
दिन 4 मद्महेश्वर (महादेव की नाभि)
खदरा से मंदिर की खड़ी चढ़ाई है, जो हमने सुबह जल्दी शुरू की।
ऐसी जगहों पर चढ़ाई करने से बहुत जल्दी थकान होती है तो बेहतर है की कुछ खाने पीने का, जैसे एनर्जी बार्स या टैंग/ग्लूकोज़ साथ में रखें। इससे आगे बढ़ने की हिम्मत मिलती है और हौंसला बना रहता है। मंदिर से 3 किलोमीटर पहले चाय-बिस्किट खाये और फिर चढ़ने लगे। शाम के लगभग 4 बजे हमें बादलों से ढके आसमान के नीचे मद्महेश्वर मंदिर की एक झलक मिली।
मद्महेश्वर का मंदिर, गुप्तकाशी (गढ़वाल) के उत्तर - पूर्व में करीब 25 किलोमीटर दूर ढ़लान पर बना है। चौखम्बा चोटी की गोद में बसे मंदिर की वास्तुकला उत्तरी भारत शैली की है।
यहाँ का पानी इतना पवित्र माना जाता है कि मात्र कुछ बूंदों से नहाकर पाप मुक्त हो जाएंगे। केदारनाथ और नीलकंठ, दोनों चोटियां यहाँ से साफ़ नज़र आती है। आस-पास के सारे पर्वत महादेव के जीवन से जुड़े हुए है।
उस रात मंदिर के गेस्ट हाउस में सोये हम खुशकिस्मत थे कि बुज़ुर्ग पुजारी से बात करने का मौका मिला। उन्होंने जड़ीबूटियों के बारे में काम की बातें बताई, सुनकर काफी जानकारी मिली। उन्होंने हमें मद्महेश्वर से 8 किलोमीटर दूर एक अनोखे गरम पानी के कुंड 'नंदी कुंड' जाने का भी सुझाव दिया। इसके बावजूद कि अभी हमें काफी लम्बा सफर और तय करना था, हमारी इस कुंड में इतनी दिलचस्पी बढ़ी कि लौटते वक़्त यहाँ आने का फैसला कर ही लिया। मंदिर में क्या अजब सुकून की रात थी वो!
दिन 5
सुबह जल्दी उठे, मंदिर के दर्शन किए और कुछ ग्रुप फोटोज़ भी ली।
मध्यमहेश्वर से 2 किलोमीटर ऊपर बूढ़ा महेश्वर मंदिर जाने का मन बनाया। एक बेहद प्राचीन और घास के मैदानों से घिरा हुआ खूबसूरत मंदिर, जहाँ से चौखंबा के नजारे दिखते हैं।
चूँकि यहाँ तालाब के पानी को पवित्र मानते हैं, इसलिए इसी से मंदिर में रखे हुए शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है।
परिसर के बाहर जूते-चप्पल निकालकर पानी से खुद को साफ किया, और फिर कुंड के पानी को एक साफ़, धुले हुए बर्तन में डालकर बूढा महेश्वर मंदिर गए और फिर वहाँ पूजा की।
इस शांत इलाके में कुछ अच्छी तस्वीरें लेने के बाद हमने गौनधार जाने का फैसला किया। मन तो यहाँ ऐसा रमा कि यहाँ से जाने की इच्छा ही नहीं हुई, पर उसी शाम तक उनियाना पहुँचना ही था।
24 किलोमीटर के ट्रैक के बाद हम 6:00 बजे तक उनियाना पहुँच ही गए और वहाँ से चौपटा (तुंगनाथ के बेस) की ओर बढ़ गए।
रात को करीब 10:00 बजे चोपटा पहुँच कर एक छोटे से रेस्टोरेंट में चेक-इन किया और थकान के मारे सो गए।
दिन 6 तुंगनाथ (शिव के बाहु)
चौपटा से 4 किलोमीटर चढ़ने पर तुंगनाथ मंदिर पहुँचते हैं , जो धार्मिक स्थल कम और टूरिस्ट प्लेस ज़्यादा लगता है। यहाँ के पुजारी विदेशी सैलानियों को चप्पल पहने शिवलिंग के पास आने दे रहे थे। मगर इससे तुंगनाथ की भव्यता पर कोई असर नहीं हुआ।
तुंगनाथ भारत का सबसे ज्यादा ऊँचाई पर बसा हुआ मंदिर है। कथाएँ कहती हैं कि यहाँ शिव का हाथ प्रकट हुआ था।
कहते है रावण ने महादेव को प्रसन्न करने के लिए यहीं तपस्या की थी।
तुंगनाथ मंदिर में बायीं ओर झुका हुआ एक फुट ऊँचा स्यंभू -लिंग स्थापित है। इसे महादेव का हाथ समझ कर पूजा जाता है।
एक तरफ पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत में पांडवों द्वारा अपने भाइयों के नरसंघार पर शिव काफी क्रोधित हुए और इसीलिए शिव के क्रोध को कम करने के लिए और साथ ही अपने मोक्ष हेतु पांडवों ने यह मंदिर बनवाया।
तो दूसरी तरफ कहा जाता है कि जब आदि शंकराचार्य अपने ऐतिहासिक दौरे पर यहाँ आए तो उन्होंने यह मंदिर बनवाया था। मंदिर के गर्भ गृह में लगी आदि शंकराचार्य की तस्वीर इस बात को और विश्वसनीय बनाती है। यहाँ अष्टधातु पर बनी कालभैरव की तस्वीर और आदि शंकराचार्य की तस्वीर के साथ पांडवों की तस्वीरें भी लगी हैं, तो कुछ कहा नहीं जा सकता।
दिन 7
सुबह जल्दी नाश्ता करके हम रुद्रनाथ के लिए तैयार थे। क्यूंकि ट्रेक का रास्ता खेतों से निकलने के बाद काफी खड़ा और उबड़ - खाबड़ है इसीलिए हमारे मेज़बान ने एक गाइड-कम-कुली का इंतेज़ाम भी कर दिया था। रात तक पनार बुग्याल पहुँचना था, पर सैलानियों की भीड़ देख आशंका थी कि शायद ठहरने की जगह न मिले। इसीलिए पनार से थोड़ा पहले ल्यूटी बुग्याल में रुक गए।
सफर की गर्मी और थकान के कारण पूरा ध्यान जल्द से जल्द ल्यूटी पहुँचने पर था, इसीलिए तस्वीरें नहीं खींच सके। करीब 6 बजे ल्यूटी पहुँचे तो प्राण हलक में आ गए थे। ऐसी जगहों पर ठहरने की जगह कम होने से भीड़ रहती है। रात को बेसन और सब्ज़ियों से बनी गरमा गरम कढ़ी और रोटियाँ खा कर हम सो गए।
दिन 8 रूद्रनाथ (शिव का मुख)
अगली सुबह उठ कर श्रद्धापूर्वक रुद्रनाथ के लिए निकले। मंदिर जाने के लिए पनार बुग्याल की थोड़ी सी चढ़ाई करनी पड़ती है, जहाँ मैदानों के नज़ारे देख कर काफी शान्ति मिली।
मौसम और नज़ारों का मज़ा लेते प्रीताधर पहुँचे, जो पंचगंगा का सबसे ऊपरी बिंदु है। कहते है कि दूसरी दुनिया जाने वाली आत्माएं यहीं से होकर गुज़रती है।
भगवान् शिव के मुख को यहाँ नीलकण्ठ महादेव के नाम से पूजा जाता है। घने जंगल के बीच बसे इस मंदिर से हाथी पर्वत, नंदा देवी, नंदघुंटी और त्रिशूली के शानदार नज़ारे दिखते है। भारत का एक मात्र मंदिर जहाँ शिव को उसके मुख से पूजा जाता है। भक्त यहाँ पितृों को चढ़ावा चढाने है, क्योंकि यहाँ वैतरणी नदी में से होकर आत्मा ये दुनिया छोड़ती है।
मंदिर की पवित्रता को बनाये रखने के लिए ठहरने की व्यवस्थाएँ मंदिर से 500 मीटर नीचे उतर कर है। इसलिए जन - सुविधाओं का इस्तेमाल करने के लिए आधा किलोमीटर उतरना पड़ता है। मंदिर के पास रहने की ज़िद के कारण मैं ऊपर ही रहा; ये बात मेरे दोस्तों को नहीं भायी।
दिन 9 अनुसूया माता देवी मंदिर
सुबह की प्रार्थना के बाद हमने वापस जाने का फैसला किया। यह एक लंबी यात्रा थी, क्योंकि हमें पहले घाटी की सबसे ऊपरी जगह नायला पास को पार करना था और वहाँ से मंदिर की ओर फिर संकरी खड़ी चढ़ाई और घने जंगल से होते हुए 20 किलोमीटर दूर मंडल तक पहुँचना था।
2000 मीटर की ऊँचाई पर बसा मंदिर, चमोली ज़िले के गोपेश्वर में पड़ता है।
मंदिर का पुरातात्विक महत्व है। माना जाता है कि यह एकमात्र स्थान है जहाँ श्रद्धालु नदी के चारों ओर परिक्रमा करते हैं। अनुसूया देवी मंदिर संकट में भक्तों की मदद करता है। निः संतान दंपत्ति अक्सर यहाँ संतान की मनोकामना करने पैदल आते है।
बस 2 किमी आगे अत्रि गुफाएँ बहुत ही आध्यात्मिक और शानदार जगह है। चूँकि हम बहुत थक गए थे इसलिए हम यहाँ नहीं गए और चढ़ावा चढ़ा कर मंडल की ओर बढ़ने का फैसला किया। जल्दबाज़ी और भूल चूक में वापस जाने के लिए गाड़ी या और कोई साधन की ज़िम्मेदारी भी सिर पर झूल रही थी। हम लगभग 6 बजे मंडल पहुँचे और बड़ी कोशिशों के बाद उखीमठ में अपने होटल में वापस जाने का साधन जुगाड़ा।
उसी रात हमने कल्पेश्वर के बेस और अपने अगले पड़ाव हेलांग के लिए निकलने का फैसला किया । इसके लिए हमें पहले एक टैक्सी में चमोली पहुँचना था और वहाँ से हेलांग। हम लगभग 11 बजे हेलांग पहुँचे और डारमेट्री में चेक-इन किया और सो गए।
दिन 10 कल्पेश्वर मंदिर (शिव की जटायें)
क्योंकि सफर की ज्यादातर कवायद हम कर चुके थे इसलिए अगले दिन काफी सुकून से उठे।
खुशी इस बात की भी काफी थी कि उरगाम के लिए 8 किलोमीटर तक गाड़ी से जा सकते थे और वहाँ से कल्पेश्वर का रास्ता काफी आसान है।
रोड़ बनने से पहले यही 8 किलोमीटर दाँतों से लोहे के चने चबाने जैसा था।
उरगाम के लिए गाड़ी बुक करी और चल पड़े।
बता दूं कि गाड़ी का खर्चा उतना ही बैठा जितना ऋषिकेश में लगा था, तो बेहतर होगा गाड़ी को सफर के शुरू से आखरी तक बुक करें।
2134 मीटर की ऊँचाई पर उरगाम घाटी में बसे हुए छोटे से कल्पेश्वर मंदिर में शिव की जटायें प्रकट हुई थी।
ध्यान करने वाले साधुओं की यह पसंदीदा जगह है। कथाएँ कहती है कि ऋषि अर्घ्य ने कड़ी तपस्या करने के बाद के बाद अप्सरा उर्वशी को इसी जगह बनाया था।
माना जाता है कि यहीं पर ऋषि दुर्वासा भी इच्छा पूरी करने वाले एक पेड़, कल्पवृक्ष के नीचे ध्यान लगाते थे।
मंदिर में चढ़ावा चढ़ाने के बाद हेलंग की तरफ वापसी की। रास्ते में ध्यान बद्री मंदिर भी रुके जो कि सप्त बद्री (आदि ,बद्रीनाथ, भविष्य, योग, ध्यान, वृद्ध, अर्ध ) मंदिरों में से एक है। कुछ लोग नरसिम्हा बद्री को भी इन्ही में से एक मानते है।
शाम को हेलंग पहुंचे और वहां पहुंचकर गाडी वाले से जोशीमठ तक छोड़ने की विनती की।
रात को जोशीमठ रुके। पहुंचते ही check -in के बाद टैक्सी स्टैंड पर बद्रीनाथ के लिए और वहां से ऋषिकेश तक के लिए गाड़ी बुक की।
दिन ११ बद्रीनाथ
अगली सुबह देर से,सुकून से उठे और इत्मीनान से नाश्ता किया क्योंकि मुश्किल चढ़ाईयो के दिन अब खत्म हो चुके थे और बद्रीनाथ तक गाड़ी से भी जाया जा सकता था। सुबह 11:00 बजे निकले और दोपहर को करीब 2:00 बजे बद्रीनाथ पहुंचे। बद्रीनाथ में काफी भीड़ थी या हो सकता है हमें इतनी भीड़ देखने की आदत नहीं थी। सबसे पहले
माणा गांव के पास से बहती सरस्वती नदी देखने की इच्छा हुई, माणा चाइना बॉर्डर से पहले भारत का आखिरी गांव है। व्यास और गणेश गुफा घूमने के बाद बद्रीनाथ मंदिर की तरफ चल पड़े, मंदिर के पास ही एक होटल में check -in किया और वहां से सफर के आखरी मंदिर की ओर रुख किया।
नर नारायण पर्वत की गोद में, अलकनंदा नदी के तट पर बसा हुआ बद्रीनाथ मंदिर ऋषिकेश से 297 किलोमीटर दूर है। बद्रीनाथ को केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री से भी ज्यादा पवित्र माना जाता है।
स्थानीय लोगों और साधुओं ने बताया की वेदों के अनुसार, विष्णु मंदिर बद्रीनाथ के बराबर का तीर्थ न ही धरती पर और ना ही स्वर्ग में, न ही कभी था और ना ही कभी होगा। मंदिर को करीब 2 सदियों पहले गढ़वाल के राजाओं ने बनवाया था
पंच बद्री में से एक, इस मंदिर को विशाल बद्री भी कहा जाता है। इसमें ध्यान में लेटे हुए भगवान विष्णु की काले पत्थर की मूरत सजी हुई है। कड़ाके की ठंड और बर्फबारी के कारण अक्टूबर से अप्रैल तक मंदिर बंद रहता है और इस दौरान मूर्तियों को पांडुकेश्वर ले जाते हैं।
भगवान शिव की नगरी में बसा हुआ विष्णु मंदिर बद्रीनाथ, पंच केदार यात्रा पर विराम लगाते हैं और इस कठोर तीर्थ का साक्षी बनता है।
तीर्थ खत्म करके यहां के मशहूर साकेत रेस्ट्रॉन्ट में पनीर बटर मसाला का जमकर स्वाद लिया। बाजार में कुछ समय इधर-उधर डोलकर सोने की तैयारी क्योंकि अगली सुबह ऋषिकेश के लिए निकलना था।
दिन १२
यूं यह हमने पन्द्रहवे दिन के लिए मुंबई वापसी की ट्रैन टिकिट बुक की थी पर सफर जल्दी ख़तम करने के कारण अगले ही दिन की फ्लाइट लेनी पड़ी और इसी लिए ऋषिकेश रात तक पहुंचना बहुत ज़रूरी था। रास्ते में करना प्रयाग के आदि बद्री मंदिर जाने का मन बनाया।
सप्त बद्री में से एक, आदि बद्री, भगवान विष्णु को समर्पित मंदिरो में पहला है और अपने आप में १६ मंदिरो का समूह है। इस मंदिर - श्रंखला के पहले ७ मंदिर पाँचवीं से आठवीं सदी के बीच गुप्त काल में बने थे। माना जाता है की इन्हे अदि शंकराचार्य ने बनवाया था। हाथों में गदा, कमल और चक्र लिए भगवान् विष्णु की करीब १ मीटर बड़ी तस्वीर काले पत्थर पर बनी हुई है। दक्षिण भारत के ब्राह्मण यहाँ मुख्य - पुजारी के नाते मंदिर की देख - रेख करते है।
// second last para//
पूरे सफर में ५ केदार, ५ प्रयाग, और ३ बद्री देख कर रात को ऋषिकेश रुके, अगले दिन वहां से दिल्ली के लिए टैक्सी की और अगली सुबह दिल्ली से मुंबई घर वापसी की।