अब इसी सप्ताह मेरा किसी काम से अपने शहर भीलवाड़ा से प्रतापगढ़ की तरफ जाना हुआ था। प्रतापगढ़ राजस्थान का 33 वां जिला हैं जो 2008 में चित्तौड़गढ़ से अलग हुआ था।भीलवाड़ा के आगे चित्तौड़गढ़ से प्रतापगढ़ तक का रास्ता असल में जंगली रास्ता हैं,कुछ -कुछ पहाड़ी भी।पूरा रास्ता आदिवासी ग्रामीण क्षेत्र हैं ,जहाँ सड़क के दोनों तरफ या तो झोपड़ियां दिखाई देगी या घने जंगल।
इसी मार्ग पर रास्ते में सीतामाता अभ्यारण्य का क्षेत्र।सुनी जंगली सड़क पर यहाँ से गुजरते हुए कई छोटे-ंमोटे जानवर जैसे लोमड़ी ,नीलगाय ,नेवला आदि तो आपको एक दो बार तो मिल ही जाएंगे। यही 'सीतामाता अभ्यारण' का 'आरामपुरा' प्रवेश द्वार भी पड़ता हैं।मैं यहाँ से अनेकों बार गुजरता हूँ पर समय के अभाव में रुकता कभी नहीं। इस बार मैंने सोचा क्यों ना उड़न गिलहरी के लिए प्रसिद्द इस जगह के बारे में लोगों को थोड़ा और बताया जाए।
असल में ,सीतामाता अभ्यारण करीब 400 वर्ग किमी में फैला हुआ क्षेत्र हैं ,यह जगह मध्य प्रदेश की सीमा पर भी लगती है। इसी में अरावली पर्वतमाला ,मालवा पठार और विंद्याचल की पहाड़ियों का एक तरह से संगम हैं। धरियावद गाँव से करीब 20 किमी दूर स्थित मुख्य मार्ग पर ही पड़ते इस प्रवेश द्वार जैसे ही मैंने गाड़ी रोकी और अचानक वही पेड़ों पर बैठे खूब सारे बंदर मेरी गाडी के आसपास आ कर बैठ गए। कुछ तो गाडी के ऊपर भी आ गए। असल में ,कई लोग यहाँ गाडी रोक कर इन्हे फल और बिस्किट खिलाते हैं तो अब ये बंदर कोई भी गाडी देखते ही कुछ खाने की चीजों की आस में गाडी के आसपास घूमते रहते हैं।
मैं गाडी से निकल कर मुख्य दरवाजे की तरफ गया। वहां जंगली जानवरों की तस्वीर बनी थी उसके साथ एक शानदार लाइन पढ़ने को मिली जो थी 'आप इनके अतिथि हैं। अतिथि मर्यादा का पालन करे'।इस लाइन का डीप मीनिंग समझने वाला ही समझ सकता हैं। वही दूसरी दीवार पर उड़न गिलहरी का चित्र बना हुआ था ,असल में यह अभ्यारण प्रसिद्द ही उड़न गिलहरी के लिए। हाँ ,सही पढ़ा आपने, 'उड़न गिलहरी' मतलब 'उड़ने वाली गिलहरी'। यह जीव दुनिया में अब विलुप्ति की कगार पर हैं।यहाँ प्रतापगढ़ के जंगलों में तो यह पायी ही जाती हैं लेकिन कुछ सालों पहले यह उत्तराखंड के कुछ इलाकों में भी मिलती थी जो अब बिलकुल विलुप्त हो चुकी हैं।इन गिलहरियों के हाथ और पैरों के बीच एक तरह की झिल्ली पायी जाती हैं और जब इन्हे लम्बी दूरी तक कूदना होता हैं तो ये अपने हाथ-पैर को खोलकर उस झिल्ली को पंख की तरह इस्तेमाल करती हैं और उड़कर करीब 150 फ़ीट तक की दूरी तय कर लेती हैं।आप Flying Squirrel लिखकर यूट्यूब पर इसके वीडियो जरूर देखना।
इसका प्रवेश द्वार तो उस समय बंद था। हालाँकि मुझे केवल इस अभ्यारण की जानकारियां लेनी थी ,समय के अभाव में अंदर घूमने का प्लान तो आज भी नहीं था। इसके प्रवेश द्वार के बाहर ही एक ढाबा था जिसकों एक ग्रामीण आदिवासी औरत चला रही थी। मैंने उनसे भी जानकारी लेना चाही लेकिन उनकी भाषा को मैं पूरी समझ नहीं पाया।वहीं पास में एक बोर्ड पर लिखा था कि अंदर सीतामाता मंदिर ,हनुमान मंदिर और वाल्मीकि आश्रम हैं। माना जाता हैं कि लव कुश का जन्म अंदर बने इसी वाल्मीकि आश्रम में हुआ था और हनुमान जी को भी लव कुश ने इसी जंगल में बंदी बनाया था।रामायण से जुड़ा माना जाने के कारण इस जंगल का नाम सीतामाता अभ्यारण रखा गया।इस सीतामाता मंदिर में माता सीता की एकल मूर्ति ही है ,श्री राम के साथ नहीं।मैंने घर पहुंच कर वाल्मीकि आश्रम से सम्बन्धित जानकारी जुटानी चाही तो पाया कि ऐसा ही वाल्मीकि आश्रम और सीतामाता मंदिर राजस्थान के सवाई माधोपुर ,भोपाल ,उत्तराखंड के जंगल में भी बना हैं।इनमें से हर एक जगह के लोग अपने जंगल को ही वो जंगल बताते हैं जहाँ वाल्मीकि आश्रम में लव कुश का जन्म हुआ था।
इस सीतामाता अभ्यारण में अंदर तीन नदियां बहती हैं जिसमे से जाखम यहाँ की जीवनरेखा नदी हैं।इस जंगल में गिलहरी के अलावा चौसिंघा हिरन ,तेंदुआ ,जंगली सूअर,भालू ,लोमड़ी ,साही ,नीलगाय ,कई प्रजातियों के सांप और मेंढक पाए जाते हैं और सैकड़ों तरह के पेड़ पौधे और वनस्पति अंदर मिलती हैं। यही एक पेड़ पाया जाता हैं जिसका नाम हैं 'महुआ ' का पेड़। इस महुआ के फूलों से यहाँ के आदिवासी लोग शराब (सरकारी रूप से बेन ) बनाते हैं। इसी पेड़ में ये उड़न गिलहरियां अपना बिल बना कर रहती हैं।इन गिलहरियों को देखने का सही समय फ़रवरी और मार्च का महीना हैं। उस समय महुए के पेड़ के पत्ते गिर जाते हैं और काफी बार ये गिलहरियां अपने बिल से बाहर ताकती हुई दिख जाती हैं। यह जीव सूर्यास्त के बाद ही अपने घर से बाहर निकलता हैं। शाम को 7 बजे से सुबह के 5 बजे तक आपको इन्हे टोर्च की लाइट से ढूंढ कर देखना होता हैं। आप यहाँ जंगल के बीच में कमरा बुक करके रात भी रह सकते हैं।
इस अभ्यारण को राष्ट्रीय रूप से पहचान दिलवाने की कोशिशे कई सालों से चल रही हैं। हर साल जुलाई में इस अभ्यारण में मेला भरता हैं। मेरे पापा को भी वन्य जीवों को जंगल में उनकी प्राकृतिक अवस्था में देखने का शौक था। मुझे याद हैं करीब 15 साल पहले मेरे पापा मुझे इस मेले में भी ले गए थे। मेले में आदिवासी जनजाति के लोग काफी आते हैं और आपको कुछ किलोमीटर पैदल ट्रेक करना होता हैं। हालाँकि ऐसे भीड़ वाले माहौल में कोई वन्यजीव नजर नहीं आता हैं।यह जगह उदयपुर से करीब 100 किमी और चित्तौड़ से करीब 60 किमी दूर हैं। आप चित्तौड़गढ़,उदयपुर या बांसवाड़ा से टैक्सी करके यहाँ पहुंच सकते हैं और हाँ अगर आप मानसून में इधर सड़क मार्ग से सफर करते हैं तो रास्ते में कई हरी भरी दूर दूर तक फैली घाटियां आपकी ट्रिप को चार चाँद लगा देगी।
यहाँ पास में ही चित्तौड़गढ़ का किला हैं ,सांवलिया सेठ मंदिर हैं ,टापुओं का शहर बांसवाड़ा ,उदयपुर अन्य नजदीकी पर्यटन स्थल हैं। जानकारी अच्छी लगी हो तो लाइक और शेयर करने ना भूले।
धन्यवाद
-ऋषभ भरावा