पहाड़ों में हर बार जाकर लगता कि कुछ रह सा गया है थोड़ा और आगे जाना चाहिये था। जब मैंने टिहरी के पहाड़ देखे तो लगा कि इससे अच्छा और सुंदर क्या हो सकता है? लेकिन जब आप आगे, और आगे जाते हैं तो पता चलता है कि सबसे सुन्दर कुछ नहीं होता है। बस वो तो क्षणिक भर की सुन्दरता होती है जो आपको उस जगह की याद दिलाती है। इन्हीं पहाड़ों में घूमते-घूमते मैंने वो चढ़ाई की जो उस पल की याद दिलाता है जो बार-बार उस बर्फानी चोटी की ओर मुझे आकर्षित कर रही थी। हम में से हर कोई बस यही कह रहा था कि ये पल और ये दिन भूला नहीं जायेगा। उस दिन मैंने वो आसमान छुआ, तुंगनाथ का आसमान।
मैदान से पहाड़ की ओर
तुंगनाथ के बारे में सुना था कि वो भारत का स्विट्जरलैंड है। इसी वजह से मैं उत्साह और ऊर्जा से भरा हुआ था। सुबह के 6 बजे हरिद्वार से बस पकड़ी और निकल पड़े चोपता की ओर, जहाँ पहुँचकर एक बढ़िया ट्रेक करना था। इसलिए हमें कम जगह रूकना था जिससे जल्दी चोपता पहुँच सकें। मैं पहली बार इस तरफ जा रहा था, इस तरफ मैं सिर्फ ऋषिकेश तक आया था। ऋषिकेश से बाहर निकलने पर कुछ नया लग रहा था। सूरज सिर चढ़ आया था और घुमावदार सड़क भी शुरू हो गई थी। हम बेहद ही सुंदर नज़ारों से गुज़र रहे थे। हम पहाड़ के लिए, पहाड़ के रास्ते जा रहे थे।
तेज धूप थी जो अच्छे मौसम और हमारे रोमांचक सफर का संकेत था। हमें देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग के रास्ते चोपता पहुँचना था। ऋषिकेश से देवप्रयाग 70 कि.मी. की दूरी पर था। देवप्रयाग पहुँचने से पहले हम रास्ते में एक जगह रूके जहाँ हमने कुछ अपनी अकड़न दूर की और फिर चल पड़े पहाड़ों के बीच। हम गोल-गोल घूमकर ऊपर जाते, हमें कुछ ऐसे नज़ारे मिलते जिसे देखकर लगता कि इसे इत्मीनान से देखना चाहिए। ऐसी जगह पर बस की बजाय, दोपहिया वाहन से आना चाहिए। हम जिस रास्ते से जा रहे थे उसके ठीक बगल में गंगा बह रही थी। हम नदी की उल्टी दिशा में जा रहे थे, वो हरिद्वार की ओर जा रही थी और हम चोपता की ओर।
संगम- गंगा को बनते देखा
ऊँचाई से सब कुछ छोटा लगता है लेकिन सुंदर भी लगता है जैसे कि वो पुल जो नदी के बीचों बीच बना है। शिवपुरी होते हुए हम कुछ घंटों में देवप्रयाग के रास्ते पर आ गए। जब मैंने संगम देखा तो मेरा चेहरा खुशी से खिल उठा। देवप्रयाग में संगम में अलकनंदा और भागीरथी का संगम होता है। हम ऊपर से उस संगम को देख रहे थे। मुझे अफसोस हो रहा था कि आंखों के सामने होने के बावजूद, संगम जा नहीं सका। देवप्रयाग और संगम को छोड़ते हुए हम रूद्रप्रयाग के रास्ते पर आ गए थे। यहाँ आने तक अच्छी-खासी धूप हो गई थी, रास्ते में भीड़ देखी जा सकती थी। पहाड़ों के शहर कुछ अलग होते हैं बहुत जल्दी ही खत्म होने वाले। हम ऐसे ही रास्तों को पार करने के बाद रूद्रपयाग छोड़ चुके थे।
आगे का नजारा सुंदर होने लगा था। एक तरफ तो बिल्कुल पहाड़ हमसे चिपक गया था और दूसरी तरफ नदी बह रही थी। दूर तलक हरा-भरा पहाड़ नजर आ रहा था। अभी भी पहाड़ों पर धूप सीधी पड़ रही थी जो हालात खराब करने के लिए काफी थी। जब हम कुछ आगे निकले तो अचानक मुझे एक सफेद चादर सी दिखी। पहले तो मुझे लगा कि शायद आसमान है लेकिन ध्यान से देखा तो वो सफेद चादर पहाड़ थे जिसे देखकर मैं चिल्ला पड़ा। वो हमसे बहुत दूर थे लेकिन पहली बार ऐसा देखने पर खुशी बहुत होती है।
बर्फ वाला पहाड़ दिखने के बाद अचानक मौसम और रास्ते ने मोड़ ले लिया। मौसम में अंधेरापन छाने लगा और रास्ता बीहड़-सा हो गया। रास्ता पेड़ों से घिरा हुआ चला जा रहा था। पेड़ अंधेरे की वजह से काले नजर आ रहे थे और उसके पीछे दिखती सफेद चादर सुंदरता की छंटा बिखेर रही थी। ऊंखीमठ को पार करते हुए हम चोपता के नज़दीक आ चुके थे, रास्ता बेहद ही सुंदर नजर आ रहा था। हरे-भरे पेड़ और दूर तलक जहाँ देखो पहाड़ ही पहाड़ नजर आ रहे थे। कुछ देर बाद हम चोपता पहुँच गये थे, अब हमारा अगला पड़ाव था-तुंगनाथ ट्रेक।
अब सुंदरता की चढ़ाई
हरिद्वार से चोपता की यात्रा बेहद सुकून और थकान भरी रही थी। वजह भी थी, इतने घंटों से मैं बस गोल-गोल घूमा जा रहा था। रास्ते में सफेद चादर ने ज़रूर एनर्जी भर दी थी। उस नज़ारे को देखकर मैं खुश ज़रूर था क्योंकि हमें लग रहा था वो दूर तलक की सफेद पहाड़ी केदारनाथ की है। लेकिन हम गलत होने वाले थे और उन पहाड़ों को बिल्कुल नज़दीक से देखने वाले थे। वो सफेद चादर हमारा तुंगनाथ में इंतजार कर रही थी और हम इस बात से बिल्कुल बेखबर थे।
चोपता पहुँचे तो अचानक सर्दी ने हम पर हमला कर दिया। मौसम सर्द था। हमने सोचा नहीं था कि मई के महीने में तुंगनाथ हमारा ठंड से स्वागत करेगा। लेकिन बचाव के लिए मैं गर्म कपड़े लाया था। उसके बाद तुंगनाथ की चढ़ाई करने लगा। मैं धीरे-धीरे चल रहा था बिल्कुल सामान्य। मैं नहीं चाहता था कि जल्दी-जल्दी के चक्कर में इस सफर का आनंद ना ले सकूँ। शुरूआत में थकान छाई हुई थी लेकिन थोड़ी देर बाद उस चढ़ाई और थकान को एंजॉय करने लगा।
हरे-भरे बुग्याल
मैं जिस सफेद चादर के लिए बस में उछल-कूद कर रहा था अब वो हमारे सामने ही थी। हम उसके ही पास जा रहे थे। इस चढ़ाई में बहुत कुछ अच्छा था सुहाना मौसम, शांति, हरा-भरा मैदान और बर्फ ओढ़े हुए पहाड़। पेड़ों के बीच पहाड़ सुंदर लगते हैं लेकिन सफेदी के लेप में पहाड़ में एक आकर्षण आ जाता है। पहाड़ की इस सुंदरता को देखकर हम असमय ही उसकी तारीफ करने लगते हैं, मैं भी वही कर रहा था।
चलते-चलते अचानक सड़क से मिलता हुआ हरा-भरा मैदान मिला, जहाँ से चलकर हम आगे जा सकते थे। इस मखमली घास को देखकर उस पर सोने का मन किया और वहीं लोट हो गया। वहाँ से आगे बढ़ा तो अब चढ़ाई थोड़ी खड़ी हो गई और मौसम सर्द पहले से ही था। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे थे ऊँचाई की वजह से मौसम और ठंडा हो रहा था, सर्द हवाएँ भी चल रही थी। चलते-चलते शरीर में गर्मी आ जाती है लेकिन ऊँचाई के कारण हालत खराब होने वाली थी। इन सारी दिक्कतों के कारण चढ़ना और भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन हम बीच-बीच में रूकते और फिर आगे बढ़ते।
भीनी-भीनी बर्फ
हम चलते-चलते काफी ऊपर आ गए थे, यहाँ चारो तरफ सुंदरता फैली हुई थी। सामने एक लंबा रास्ता और सफेद चादर में लिपटा पहाड़ था और पीछे छोटी-छोटी पहाड़ियाँ, एक के पीछे एक, जो एक दूसरे में एकाकार हो रही थीं। यही वो दृश्य था जो हमें धीरे-धीरे चला रहा था। हम हर पल को, हर कदम को जी कर चलते जा रहे थे। हम आगे बढ़े ही थे कि अचानक चेहरे पर कुछ स्पर्श हुआ, लगा कि शायद बारिश होने वाली है। कुछ देर बाद वो स्पर्श बढ़ गया। वो सफेद-सा स्पर्श हमारे चारों-तरफ फैलने लगा, इसे देखकर मैं खुशी से चिल्ला पड़ा।
मैं वहीं रूक गया और उस सफेद चादर से भरे पहाड़ को देखने लगा। मैंने नहीं सोचा था कि मई के महीने में हमारे चारों तरफ भीनी-भीनी सफेदी बरस रही होगी। उस सफेद बारिश के बाद मौसम और ठंडा होने लगा लेकिन अब हमें ये मुश्किल अच्छी लग रही थी। हमें अभी तक सफेद पहाड़ दिख रहे थे लेकिन इतनी ऊँचाई पर पहुँचकर अब तस्वीर साफ होने लगी थी। हम चलते जा रहे थे लेकिन हमें मंदिर अभी तक नहीं दिख रहा था। कुछ ही देर बाद हम ऐसी जगह पहुँचे जहाँ से हमें मंदिर साफ-साफ दिखाई दे रहा था। कुछ देर बाद हम मंदिर के रास्ते पर ही थे। मंदिर के नीचे कुछ दुकानें थीं जो मंदिर के लिए प्रसाद लेने के लिए थी। मंदिर वैसा ही था जैसा उत्तराखंड में सभी केदार हैं।
तुंगनाथ से सामने सफेद सुंदरता ओढ़े पहाड़ दिख रहे थे। आसमान को छूते पहाड़ बहुत सुंदर लग रहे थे। हम अब नीचे की ओर आ रहे थे। हम बार-बार मुड़-मुड़कर उस जगह को देख रहे थे जहाँ हम अभी कुछ देर पहले खड़े थे। हम कुछ दूर ही चले तो हमें एक पक्षी दिखा, बिल्कुल मोर की तरह। लेकिन वो बहुत छोटा था और वो उत्तराखंड का राजकीय पक्षी ‘मोनाल’ है। अंधेरा होने लगा था और हम नीचे चलते जा रहे थे। इस अंधेरे के साथ ही सफर खत्म हो जाना था लेकिन भीनी सफेदी का स्पर्श हमेशा ताजा रहने वाला था, ताउम्र।