भगवान ने पहले पूरी सृष्टि का निर्माण किया। फिर भगवान ने पृथ्वी बनाई। उसमें इंसानो ने कई देश बसाये। उन देशों में एक देश है भारत और भारत में एक राज्य है उत्तराखंड जिसको देवताओं ने चुना जहाँ देवताओं का वास है। जिसको देवभूमि भी कहा जाता है।
कहने को तो हिमाचल को भी देवभूमि कहा जाता है। वैसे मेरा मानना है अगर देव भूमि का दर्जा किसी को दिया जाना चाहिए तो वो है गढ़वाल। लॉजिक भी बता देता हूँ। चार धाम - बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री यहाँ पर। पंचकेदार - केदारनाथ, मध्यमेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर यहाँ पे। पंचप्रयाग - विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग, देवप्रयाग यहाँ पे। नंदा देवी पर्वत यहाँ पे। शिव और पार्वती का विवाह स्थल त्रिजूगीनारायण यहाँ पे। मैं लिखते लिखते थक जाऊँगा लेकिन इतनी सारी जगह हैं की अंत नहीं है।
और तो और नंदा देवी राज जात भी यहाँ ही होती है। नंदा देवी यानी की माँ पार्वती को ससुराल भेजने की पूरी प्रक्रिया को नंदा देवी राज जात कहा जाता है।
मान्यता है कि एक बार नंदा अपने मायके आई थीं। लेकिन किन्हीं कारणों से वह 12 वर्ष तक ससुराल नहीं जा सकीं। बाद में उन्हें आदर-सत्कार के साथ ससुराल भेजा गया।
वैसे ये यात्रा कुमाऊं और गढ़वाल दोनों जगह से जाती है और इसकी मान्यता भी दोनों क्षेत्रों में बहुत ज्यादा है।नंदा देवी गढ़वाल के साथ-साथ कुमाऊं के राजाओं की कुलदेवी भी थी इसलिए नंदा देवी को राजराजेश्वरी भी कहा जाता है। नंदा देवी को अपने मायके से ससुराल भेजने की प्रक्रिया को ही नंदा देवी राजजात कहा जाता है जिसमें माता के स्वागत सत्कार के साथ माता को उसके ससुराल कैलाश स्वामी शिव के पास भेजा जाता है।इस आस्था के साथ कि माँ नंदा दोबारा अपने घर (मायके) ज़रूर आएंगी और सभी के दुखों का निवारण करेंगी।
कहा जाता है कि जब नंदा देवी की यात्रा शुरू होती है तो उससे पहले ही चार सींगो वाला खाडू जन्म लेता है। ये एक भेड़ है जिसके चार सींग होते है। इस खाडू के जन्म लेने के बाद इसके बड़े होने तक इसको दैवीय रूप में पाला-पोसा जाता है जो संकेत होता है माता नंदा देवी के अपने मायके आने का। जिसके बारह वर्ष जैसे ही पूरे होते हैं वेसे ही माता की यात्रा यानि नंदा देवी यात्रा जिसको राजजात कहा जाता है शुरू की जाती है।
नंदा देवी की डोली तैयार की जाती है, जैसे विवाह पूर्व कन्या की विदाई की डोली तैयार की जाती है। उसके पूरे विधि विधान से माता नंदा देवी को कैलाश पर्वत तक छोड़ा जाता है, और इस यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण अंग चार सींगो वाला खाडू को माना जाता है।ऐसा कहा जाता है कि वही गाँव वालों का सन्देश माता नंदा देवी तक पहुंचाता है। इसलिए यात्रा का प्रथम यात्री इसी खाडू को बनाया जाता है।
इस खाडू की पीठ पर दो थैले लटकाए जाते हैं जिसमें माता के लिए स्थानीय लोगों द्वारा भेंट और गहने रखे जाते हैं. माता के लिए श्रृंगार का सामान भी रखा जाता है. इस यात्रा के दौरान इस चार सींगो वाले खाडू की पूजा होमकुण्ड में की जाती है और उसके बाद इस चार सींग वाले खाडू को आगे की ओर छोड़ा दिया जाता है। यहाँ के लोगों का मानना है कि यह चोसिंघिया खाडू कैलाश में प्रवेश करते ही विलुप्त हो जाता है और वह शिव लोक यानि देवी नंदा के पास चला जाता है।
यह यात्रा लगभग 280 किलोमीटर की होती है जो कसुवा गाँव से शुरू होती है रूपकुण्ड से आगे होमकुण्ड इस यात्रा का आखिरी पड़ाव होता है। होमकुण्ड में चौसिंगा खाडू को छोड़ दिया जाता है और यात्रा वापस लौट जाती है।
इस नंदा देवी राजजात में अल्मोड़ा, कटारमल, नैनीताल, नंद्केशारी से भी नंदा देवी की डोलियाँ आती हैं। वहीं यात्रा का दूसरा पड़ाव नोटी गाँव मे होता है।उसके बाद यात्रा लौटकर कसुवा आती है। इसके बाद नोटी, सेम, कोटी, भगोती, कुलसारी, चेपड़ो, लोहाजंग, वान, बेदनी, पाथर नचनिया , रूपकुंड, शिला समुंद्र, होमकुण्ड से चंदिनिया घाट, और नंदप्रयाग और फिर नोटी आकार वापस यात्रा का समापन होता है।
अगली नंदा राज जात यात्रा संभवतः 2026 में होगी और मैं इस यात्रा में जरूर जाऊँगा।