प्रस्तुत है एक ऐसी जेल की कहानी जो आजादी के दीवानों का स्मारक है।
शिवालिक की पहाड़ियों में बसा छोटा सा शांत कस्बा डिगशई जितना अपने सुरम्य दृश्यावलियों और शानदार स्कूलों के लिए मशहूर है उतना ही अपनी जेल के लिए बदनाम भी रहा है।
सबसे पुरानी भारतीय छावनी
डगशई को भारत की सबसे पुरानी छावनी के तौर पर जाना जाता है। इसकी स्थापना 1847 में अंग्रेजों ने की थी। ईस्ट इंडिया कंपनी ने तब पटियाला के महाराजा दिवंगत भूपिंदर सिंह से पांच पहाड़ी गांव उपहार में लिए थे। यह गांव थे डब्बी, बड़थियाला, चुनावाड़, जावाग और डगशई। तब नए कैंटोनमैंट का नाम डगशई पर रखा गया।
कैसे पड़ा डगशई का नाम
डगशई का नाम दाग-ए-शाही (शाही चिन्ह) से आया है। मुगल काल के दौरान बदनाम अपराधियों के माथे पर शाही चिन्ह को गर्म करके लगा कर उन्हें डगशई गांव में छोड़ दिया जाता था।
अंग्रेजों ने 1849 में यहां के गैरीसन जेल को किले की तरह ठोस पत्थर की चिनाई से बनाया है। हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले के ऐतिहासिक कस्बे डगशई में इस जेल को देखने भर से ही आंखें नम हो जाती हैं । इस जेल में आजादी के दीवानों को दी जाने वाली कठोर यातनाओं की कहानी जेल के दरोदीवार आज भी बयान करते हैं।के निशान आज भी यहां मौजूद हैं। जेल की कालकोठरियो़ं की दीवारों में सैकड़ों गुमनाम देशभक्तों के लहू रंग आज भी जज्ब है। इस जेल में हिंदू, सिख, गोरखा, आयरिश स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी आखिरी सांस ली। घुप्प अंधेरे के बीच पसरी ठंडी यह जेल काला पानी के नाम से मशहूर रही है।
इसके बाहरी दरवाजे को इतना मजबूत बनाया गया कि इसे तोड़ा नहीं जा सकता था। इसी दरवाजे से थोड़ी दूरी पर एक वैसा ही दूसरा दरवाजा है। पहले दरवाजे को बंद कर फिर अंदर का दरवाजा खोलकर कैदियों को अंदर जेल में ले जाया जाता था। जेल आज भी बिलकुल वैसी ही है जैसी उस समय थी। जेल की खासियत है कि यहां की सभी कोठरियों में वायु आपूर्ति भूमिगत है। हर कोठरी में हवा के लिए फर्श पर सुराख किए गए थे ताकि कैदियों का दम न घुटे। इसके साथ ही जेल में सीमेंट के फर्श से दो फुट ऊपर लकड़ी इसलिए लगाई गई थी ताकि कैदियों को सर्दी न लगे और यदि कैदी भागने के लिए जरा सी भी हरकत करें तो संतरी को इसका पता चल सके।
जेल के पहले कैदी
जेल बनने के सात साल बाद 1857 में कसौली क्रांति के दौरान बगावत करने वाले नसीरी रेजिमेंट के गोरखा सैनिक इस जेल के पहले कैदी बने तो महात्मा गांधी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे अंतिम कैदी था । यहां गंभीर अपराधों के आरोपी बागी आयरिश सैनिकों व भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को रखा जाता था।
1857 में कसौली, सबाथू और जटोग में तैनात नसीरी रेजिमेंट के गोरखा सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूसों को लेकर बगावत कर दी थी। विद्रोह के बाद कुछ गोरखा सैनिक पकड़े गए जिन्हें डगशई जेल में रखा गया।
यहां 23 रिसाला के 12 सिख सैनिकों को सजा ए मौत दी गई। मई 13, 1915 को 23 रिसाला के सिख सैनिकों को उत्तरप्रदेश के नौगाओ कैंटोनमैट से लड़ाई के मोर्चे पर भेजा गया तब रेलवे स्टेशन पर दफेदार वधवा सिंह का कुछ सामान रेलवे स्टेशन पर गिर पड़ा जिसमें रखा ग्रेनेड फट गया। इसके बाद अन्य बैगों की तलाशी ली गई तो उसमें से कई और ग्रेनेड पाए गए। उन्हें और कई अन्य सैनिकों को गदर पार्टी से संबंधित होने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। इसके अलावा कई सैनिक जो लड़ाई के मोर्चे पर तैनात थे, उन सभी को भी वापस बुला लिया गया और उनका डगशई में कोर्ट मार्शल किया गया। इनमें से 12 को मौत की सजा सुनाई गई।
गांधी जी व नाथूराम गोडसे भी रहे थे डगशई में
यह एकमात्र ऐसी जेल है जिसमें हत्प्राण महात्मा गांधी को डगशई जेल के एकमात्र वीआइपी सेल में रखा गया वहीं उनकी हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को भी डगशई जेल में रखा गया था। गोडसे को दिल्ली से शिमला हाईकोर्ट के जजों के सामने पेश होने के लिए भेजा गया था तब उसे अति सुरक्षित डगशई जेल में रखा गया था।
डगशई कालका शिमला हाईवे पर सोलन जिले में धर्मपुर से 5 किलोमीटर ऊपर एक पहाड़ी पर है। चंडीगढ़ से इसकी दूरी मात्र 45 किलोमीटर है जो वायु, सड़क व रेल द्वारा पूरे देश से जुड़ा है। यहां रहने के लिए कोई अच्छी व्यवस्था नहीं है लेकिन कुछ दूरी पर कसौली,सोलन व बड़ोग में हर बजट के होटल व रेस्टोरेंट उपलब्ध हैं।