![Photo of पहाड़गढ जागीर , मुरैना by Hemant Shrivastava](https://static2.tripoto.com/media/filter/nl/img/2010119/TripDocument/1662408272_images_1.jpeg)
पहाड़गढ़ जागीर
पहाड़गढ़ मुरैना जिले की जौरा तहसील का उपतहसील तथा विकासखंड मुख्यालय है। मुरैना से इसकी दूरी 55 किमी तथा ग्वालियर से 100 किमी है।
सिकरवार राजपूतों का यहाँ एक किला है जिसमे आज भी उनका परिवार निवास करता है। संभवतःपहाड़ पर बसा होने से यह पहाड़गढ़ कहलाया।
मेरे सेवा काल का एक हिस्सा पहाड़गढ़ के जंगलों मे भटकते हुए बीता है। पहाड़गढ़ के किले तथा इस राज परिवार के साथ मेरे आत्मीय सम्बन्ध रहे है ।
मैं जब भी मौका मिलता राजा पंचम सिंह जी के सुपुत्र आदरणीय स्वर्गीय राजा पद्म सिंह जी से पहाड़गढ़ किले में जाकर जरूर मिलता । बे मुझे और हम उन्हें स्वाभाविक रूप से पसंद करते थे।
बो अक्सर कहा करते थे , " तहसीलदार साहब आजकल बच्चे फ्लेट में रहना चाहते है। हम उनसे कहते है , कि तुम किले बाले हो , किले बाले बन कर रहो।"
धीर और गंभीर व्यक्तित्व के धनी आदरणीय राजा पदम सिंह जी ताउम्र पहाड़गढ़ किले में ही रहे। उनकी अपनी गरिमा थी , जिसे उन्होंने हमेशा बना कर रखा । उनके जाने के बाद पहाड़गढ़ सूना हो गया ।
स्वर्गीय राजा पदमसिंह जी के दोनों पुत्रों से भी मेरे अच्छे संबंध है।
पहाड़गढ़ जागीर ग्वालियर स्टेट की प्रथम श्रेणी की जागीर रही है। इसके अंतिम शासक राजा पंचम सिंह थे । सन 1952 में भारत संघ में सम्मिलन के पश्चात इसका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया।
सिकरवार सूर्यवंशी राजपूत है। आगरा के पास अयेला सिकरवारों का प्राचीन गांव है जहाँ कामाख्या देवी का मंदिर बना हुआ है।
सिकरवार नाम राजस्थान के सिकार नामक स्थान से पड़ा है जहाँ इन्होंने अपना राज्य स्थापित किया था। सन 823 ई में इस वंश ने विजयपुर सीकरी में अपना राज्य स्थापित किया। यह स्थान मुगलो द्वारा विजय करने के बाद फतेहपुर सीकरी कहलाया।
राव जसराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र कामदेव उर्फ दलकू बाबा , धाम देव व वीरमसिंह थे। इनमें धामदेव राणा सांगा के परम मित्रों में से थे।
खानवा के युद्ध मे ये बाबर के विरुद्ध राणा साँगा की ओर से लड़े। राणा सांगा की पराजय हुई। सिकरवार इस युद्ध की पराजय में सब कुछ गवां बैठे।
धामदेव को कोई रास्ता नही दिखाई दे रहा था तब उन्होंने कामाख्या देवी से प्रार्थना की। माँ ने उन्हें सपने में दर्शन दिए ।
उन्हें काशी की ओर गंगा किनारे जमदाग्नि एवं विश्वामित्र की तपोभूमि में निवास करने के लिए कहा।
धामदेव ने अपने परिवार पुरोहित और सेवको के साथ प्रस्थान किया । रास्ते मे चेरु राजा शशांक को परास्त कर सकराडीह में गंगा किनारे अपने राज्य की स्थापना की ।
यह स्थान गहमर कहलाया।वर्तमान में उप्र में गाजीपुर के समीप है।जहाँ सिकरवारों के 36 गांव है।
धामदेव के भाई कामदेव सिंह उर्फ दलकू बाबा ने मुरैना में चम्बल नदी के किनारे सिकरवारी की स्थापना की। सन 1347 ई यहाँ के निवासी रावतों को परास्त कर सरसेनी (जौरा) गढ़ी पर कब्जा किया। सरसेनी में चम्बल किनारे आज भी सती का मंदिर बना हुआ है। यह एक तरह से सिकरवारी की कुलदेवी है।
आगे बढ़ते हुए इसके बाद सिकरवारों ने क्रमशः सन 1407 ई में भैंसरौली ,सन 1445 ई में पहाड़गढ़ , सन 1548 ई में सिहोरी पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
इस प्रकार मुंगावली के आसपास के क्षेत्र पर सिकवारों का अधिपत्य हो गया।वर्तमान जौरा तहसील के ग्राम सिहोरी से लेकर बर्रेण्ड तक का भौगोलिक क्षेत्र सिकवारों के अधीन हो गया।
दलकू बाबा की दो रानियों के सात पुत्र थे । ये सभी गांव इन पुत्रो को जागीर में दे दिए गए।
पहाड़गढ़ की स्थापना सीकरी सिकरवार राजपूतों ने खानवा के युद्ध मे हारने के बाद की गई। खानवा की पराजय में सिकरवार अपना सीकरी का राज्य खो बैठे।
तब उन्होंने पहाड़गढ़ में अपने राज्य की स्थापना की जो देश की स्वाधीनता तक कायम रहा।दलकू बाबा के सात पुत्रो में से बड़े राव रतन पाल दलकू के बाद सरसेनी और बाद में पहाड़गढ़ के राव बने।
इसके बाद क्रमशः राव दानसिंह , राव भरत चंद सिंह , राव नारायण दास , राव पत्रोकरण सिंह,राव वीरसिंह,और दलेल सिंह पहाड़गढ़ के राव हुए।
दलेल सिंह पहाड़गढ़ के पहिले राव थे जिन्होंने महाराजा की उपाधि धारण की तथा 17 हजार की सेना का का नेतृत्व करते हुए औरंगजेब के विरुद्ध छत्रसाल बुन्देला का साथ दिया।
पहाड़गढ़ महाराजा विक्रमादित्य के काल मे दौलतराव सिंधिया की सेनाओं ने सन 1767 ई में आक्रमण कर मानगढ़ और हुसैनपुर के क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। सन 1792 में पहाड़गढ़ को सिंधिया से संधि करने को बाध्य होना पड़ा।
महाराजा अपरबल सिंह (1803 - 41) ने ग्वालियर के शासक दौलत राव सिंधिया के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, पर अंततः परास्त होकर संधि करनी पड़ी। परिणामतः सिकरवारी के एक बड़े इलाक़े से उन्हें हाथ धोना पड़ा।
पहाड़गढ़ के राजा गणपतसिंह (1841 -70) ने सभी सिकरवारों को झांसी की रानी का साथ देने के लिए लोहागढ़ में एकत्र किया था , पर रानी की पराजय हुई। बाद में इन्होंने देवगढ़ के राव के साथ अंग्रेजो के विरुद्ध तात्या टोपे को संरक्षण प्रदान किया।
सन 1870 से 1910 ई तक राजा अजमेर सिंह और उसके बाद 1910 में राजा पंचम सिंह पहाड़गढ़ के राजा हुए। राजा पंचम सिंह ने सरदार स्कूल ग्वालियर एवं मेयो कालेज अजमेर से शिक्षा प्राप्त की। उन्होंने प्रशासन , विधि , एवं स्टेट अफेयर्स में स्नातक उपाधि प्राप्त की।
उनके कार्यकाल में ही पहाड़गढ़ ग्वालियर स्टेट की प्रथम श्रेणी की जागीर बनी। पहाड़गढ़ में सभी नागरिक सुविधाएं थी। उस समय ग्वालियर से धौलपुर के बीच केबल पहाड़गढ़ में ही लाइट थी।
उस समय पहाड़गढ़ में हायर सेकेंडरी स्कूल था। इस कारण उस क्षेत्र के लोग पढ़े और उन्हें शासकीय सेवाओ में जाने का अवसर मिला।
राजा पंचम सिंह लश्कर म्युनिसपेल्टी के पहले चैयरमेन बने और 9 वर्ष तक इस पद पर रहे। बे ग्वालियर मेला , थियोसोफिकल सोसाइटी ,, वाइल्ड लाइफ बोर्ड , ओलंपिक असोसिएसन आदि से भी जुड़े रहे।
बे अपने जमाने के जानेमाने शिकारी थे कहा जाता है कि ग्वालियर दरबार मे उन्होंने तलवार के एक ही बार से टाइगर का शिकार कर दिया था।
देश की स्वाधीनता के बाद पहाड़गढ़ का विलय भी भारत संघ में जाने से इस जागीर का अस्तित्व समाप्त हो गया। कालान्तर में शुगर फेक्ट्री , नैरोगेज का रेलवे स्टेशन बन जाने से कैलारस उन्नति करता गया।
कैलारस तहसील बन गई और पहाड़गढ़ से लोग पलायन करते गए। बड़ी बड़ी हवेलियां खाली होती गई । उनमें ताले पड़ते गऐ। पहाड़गढ़ वीरान सा होता गया। पर आज भी पहाड़गढ़ का ढ़रक बज़ार और बुलंद किला अपने अतीत की कहानी कह रहा है।
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