अंग्रेजों से बगावत की शुरुआत था इलाहाबाद का दधिकांदो मेला।
बगावत की शुरुआत
बात 1890 की है जब हिन्दुस्तान अंग्रेजो का गुलाम था। हिंदुस्तानी क्रांतिकारियों ने गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी थी। उसी वक्त अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में शुरू हुआ था एक ऐतिहासिक मेला जो सैकड़ो सालो से आज भी निरंतर संगम नगरी में आयोजित हो रहा है। यह उस वक्त सिर्फ मेला नहीं था। यह इलाहाबाद में अंग्रेजी हुकूमत से बगावत की शुरुआत थी। अधिकांश लोग इसे आज भी सिर्फ मनोरंजन वाला मेला ही समझ लुफ्त उठाकर वापस लौट जाते है। लेकिन यह मेला क्रांतिकारियों खून से सींचा गया था। इस वर्ष का दधिकांदो शुरू हो चुका है। शहर के कैंट इलाके से शुरू होकर यह मेला शहर के सभी इलाकों में पहुंचेगा। इस मेले को अंग्रेजी हुकूमत के विरोध में आम जनमानस को एकजुट करने के लिए शुरू किया गया था। यह ठीक उसी तरह की शुरुआत थी जैसा की महाराष्ट्र में गणेश पूजा पर होता था। तीर्थराज प्रयाग में इसके लिए दिन चुना गया और वह दिन था भगवन श्रीकृष्ण के जन्म का छठवां दिन।
क्रांतिकारियों ने की सभा
बात उस उस वक्त की की है जब इलाहाबाद के कैंट इलाके में अंग्रेजो द्वारा हिन्दुस्तानियो के किसी प्रकार के उत्सव पर प्रतिबन्ध था। तब सन 1890 में इलाहबाद में इस मेले की नींव रखने के लिए क्रांतिकारियों की बैठक हुई थी। प्रयाग के तीर्थ पुरोहित रामकैलाश पाठक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विजय चंद्र, सुमित्रादेवी ने उस बैठक को सम्बोधित किया था। निर्णय हुआ की अगर बहुत सारे लोग एकसाथ एक जगह एकत्रित हो तो उनमें आजादी की लड़ाई के लिए जोश भरा जा सकता है। अगर ज्यादा लोग एकत्रित होतो तो उनमें संगठित होने की भी भावना घर करती। साथ ही उनके अंदर से अंग्रेजों का भय खत्म हो सकता हौ। लोग क्रांति के नाम पर उस समय बमुश्किल ही एकत्रित होते। लेकिन धार्मिक उत्सव के नाम पर उन्हें नजदीक लाया जा सकता था। लेकिन अब भी समस्या यह थी की अंग्रेज कही इस मेले को न होने दें तब क्या होगा। लेकिन मामला धर्म से जुड़ा था तो इतना तो साफ था की अंग्रेज जबरन कोई कदम नहीं उठाएंगे। लेकिन एहतियातन मेले का आयोजन रात में ही करने का निर्णय लिया गया। इसके पीछे वजह यह भी थी की रात में लोग खाली रहते।
धर्म के नाम पर इकठ्ठे हुए लोग
सब कुछ तय होने के बाद पूरे इलाहाबाद में यह जानकारी फैला दी गई की इस बार भगवान श्रीकृष्ण की छठी मनाई जाएगी। भगवान की झांकी निकली जाएगी जो भी इसमें शामिल होगा उनका जीवन धन्य हो जायेगा। लोगों में मेले को लेकर काफी मोह पैदा हुआ। कुछ धर्म से, कुछ मनोरंजन से और कुछ क्रांति से। लेकिन उस वक्त इतने आधुनिक संसाधन नहीं थे इसलिए मेले की शुरुआत मशाल व लालटेन की रोशनी में हुई। जन्माष्टमी के ५ दिन बाद यानि छठवें दिन श्रीकृष्ण-बलदाऊ की जोड़ी सजी। लोगो ने अपने कंधे पर श्रीकृष्ण-बलदाऊ को बैठाया और निकल पड़े मेला (नगर) भ्रमण पर। लोगो में बाल गोपाल को अपने कंधे पर बैठने की होड़ मची रही। लोग आस्था में ऐसे दुबे की सारी रात मेला चलता रहा। जयकारा लगता रहा। जहा से भी यह सवारी निकलती लोग अपने घरो से पड़ते और जयकारा लगाए हुए पीछे चल पड़ते। रत भर में यह एक ऐसा कारवां बन गया जो आने वाले वक़्त में अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की चिंगारी भर रहा था। फिर तो हर साल यह मेला दिन दूनी रात चौगुनी की कहावत के हिसाब से बढ़ता गया।
अंग्रेजो ने दधिकांदो किया बैन
दधिकांदो मेला की धमक जल्द ही पुरे देश में सुनाई पड़ने लगी। अपनी शुरुआत के दो दशक के बाद यह मेला अपने उफान पर आ गया। अंग्रेज देख रहे थी की हिंदुस्तानी सिर्फ उत्सव नहीं मना रहे बल्कि क्रांति की अलख जगा रहे है। आखिरकार सन 1922 में अंग्रेजो ने दधिकांदो मेले पर बैन लगा दिया। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इलाहाबादियों ने अंग्रेजो का हुक्म मैंने से इंकार कर दिया और उस वर्ष भी मेले का वही करवा चलता रहा। 1927 में एक बार फिर से अंग्रेजो ने इस मेले पर बैन लगा दिया। लेकिन नतीजा वही। इलाहाबादियों ने अंग्रेजो का हुक्म मानने से इंकार कर दिया। फिर यह कारवां कभी नहीं रुका और आज तक चल रहा है।
खास बात
दधिकांदो का अर्थ है दही क्रीड़ा। सबको पता है की भगवन श्रीकृष्ण दही और मक्खन की कैसी कैसी लीला करते थे। इसलिए इस मेले का नाम भी दधिकांदो रखा गया। पैदल लालटेन, मशालों और गैस की रोशनी से होते हुए आज श्रीकृष्ण-बलदाऊ की सवारी अत्याधुनिक लाइटों की रोशनी तक आ पहुंची है। यहां पहली बार 60 के दशक में विद्युत सजावट शुरू हुई थी। 70-80 के दशक में चांदी के हौदे में बैठाकर भगवान की सवारी निकालने का दौर शुरू हुआ। अब मेले में कृष्ण-बलदाऊ की सवारी कंधे के बजाय हाथी से निकलती है। जबकि मेले में श्रीकृष्णलीला पर आधारित दर्जनों चौकियां भी निकलती हैं।