सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ )

Tripoto
10th May 2022
Day 1

गलताजी, जयपुर, राजस्थान स्थित एक प्राचीन तीर्थस्थल है। निचली पहाड़ियों के बीच बगीचों से परे स्थित मंदिर, मंडप और पवित्र कुंडो के साथ हरियाली युक्त प्राकृतिक दृश्य इसे आन्नददायक स्थल बना देते हैं। दीवान कृपाराम द्वारा निर्मित उच्चतम चोटी के शिखर पर बना सूर्य देवता का छोटा मंदिर शहर के सारे स्थानों से दिखाई पड़ता है।

Photo of गलता जी by Milind Prajapati
Photo of गलता जी by Milind Prajapati
Photo of गलता जी by Milind Prajapati
Photo of गलता जी by Milind Prajapati
Photo of गलता जी by Milind Prajapati
Photo of गलता जी by Milind Prajapati

सनातन धर्म अपने हिंदू धर्म के वैकल्पिक नाम से भी जाना जाता है। वैदिक काल में भारतीय उपमहाद्वीप के धर्म के लिये 'सनातन धर्म' नाम मिलता है। 'सनातन' का अर्थ है - शाश्वत या 'हमेशा बना रहने वाला', अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त।सनातन धर्म मूलतः भारतीय धर्म है, जो किसी समय पूरे बृहत्तर भारत (भारतीय उपमहाद्वीप) तक व्याप्त रहा है। विभिन्न कारणों से हुए भारी धर्मान्तरण के बाद भी विश्व के इस क्षेत्र की बहुसंख्यक आबादी इसी धर्म में आस्था रखती है।

ॐ सनातन धर्म का प्रतीक चिह्न ही नहीं बल्कि सनातन परम्परा का सबसे पवित्र शब्द है।

सिन्धु नदी के पार के वासियो को ईरानवासी हिन्दू कहते, जो 'स' का उच्चारण 'ह' करते थे। उनकी देखा-देखी अरब हमलावर भी तत्कालीन भारतवासियों को 'हिन्दू' और उनके धर्म को हिन्दू धर्म कहने लगे। भारत के अपने साहित्य में हिन्दू शब्द कोई 1000 वर्ष पूर्व ही मिलता है, उसके पहले नहीं।

गलताजी मंदिर जयपुर से केवल 10 किमी दूर स्थित है। जयपुर के आभूषणों में से एक, मंदिर परिसर में प्राकृतिक ताजा पानी का झरना और 7 पवित्र कुण्ड शामिल हैं। इन कुण्डों के बीच, 'Galta कुंड', पवित्रतम एक है और सूखी कभी नहीं माना जाता है। शुद्ध पानी की एक वसंत 'गौमुख', एक रॉक, एक गाय के सिर की तरह आकार टैंक में से बहती है। एक शानदार संरचना, इस भव्य मंदिर, गुलाबी बलुआ पत्थर में बनाया गया है कम पहाड़ियों के बीच, और अधिक एक महल या 'हवेली' एक पारंपरिक मंदिर से की तरह लग रहे करने के लिए संरचित है। Galta बंदर मंदिर हरे-भरे पेड़-पौधों की विशेषता भव्य परिदृश्य का एक वापस छोड़ दिया है, और जयपुर शहर का एक आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करता है। यह मंदिर है कि इस क्षेत्र में ध्यान केन्द्रित करना बंदरों के कई जनजातियों के लिए प्रसिद्ध है। धार्मिक भजन और मंत्र, प्राकृतिक सेटिंग के साथ संयुक्त, जो वहां का दौरा किसी के लिए एक शांतिपूर्ण वातावरण प्रदान करते हैं।

यात्रा का सर्वोत्तम समय -

जनवरी के मध्य में हर साल, 'मकर संक्रांति', पर आगंतुकों की एक बड़ी भीड़ यहाँ आने के पवित्र कुंड में डुबकी लगाने के लिए। सूर्यास्त सबसे अच्छा समय है, क्योंकि इस समय, आप मंदिर टैंक की ओर आते बंदरों का एक बड़ा परिवार है, एक स्नान के लिए कर सकते हैं गवाह इस अनुग्रह मंदिर की यात्रा करने के लिए है। इस मंदिर के लिए मिलने का समय सूर्योदय से सूर्यास्त तक कर रहे हैं।

आसपास के पर्यटक आकर्षण -

आप भी कृष्ण मंदिर, सूर्य मंदिर, बालाजी मंदिर और सीता राम मंदिर, गलताजी मंदिर के निकट स्थित यात्रा कर सकते हैं। इस मंदिर के पास एक अन्य पर्यटक आकर्षण सिसोदिया रानी का बाग है, जो एक शानदार महल और उद्यान है। राजस्थान के राजसी शान की याद दिलाते, गलताजी मंदिर एक शानदार वास्तुकला है और प्राकृतिक नैसर्गिक सौंदर्य में संलग्न है। यह मंदिर एक रहस्यमय जगह में स्थित सभी पर्यटकों के लिए एक खुशी है। पवित्र मंदिर, बंदरों के एक कबीले से घिरा हुआ है, इस जगह, आंख को पकड़ने और दिलचस्प है, प्रकृति प्रेमियों और फोटोग्राफरों के लिए बनाता है।

वरदराज पेरुमाल मंदिर (Varadaraja Perumal Temple) भारत के तमिल नाडु राज्य के कांचीपुरम तीर्थ-नगर में स्थित भगवान विष्णु को समर्पित एक हिन्दू मंदिर है। यह दिव्य देशम में से एक है, जो विष्णु के वह 108 मंदिर हैं जहाँ 12 आलवार संतों ने तीर्थ करा था। यह कांचीपुरम के जिस भाग में है उसे विष्णु कांची कहा जाता है। तमिल भाषा में "मंदिर" को "कोइल" या "कोविल" कहा जाता है और इस मंदिर को अनौपचारिक रूप से पेरुमल कोइल (Perumal Koil) के नाम से भी बुलाया जाता है। कांचीपुरम के इस मंदिर, एकाम्बरेश्वर मंदिर और कामाक्षी अम्मन मंदिर को सामूहिक रूप से "मूमुर्तिवासम" कहा जाता है, यानि "त्रिमूर्तिवास" (तमिल भाषा में "मू" से तात्पर्य "तीन" है)।

Photo of वरदराज पेरुमल टेंपल by Milind Prajapati
Photo of वरदराज पेरुमल टेंपल by Milind Prajapati
Photo of वरदराज पेरुमल टेंपल by Milind Prajapati
Photo of वरदराज पेरुमल टेंपल by Milind Prajapati
Photo of वरदराज पेरुमल टेंपल by Milind Prajapati

नीलकंठ मंदिर अलवर जिले , राजस्थान , भारत में राजगढ़ तहसील में एक हिंदू मंदिर है । यह भगवान शिव को समर्पित है (नीलकंठ शिव को दिए गए नामों में से एक है)। यह सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के पास एक सुनसान पहाड़ी में स्थित है , और केवल एक खड़ी ट्रैक से ही पहुंचा जा सकता है। इसका निर्माण 6ठी से 9वीं शताब्दी के बीच स्थानीय प्रतिहार सामंत परमेश्वर मथानादेव ने करवाया था ।

Photo of नीलकंठ महादेव मंदिर by Milind Prajapati
Photo of नीलकंठ महादेव मंदिर by Milind Prajapati
Photo of नीलकंठ महादेव मंदिर by Milind Prajapati
Photo of नीलकंठ महादेव मंदिर by Milind Prajapati
Photo of नीलकंठ महादेव मंदिर by Milind Prajapati

सावन मास में शिव मंदिरों में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। सावन मास में अलवर के पांडवों के समय निर्मित हजारों वर्ष पुराने नीलकंठ महादेव मंदिर में भी भारी संख्या में दर्शनार्थी पहुंचते हैं। मान्यता है यहां सावन में दर्शन करने से मोक्ष की प्राप्ती होती है। अलवर से 65 किलोमीटर दूर स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर रमणीक होने के साथ भोले के भक्तों के लिए उनकी अटूट आस्था का केन्द्र भी है। यही वजह है कि श्रावण मास में यहां का नजारा अद्भुत होता है। यहां दिनभर भक्ति संगीत के साथ अनुष्ठान और पूजा-अर्चना का कार्यक्रम चलता है। भोलेनाथ के जयकारों से मंदिर परिसर गुंजायमान रहता है।

सात किलोमीटर का ऊबड़-खाबड़ और पथरीले रास्ते पर चलकर श्रद्धालु नीलकंठ महादेव के दर्शन के लिए पहुंचते हैं। राजस्थान के अलावा अन्य राज्यों से भी भक्तजन यहां आकर पूजा-अर्चना करते कर परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं। सावन मास के सोमवार को श्रद्धालु जलाभिषेक व धार्मिक अनुष्ठान आदि कर भोलेनाथ को रिझाते हैं।

मंदिर का महत्व

नीलकंठ महादेव मंदिर स्थित शिवलिंग पूर्ण रूपेण नीलम पाषाण के बना है। यहां पाण्डवों के समय से ही अखण्ड ज्योत जलती आ रही है। पूर्व में यह नगर पारानगर के नाम से विख्यात था। प्राचीन संस्कृतियों की मूर्ति कलाकृतियों के पाषाणों से निर्मित पारानगर एवं नीलकंठ महादेव मंदिर इसका एक जीवंत उदाहरण है। मंदिर के गुम्बद व शिलाओं पर मूर्ति कलाकृतियां आज भी देखने को मिलती हैं। पारानगर के खण्डहर एवं अवशेष आज भी यहां मौजूद हैं। इस मंदिर को सन् 1970 के आसपास पुरातत्व विभाग ने अपने संरक्षण में ले रखा है। मंदिर की देखरेख के लिए यहां सदैव पुरातत्व विभाग के कर्मचारी एवं पुलिस जाप्ता तैनात रहता है।

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati

यह मंदिर भगवान जगन्नाथ का मंदिर है। यह मंदिर कानपुर जनपद के भीतरगांव विकासखंड मुख्यालय से तीन किलोमीटर पर बेंहटा गांव में स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि इस मंदिर की खासियत यह है कि बरसात से 7 दिन पहले इसकी छत से बारिश की कुछ बूंदे अपने आप ही टपकने लगती हैं।

हालांकि इस रहस्य को जानने के लिए कई बार प्रयास हो चुके हैं पर तमाम सर्वेक्षणों के बाद भी मंदिर के निर्माण तथा रहस्य का सही समय पुरातत्व वैज्ञानिक पता नहीं लगा सके। बस इतना ही पता लग पाया कि मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार 11वीं सदी में हुआ था। उसके पहले कब और कितने जीर्णोद्धार हुए या इसका निर्माण किसने कराया जैसी जानकारियां आज भी अबूझ पहेली बनी हुई हैं, लेकिन बारिश की जानकारी पहले से लग जाने से किसानों को जरूर सहायता मिलती है।

Photo of जगन्नाथ मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जगन्नाथ मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जगन्नाथ मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जगन्नाथ मंदिर by Milind Prajapati

क्या आप कभी कल्पना कर सकते हैं कि किसी मंदिर की छत से चिलचिलाती धूप में अचानक पानी टपकने लगे। बारिश की शुरुआत होते ही जिसकी छत से पानी टपकना बंद हो जाए। ये घटना है तो बड़ी हैरान कर देने वाली लेकिन सच तो यही है। उत्तर प्रदेश की औद्योगिक नगरी कहे जाने वाले कानपुर जनपद के भीतरगांव विकासखंड से ठीक तीन किलोमीटर की दूरी पर एक गांव है बेहटा। यहीं पर है धूप में छत से पानी की बूंदों के टपकने और बारिश में छत के रिसाव के बंद होने का रहस्य। यह घटनाक्रम किसी आम इमारत या भवन में नहीं बल्कि यह होता है भगवान जगन्नाथ के अति प्राचीन मंदिर में।

7 दिन पहले बारिश की सुचना

भारत देश एक ऐसा देश है जो आश्चर्यो से भरा हुआ है। इस देश के हर राज्य के हर शहर के कोने-कोने में कोई न कोई अदुभुत जगह मौजूद है। ऐसी ही एक जगह है उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद में स्थित भगवान जगन्नाथ का मंदिर जो की अपनी एक अनोखी विशेषता के कारण प्रसिद्ध है। इस मंदिर की विशेषता यह है की यह मंदिर बारिश होने की सुचना 7 दिन पहले ही दे देता है। आप शायद यकीन न करे पर यह हकीकत है।

मंदिर का रहस्य आज तक रहस्य है

हालांकि इस रहस्य को जानने के लिए कई बार प्रयास हो चुके हैं पर तमाम सर्वेक्षणों के बाद भी मंदिर के निर्माण तथा रहस्य का सही समय पुरातत्व वैज्ञानिक पता नहीं लगा सके। बस इतना ही पता लग पाया कि मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार 11वीं सदी में हुआ था। उसके पहले कब और कितने जीर्णोद्धार हुए या इसका निर्माण किसने कराया जैसी जानकारियां आज भी अबूझ पहेली बनी हुई हैं, लेकिन बारिश की जानकारी पहले से लग जाने से किसानों को जरूर सहायता मिलती है।

अनुमान 9वीं सदी का है मंदिर जगन्नाथ मंदिर कितना पुराना है, इसका सटीक आकलन अभी तक नहीं हो पाया। पुरातत्व विभाग ने कई बार प्रयास किए पर तमाम सर्वेक्षणों के बाद भी मंदिर के निर्माण का सही समय पता नहीं चल सका। किसी बौद्ध मठ जैसे आकार वाले मंदिर की दीवारें करीब 14 फीट मोटी हैं, मंदिर के अंदर भगवान जगन्नाथ, बलदाऊ और बहन सुभद्रा की काले चिकने पत्थरों की मूर्तियां हैं। आजकल यह मंदिर पुरातत्व के अधीन है। जैसी रथ यात्रा पुरी उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर में निकलती है वैसे ही रथ यात्रा यहां से भी निकाली जाती है। पुरातत्व विभाग कानपुर के सहायक निरीक्षक मनोज वर्मा बताते हैं कि मंदिर का जीर्णोद्धार 11वीं शताब्दी के आसपास हुआ था। मंदिर 9वीं सदी का हो सकता है।

धर्मराजेश्वर मध्य प्रदेश के मन्दसौर जिले में स्थित ४थी-५वीं शताब्दी में निर्मित एक प्राचीन मन्दिर है। यह पत्थर काटकर बनाया गया है। यह मन्दसौर नगर से १०६ कीमी दूर है। इससे निकटतम रेलवे स्टेशन शामगढ़ है।

Photo of श्री धर्म्राजेश्वारा मंदिर by Milind Prajapati
Photo of श्री धर्म्राजेश्वारा मंदिर by Milind Prajapati
Photo of श्री धर्म्राजेश्वारा मंदिर by Milind Prajapati
Photo of श्री धर्म्राजेश्वारा मंदिर by Milind Prajapati

जिले के गरोठ क्षेत्र में स्थित भगवान धर्मराजेश्वर का मंदिर जमीन के भीतर बना हुआ है, जिसके बावजूद यहां पर सूर्य की पहली किरण गर्भगृह तक जाती है और सूर्य देव भगवान के दर्शन करते हैं। शिवरात्रि के दिन यहां देशभर से लाखों की संख्या में दर्शनार्थी दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं।

जिले के गरोठ क्षेत्र में स्थित भगवान धर्मराजेश्वर का मंदिर दुनिया का पहला ऐसा मंदिर है, जो जमीन के अंदर बना हुआ है. बावजूद इसके यहां सूर्य की पहली किरण गर्भगृह तक पहुंचती है. ऐसा माना जाता है कि सूर्य देव भगवान के दर्शन करते हैं. इस मंदिर की मान्यता है कि भगवान भास्कर खुद मंदिर में पहली किरण के साथ भगवान शिव और विष्णु के दर्शन के लिए आते हैं. धर्मराजेश्वर मंदिर का निर्माण एक विशाल चट्टान को काटकर किया गया है. ये दुनिया का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जिसके मुकुट का पहले निर्माण हुआ और फिर ऊपर से नीचे की ओर निर्माण किया गया.

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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मंदसौर से धर्मराजेश्वर की दूरी लगभग 100 किलोमीटर है, यहां आने वाला हर श्रद्धालु इस स्थान को देखकर एक अलग ही आनंद की अनुभूति करता है. मंदिर में छोटी कुईया विद्यमान हैं, मान्यता है कि इसका पानी कभी नहीं सूखता है और यहां के पानी से स्नान करने पर रैबीज की बीमारी को रोका जाता है. साथ ही चर्म रोग, सर्प डंस आदि बीमारियों से राहत मिलती है. विशाल मंदिर और यह देवालय ना सिर्फ भगवान शिव और विष्णु के मंदिर का प्रतीक है, बल्कि यह संसार का अकेला ऐसा मंदिर है, जो जमीन के भीतर होते हुए भी सूर्य की किरणों से सराबोर हैं।

माना जाता है कि द्वापर युग में पांडव जब अपने अज्ञातवास के दौरान इस स्थान पर आए थे, तो भीम ने गंगा के सामने इसी जगह पर शादी का प्रस्ताव रखा था. जबकि गंगा भीम से शादी नहीं करना चाहती थी. इसीलिए गंगा ने भीम के सामने शादी की एक शर्त रखी थी, जिसके मुताबिक भीम को एक ही रात में चट्टान को काटकर इस मंदिर का निर्माण करया था. उसके बाद भीम की शर्त के मुताबिक 6 माह की एक रात बना दी. 6 माह की इस रात्रि में मंदिर का निर्माण किया गया था.

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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एलोरा के कैलाश मंदिर से तुलना

गरोठ क्षेत्र में स्थित धर्मराजेश्वर का यह मंदिर अजंता एलोरा की गुफाओं के बाद यह दूसरा मंदिर है, जो एक शिला को तराश कर बनाया गया है. इस मंदिर की तुलना एलोरा के कैलाश मंदिर से की जा सकती है, क्योंकि यह कैलाश मंदिर के समान ही एकाश्म शैली का बना है. इस मंदिर को 9 मीटर गहरी चट्टान को खोखला करके बनाया गया है ।

मंदिर की लम्बाई 1453 मीटर है जिसमें छोटे-बड़े मंदिर, गुफाएं हैं। यहां पर 7 छोटे और एक बड़ा मंदिर और 200 के लगभग गुफाएं मौजूद हैं. बताया जाता है कि यहां पर एक विशाल गुफा भी है, जो इस मंदिर से उज्जैन निकलती है, जिसे पुरातत्व विभाग द्वारा बंद कर रखा है।

शिवरात्रि के दिन आते हैं लाखों भक्त

शिवरात्रि के दिन यहां देशभर से लाखों की संख्या में दर्शनार्थी दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं. ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति यहां रात गुजारेगा, उसका एक भोग तर जाएगा. कहा जाता है कि यहां मोक्ष की प्राप्ति होती है. भगवान अगर पत्थर में विराजते हैं तो धर्मराजेश्वर उसका एक जीता जागता उदाहरण है. इतिहासकारों में इस मंदिर की संरचना को लेकर विभिन्न मतभेद विद्यमान है. चट्टानों से तराशे गए इस भव्य धमराजेशवर मंदिर में आज भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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सिद्धेश्वर मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के बलौदाबाजार जिले में रायपुर से बलोदाबाजार रोड पर ७० कि॰मी॰ दूर स्थित नगर पंचायत पलारी में बालसमुंद तालाब के तटबंध पर यह शिव मंदिर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण लगभग ७-८वीं शती ईस्वी में हुआ था। ईंट निर्मित यह मंदिर पश्चिमाभिमुखी है। मंदिर की द्वार शाखा पर नदी देवी गंगा एवं यमुना त्रिभंगमुद्रा में प्रदर्शित हुई हैं। द्वार के सिरदल पर त्रिदेवों का अंकन है। प्रवेश द्वार स्थित सिरदल पर शिव विवाह का दृश्य सुन्दर ढंग से उकेरा गया है एवं द्वार शाखा पर अष्ट दिक्पालों का अंकन है। गर्भगृह में सिध्देश्वर नामक शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। इस मंदिर का शिखर भाग कीर्तिमुख, गजमुख एवं व्याल की आकृतियों से अलंकृत है जो चैत्य गवाक्ष के भीतर निर्मित हैं। विद्यमान छत्तीसगढ़ के ईंट निर्मित मंदिरों का यह उत्तम नमूना है। यह स्मारक छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा संरक्षित है।

Photo of श्री सिद्धेश्वर महादेव मंदिर by Milind Prajapati
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Photo of श्री सिद्धेश्वर महादेव मंदिर by Milind Prajapati
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छत्तीसगढ़ में ईंटों के मंदिरों की गौरवाशाली परंपरा रही है, इसी परंपरा का एक उदाहरण पलारी का सिद्धेश्वर मंदिर है जो रायपुर जिले में स्थित पलारी ग्राम के बालसमुंद तालाब के किनारे स्थित है। पश्चिमाभिमुख यह मंदिर लघु अधिष्ठान पर निर्मित है। मंदिर का गर्भगृह पंचस्थ शैली का है तथा जंघा तक अपने मूल रूप में सुरक्षित है। शिखर का शीर्ष भाग पुर्ननिर्मित है। पाषाण निर्मित द्वार के चौखट कलात्मक एवं अलंकृत है, इसके दोनों पाश्र्वों में नदी देवियों, गंगा एवं यमुना का त्रिभंग मुद्रा में अंकन है। सिरदल पर ललाट बिंब में शिव का चित्रण है, तथा दोनों पाश्र्वों में ब्रह्मा तथा विष्णु का अंकन है। मंदिर के द्वार पर निर्मित पाषाण पर तराशे गए शिव विवाह का दृश्य दर्शनीय है। पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार शिव विवाह का यह अंकन अद्भुत है।

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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भीतरगाँव (Bhitargaon) भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर नगर ज़िले में स्थित एक गाँव है।

यहाँ गुप्तकालीन एक मंदिर के अवशेष उपलब्ध है, जो गुप्तकालीन वास्तुकला के नमूनों में से एक है। ईंट का बना यह मंदिर अपनी सुरक्षित तथा उत्तम साँचे में ढली ईटों के कारण विशेष रूप से प्रसिद्ध है। इसकी एक-एक ईट सुंदर एवं आर्कषक आलेखनों से खचित थी। इसकी दो दो फुट लंबे चौड़े खानें अनेक सजीव एवं सुंदर उभरी हुई मूर्तियों से भरी थी। इसकी छत शिखरमयी है तथा बाहर की दीवारों के ताखों में मृण्मयी मूर्तियाँ दिखलाई पड़ती है। इस मंदिर की हजारों उत्खचित ईटें लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित हैं।

Photo of भीतरगांव प्राचीन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of भीतरगांव प्राचीन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of भीतरगांव प्राचीन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of भीतरगांव प्राचीन मंदिर by Milind Prajapati

जिस मंच पर मंदिर बना है उसका आकार 36 फीट * 47 फीट है। संतमत आंतरिक रूप से 15 फीट * 15 फीट है। संतमत दोहरी कहानी है। दीवार की मोटाई 8 फीट है। जमीन से शीर्ष तक की कुल ऊंचाई 68.25 फीट है। कोई खिड़की नहीं है। टेराकोटा की मूर्तिकला में धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों विषयों को दर्शाया गया है जैसे देवता गणेश अदि विरह महिषासुरमर्दनी और नदी देवी। मिथक और कहानियाँ सीता के अपहरण और नर और नारायण की तपस्या का प्रतिनिधित्व करती हैं। शिकारा एक चरणबद्ध पिरामिड है और 1894 में गड़गड़ाहट से क्षतिग्रस्त हो गया। गर्भगृह की पहली कहानी 1850 में गिरी। वॉल्टेड आर्क का उपयोग भारत में कहीं भी पहली बार किया गया है। टेराकोटा पैनल विशिष्ट त्रिभंगा मुद्रा में देवताओं को बहुत ही आकर्षक और सौम्य शैली में चित्रित करते हैं।

कैलास (मंदिर) संसार में अपने ढंग का अनूठा वास्तु जिसे मालखेड स्थित राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण (प्रथम) (757-783 ई0) में निर्मित कराया था। यह एलोरा (जिला औरंगाबाद) स्थित लयण-श्रृंखला में है।

अन्य लयणों की तरह भीतर से कोरा तो गया ही है, बाहर से मूर्ति की तरह समूचे पर्वत को तराश कर इसे द्रविड़ शैली के मंदिर का रूप दिया गया है। अपनी समग्रता में २७६ फीट लम्बा , १५४ फीट चौड़ा यह मंदिर केवल एक चट्टान को काटकर बनाया गया है। इसका निर्माण ऊपर से नीचे की ओर किया गया है। इसके निर्माण के क्रम में अनुमानत: ४० हज़ार टन भार के पत्थारों को चट्टान से हटाया गया। इसके निर्माण के लिये पहले खंड अलग किया गया और फिर इस पर्वत खंड को भीतर बाहर से काट-काट कर 90 फुट ऊँचा मंदिर गढ़ा गया है। मंदिर के भीतर और बाहर चारों ओर मूर्ति-अलंकरणों से भरा हुआ है। इस मंदिर के आँगन के तीन ओर कोठरियों की पाँत थी जो एक सेतु द्वारा मंदिर के ऊपरी खंड से संयुक्त थी। अब यह सेतु गिर गया है। सामने खुले मंडप में नन्दी है और उसके दोनों ओर विशालकाय हाथी तथा स्तंभ बने हैं। यह कृति भारतीय वास्तु-शिल्पियों के कौशल का अद्भुत नमूना है।

Photo of कैलाशनाथ मंदिर by Milind Prajapati
Photo of कैलाशनाथ मंदिर by Milind Prajapati
Photo of कैलाशनाथ मंदिर by Milind Prajapati
Photo of कैलाशनाथ मंदिर by Milind Prajapati
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कैलास संसार में अपने ढंग का अनूठा वास्तु जिसे मालखेड स्थित राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण में निर्मित कराया था। यह एलोरा स्थित लयण-श्रृंखला में है। अन्य लयणों की तरह भीतर से कोरा तो गया ही है, बाहर से मूर्ति की तरह समूचे पर्वत को तराश कर इसे द्रविड़ शैली के मंदिर का रूप दिया गया है।

भारत के तमिलनाडु राज्य स्थित तिरुवन्नामलई (तमिल: திருவண்ணாமலை, same as English pronunciation) जिले में बसा तिरुवन्नामलई एक तीर्थ शहर और नगरपालिका है। यह तिरुवन्नामलई जिले का मुख्यालय भी है। अन्नमलईयर मंदिर इसी तिरुवन्नामलई में बसा हुआ है, जो कि अन्नमलई पहाड़ की तराई में स्थित है और यह मंदिर तमिलनाडु में भगवान शिव के प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। लम्बे समय से तिरुवन्नामलई कई योगियों और सिद्धों से जुड़ा रहा है,[1] और सबसे हाल के समय की बात करें तो अरुणाचल की पहाड़ियां, जहां 20वीं सदी के गुरु रमण महर्षि रहते थे, वह एक प्रसिद्ध आध्यात्मिक पर्यटन स्थल के रूप में चर्चित हो चुका है।

Photo of आदि अन्नामलाई टेंपल by Milind Prajapati
Photo of आदि अन्नामलाई टेंपल by Milind Prajapati
Photo of आदि अन्नामलाई टेंपल by Milind Prajapati

अन्नामलाई मंदिर भगवान मुरुगा के उपासकों के बीच बहुत महत्व और धार्मिक महत्व का स्थान है, जिसे भगवान के 7 वें पहाड़ी घर के रूप में भी जाना जाता है। अन्नामलाई मंदिर ऊटी से लगभग 20 किमी की दूरी पर स्थित है और भगवान मुरुगा के अन्नामलाई मुरुगन मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है, जिसे भगवान के 7 वें पहाड़ी घर के रूप में भी जाना जाता है। अन्नामलाई मंदिर भगवान मुरुगा के उपासकों के बीच बहुत महत्वपूर्ण और धार्मिक महत्व का स्थान है। छोटा सुंदर ऊटी से कुंडाह तक का 20 किमी का ड्राइव या कुन्नूर डैम से मंजूर गांव तक 30 किमी का दर्शनीय ड्राइव या मंजूर गांव जो कई सुखद अनुभव प्रदान करता है, कई दिलचस्प स्थानों से भरा हुआ है, जो कि मजलिस नीलगिरी पर्वत मार्ग के दोनों ओर देखने के लिए कई दिलचस्प स्थानों से भरा है। जैसे ही आप कुंडाह या मंजूर पहुंचते हैं, आप स्थानीय ग्रामीणों से अन्नामलाई मंदिर के लिए दिशा निर्देश मांग सकते हैं, जो आपकी सहायता करने के लिए खुश होंगे। यह कुंडह में है जहां अन्नामलाई मुरुगन मंदिर औपचारिक रूप से कोयंबटूर, मैसूर और अन्य पड़ोसी राज्यों के अलावा भक्तों की एक बड़ी भीड़ प्राप्त करता है। अन्नामलाई मंदिर भगवान मुरुगन महोत्सव के दौरान और भी अधिक भक्तों को आकर्षित करता है क्योंकि वे इस मंदिर के परिसर में अपनी प्रार्थना या आभार प्रकट करने के लिए आते हैं। लोग भगवान से अपील करते हैं कि या तो उन्हें आशीर्वाद दें या उनकी इच्छाओं को पूरा करें। हिलटॉप, जहां अन्नामलाई मुरुगन मंदिर खड़ा है, काफी शांत है और एक शांत वातावरण है जो आपको आमतौर पर देवी-देवताओं की पवित्रता के बीच अनुभव होगा। अपने शांत और शांतिपूर्ण वातावरण के अलावा, अन्नामलाई मुरुगन मंदिर ऊटी के आसपास किसी भी पर्यटक स्थल के रूप में भी सुरम्य है। यह हरे-भरे चाय के बागानों से घिरा हुआ एक स्थान दिखाता है और घने सिल्वर ओक के पेड़ों से घिरा है जो इस क्षेत्र में एक ग्रामीण इलाकों को जोड़ता है।

वट फु (या वाट फु; लाओ : [वाट पी] मंदिर-पर्वत ) दक्षिणी लाओस में एक बर्बाद खमेर हिंदू मंदिर परिसर है । यह चंपासक प्रांत में मेकांग से लगभग 6 किलोमीटर (3.7 मील) दूर माउंट फू खाओ के आधार पर है। इस स्थल पर 5वीं शताब्दी की शुरुआत में एक मंदिर था, लेकिन जीवित संरचनाएं 11वीं से 13वीं शताब्दी की हैं। इसकी एक अनूठी संरचना है: तत्व एक मंदिर की ओर ले जाते हैं जहां भगवान शिव को समर्पित एक शिवलिंग एक पहाड़ी झरने के पानी से स्नान किया गया था । यह स्थल बाद में थेरवाद का केंद्र बन गयाबौद्ध योद्धा की पूजा, योद्धा संतानों के लिए जन्मभूमि, जो आज भी बनी हुई है।

वट फू शुरू में श्रेष्ठपुर शहर से जुड़ा था,  : 66 जो सीधे लिंगपर्वत पर्वत (जिसे अब फु खाओ कहा जाता है ) के पूर्व में मेकांग के तट पर स्थित है। पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक, शहर एक ऐसे राज्य की राजधानी था, जो ग्रंथ और शिलालेख चेनला साम्राज्य और चंपा से जुड़ते हैं । इस समय के आसपास पहाड़ पर पहली संरचना का निर्माण किया गया था। अपने शिखर पर लिंगम के आकार के उभार से पर्वत ने आध्यात्मिक महत्व प्राप्त किया। इसलिए, पर्वत को ही शिव का घर माना जाता था , और नदी समुद्र या गंगा का प्रतिनिधित्व करती थी । मंदिर स्वाभाविक रूप से शिव को समर्पित था, जबकि सीधे मंदिर के पीछे के झरने का पानी पवित्र माना जाता था।

Photo of प्राचीन शिव मंदिर by Milind Prajapati
Photo of प्राचीन शिव मंदिर by Milind Prajapati
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Photo of प्राचीन शिव मंदिर by Milind Prajapati
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वाट फू दक्षिण-पश्चिम में अंगकोर पर केंद्रित खमेर साम्राज्य का एक हिस्सा था , कम से कम 10 वीं शताब्दी की शुरुआत में यासोवर्मन प्रथम के शासनकाल के रूप में । मंदिर के सीधे दक्षिण में, अंगकोरियन काल में एक नए शहर द्वारा श्रेष्ठपुर को स्थानांतरित कर दिया गया था। बाद की अवधि में, कुछ पत्थर के ब्लॉकों का पुन: उपयोग करते हुए, मूल इमारतों को बदल दिया गया; अब देखा जाने वाला मंदिर मुख्य रूप से 11वीं शताब्दी के कोह केर और बाफून काल के दौरान बनाया गया था।

निम्नलिखित दो शताब्दियों के दौरान मामूली बदलाव किए गए, मंदिर से पहले, साम्राज्य में अधिकांश की तरह, थेरवाद बौद्ध उपयोग में परिवर्तित हो गया था। यह क्षेत्र लाओ के नियंत्रण में आने के बाद भी जारी रहा , और प्रत्येक फरवरी में साइट पर एक उत्सव आयोजित किया जाता है। पथ के किनारे सीमा चौकियों के जीर्णोद्धार के अलावा अन्य बहुत कम जीर्णोद्धार का काम किया गया है। 2001 में वाट फू को विश्व धरोहर स्थल नामित किया गया था ।

अधिकांश खमेर मंदिरों की तरह, वट फू पूर्व की ओर उन्मुख है, हालांकि धुरी पूर्व की ओर आठ डिग्री दक्षिण की ओर है, जो मुख्य रूप से पहाड़ और नदी के उन्मुखीकरण द्वारा निर्धारित की जाती है। बारे ( जलाशय ) सहित , यह पहाड़ी के ऊपर 100 मीटर (330 फीट) चट्टान के आधार पर, वसंत के स्रोत से 1.4 किलोमीटर (0.87 मील) पूर्व में फैला है । मंदिर के पूर्व में 6 किलोमीटर (3.7 मील), मेकांग के पश्चिमी तट पर, शहर स्थित है, जबकि मंदिर से दक्षिण की ओर एक सड़क अन्य मंदिरों और अंततः अंगकोर शहर तक जाती है।

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati

शहर से (जिनमें से बहुत कम अवशेष हैं), मंदिर के पहले भाग तक पहुँचने के लिए बारों की एक श्रृंखला है। केवल एक में अब पानी है, 600 गुणा 200 मीटर मध्य बारे जो सीधे मंदिर की धुरी के साथ स्थित है; इसके उत्तर और दक्षिण में जलाशय थे, और बीच की खाड़ी और महलों के बीच सेतु के दोनों ओर एक और जोड़ा था। दोनों महल अक्ष के दोनों ओर एक छत पर खड़े हैं। उन्हें उत्तर और दक्षिण महलों के रूप में जाना जाता है या, बिना किसी सबूत के, पुरुषों और महिलाओं के महल (शब्द "महल" एक मात्र सम्मेलन है और उनका उद्देश्य अज्ञात है)।

प्रत्येक में एक आयताकार आंगन होता है जिसमें एक गलियारा होता है और धुरी की ओर प्रवेश द्वार होता है, और पूर्व और पश्चिम छोर पर झूठे दरवाजे होते हैं। दोनों भवनों के प्रांगण में लैटेराइट दीवारें हैं। उत्तरी महल के गलियारे की दीवारें लेटराइट हैं, जबकि दक्षिणी महल की दीवारें बलुआ पत्थर की हैं । उत्तरी इमारत अब बेहतर स्थिति में है। महल मुख्य रूप से अपने पेडिमेंट और लिंटल्स के लिए उल्लेखनीय हैं, जो प्रारंभिक अंगकोर वाट शैली में हैं। अगली छत पर दक्षिण में नंदी (शिव का पर्वत) के लिए एक छोटा मंदिर है, जो खराब स्थिति में है।

वट फु को अंगकोर से जोड़ने वाली सड़क इस मंदिर से दक्षिण की ओर जाती थी। पश्चिम की ओर बढ़ते हुए, क्रमिक सीढ़ियाँ आगे की छतों तक ले जाती हैं; उनके बीच एक द्वारपाल खड़ा है जिसे मंदिर के पौराणिक निर्माता राजा कम्माथा के रूप में पूजा जाता है। संकीर्ण अगली छत पर खजाना-शिकारियों द्वारा नष्ट किए गए छह छोटे मंदिरों के अवशेष हैं। पथ सात बलुआ पत्थर स्तरों में समाप्त होता है जो ऊपरी छत और केंद्रीय अभयारण्य तक बढ़ता है। अभयारण्य दो भागों में है। बलुआ पत्थर का अगला भाग, अब चार बुद्ध छवियों से घिरा हुआ है , जबकि ईंट का पिछला हिस्सा, जिसमें पूर्व में केंद्रीय लिंगम था, खाली है। पूरी छत गायब है, हालांकि सामने की तरफ एक अस्थायी कवर जोड़ा गया है।

अभयारण्य के दक्षिण-पश्चिम में लगभग 60 मीटर की दूरी पर चट्टान से निकलने वाले झरने का पानी पत्थर के एक्वाडक्ट्स के साथ पीछे के कक्ष में प्रवाहित किया गया था, जो लगातार लिंगम को स्नान कर रहा था। अभयारण्य उत्तर और दक्षिण महलों की तुलना में बाद में है, जो बाद के 11 वीं शताब्दी के बाफून काल से संबंधित है। पूर्व की ओर तीन द्वार हैं: दक्षिण से उत्तर की ओर, उनके पेडिमेंट्स कृष्ण को नाग कालिया को हराते हुए दिखाते हैं ; ऐरावत पर सवार इंद्र ; और विष्णु गरुड़ की सवारी करते हैं । पूर्व की दीवार में द्वारपाल और देवता हैं. दक्षिण और उत्तर के प्रवेश द्वारों में आंतरिक और बाहरी लिंटल्स हैं , जिनमें से एक कृष्ण के दक्षिण में कंस को अलग करता है।


10 वीं सदी का सास - बहू मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और नागदा टाउन में राष्ट्रीय राजमार्ग 8 पर उदयपुर से 23 किमी की दूरी पर स्थित है। मंदिर दो संरचनाओं का बना है, उनमें से एक सास द्वारा और एक बहू के द्वारा बनाया गया है। मंदिर के प्रवेश द्वार नक्काशीदार छत और बीच में कई खाँचों वाली मेहराब हैं। एक वेदी, एक मंडप (स्तंभ प्रार्थना हॉल), और एक पोर्च मंदिर के दोनों संरचनाओं की सामान्य विशेषताएं हैं।

Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati
Photo of सास बहू मंदिर by Milind Prajapati

'बहू' का मंदिर, जो सास मंदिर से थोड़ा छोटा है, में एक अष्टकोणीय आठ नक्काशीदार महिलाओं से सजाया छत है। एक तोरण (मेहराब) 'सास' मंदिर के सामने स्थित है। मंदिर की दीवारों को रामायण महाकाव्य की विभिन्न घटनाओं के साथ सजाया गया है। मूर्तियों को दो चरणों में इस तरह से व्यवस्थित किया गया है कि एक दूसरे को घेरे रहती हैं।

मंदिर में भगवान ब्रह्मा, शिव और विष्णु की छवियों को एक मंच पर खुदी हैं और दूसरे मंच पर राम, बलराम, और परशुराम के चित्र खुदी हैं। यह 10 वीं सदी में राजा महापाल द्वारा बनाया गया था और इसमें भगवान विष्णु को समर्पित मंदिरों का एक समूह है।

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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आपने शिव मंदिर और विष्णु भगवान के मंदिर तो कई देखे होंगे, लेकिन क्या आपने कभी सास-बहू का मंदिर देखा है। आपको इस तरह के मंदिर के बारे में जानकर हैरानी तो हो रही होगी, लेकिन हम आपको बता दें कि यह बिल्कुल सच है। यह मंदिर राजस्थान के उदयपुर में है। इस मंदिर के निर्माण की कहानी बड़ी ही रोचक है।

सास बहू का मंदिर उदयपुर के प्रसिद्ध ऐतिहासिक और पर्यटन स्थलों में से एक है। बहू का मंदिर, सास के मंदिर से थोड़ा छोटा है। 10वीं सदी में निर्मित सास-बहू का मंदिर अष्टकोणीय आठ नक्काशीदार महिलाओं से सजायी गई छत है। मंदिर की दीवारों को रामायण की विभिन्न घटनाओं के साथ सजाया गया है। मूर्तियों को दो चरणों में इस तरह से व्यवस्थित किया गया है कि वो एक-दूसरे को घेरे रहती हैं।

सास-बहू के इस मंदिर में एक मंच पर त्रिमूर्ति यानी ब्रह्मा, विष्णु और महेश की छवियां खुदी हुई हैं, जबकि दूसरे मंच पर राम, बलराम और परशुराम के चित्र लगे हुए हैं। कहते हैं कि मेवाड़ राजघराने की राजमाता ने यहां भगवान विष्णु का मंदिर और बहू ने शेषनाग के मंदिर का निर्माण कराया था। सास-बहू के द्वारा निर्माण कराए जाने के कारण ही इन मंदिरों को 'सास-बहू के मंदिर' के नाम से पुकारा जाता है।

सास-बहू के इन्हीं मंदिरों के आसपास मेवाड़ राजवंश की स्थापना हुई थी। कहते हैं कि दुर्ग पर जब मुगलों ने कब्जा कर लिया था तो सास-बहू के इस मंदिर को चूने और रेत से भरवाकर बंद करवा दिया गया था। हालांकि बाद में जब अंग्रेजों ने दुर्ग पर कब्जा किया तब फिर से इस मंदिर को खुलवाया गया।

गलगानाथ मंदिर यह कर्नाटक का और एक खूबसूरत मंदिर है जो की उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्यकला में बना हैं । गलगानाथ मंदिर संभाव्यता ईस ग्रुप में सबसे आखिर में बनाया गया हुवा मंदिर है। ये मंदिर उतर भारतीय स्थापत्य कला का नमूना पेश करता है समय के साथ ईस मंदिर के कुछ भाग क्षतिगस्त हो गए हैं। मंदिर में अंधकासुर का वध और पंचतंत्र की कहानिया मंदिर के दीवारों और छतो पर उकेरी गए हैं।

Photo of गलगनाथ टेंपल कॉम्प्लेक्स by Milind Prajapati
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Photo of गलगनाथ टेंपल कॉम्प्लेक्स by Milind Prajapati
Photo of गलगनाथ टेंपल कॉम्प्लेक्स by Milind Prajapati

पट्टदकल बस स्टैंड से 300 मीटर की दूरी पर, मंदिर परिसर के अंदर संगमेश्वर मंदिर से पहले स्थित गलगानाथ मंदिर 8 वीं शताब्दी की शुरुआत में निर्मित एक सुंदर मंदिर है। नागरा शैली में एक बड़े सिखरा के साथ निर्मित, केवल अभयारण्य के चारों ओर अभयारण्य और परिपत्र पथ मौजूद है और अन्यथा एक अद्भुत निर्मित बड़े मंदिर के रंगमंडप और मुखमंडप ध्वस्त हो गए हैं। इसके अलावा, सुकानसी का हिस्सा ध्वस्त हो गया है और परिपत्र पथ में एक पतली छत है। नृत्य द्वार में द्वार के पास भगवान शिव की एक छवि है। अभयारण्य में शिव लिंग है, लेकिन यहां कोई सक्रिय पूजा नहीं की जाती है। अभयारण्य की बाहरी दीवारों में पंचतंत्र से दृश्यों के लघु आंकड़े वाले छह वर्ग बक्से हैं। गोलाकार पथ में दो तरफ बड़ी जाली खिड़कियां हैं। दक्षिणी तरफ खिड़की के बाहरी हिस्से में भगवान शिव की एक खूबसूरत नक्काशीदार बड़ी छवि है जिसमें 8 हाथ एक दानव की हत्या कर रहे हैं।

मंदिर का वास्तुकला तेलंगाना राज्य के आलमपुर में संगमेश्वर मंदिर का समानता है।

लिंगराज मंदिर भारत के ओडिशा प्रांत की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है। यह भुवनेश्वर का मुख्य मन्दिर है तथा इस नगर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। यह भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित है। इसे ययाति केशरी ने 11वीं शताब्दी में बनवाया था। यद्यपि इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 12वीं शताब्दी में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी अधिक पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है।

Photo of लिंगराज मंदिर by Milind Prajapati
Photo of लिंगराज मंदिर by Milind Prajapati
Photo of लिंगराज मंदिर by Milind Prajapati

इस मंदिर का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति केशरी ने ११वीं शताब्दी में करवाया था। उसने तभी अपनी राजधानी को जाजपुर से भुवनेश्वर में स्थानांतरिक किया था। इस स्थान को ब्रह्म पुराण में एकाम्र क्षेत्र बताया गया है। मंदिर का प्रांगण 150 मीटर वर्गाकार का है तथा कलश की ऊँचाई 40 मीटर है।

प्रतिवर्ष अप्रैल महीने में यहाँ रथयात्रा आयोजित होती है। मंदिर के निकट ही स्थित बिंदुसागर सरोवर में भारत के प्रत्येक झरने तथा तालाब का जल संग्रहीत है और उसमें स्नान से पापमोचन होता है।

Photo of सनातन धर्म एवं सभ्यता के कुछ अद्भुत और एतिहासिक प्रतीक ( पार्ट १ ) by Milind Prajapati
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धार्मिक कथा है कि 'लिट्टी' तथा 'वसा' नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिवजी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दुसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है। सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैवसम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है। कहते हैं कि मध्ययुग में यहाँ सात हजार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब लगभग पाँच सौ ही शेष बचे हैं।

लिंगराज मंदिर भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर का केंद्रीय टावर 180 फीट (55 मीटर) लंबा है। मंदिर कलिंग वास्तुकला की सर्वोत्कृष्टता का प्रतिनिधित्व करता है और भुवनेश्वर में स्थापत्य परंपरा के मध्ययुगीन चरणों का समापन करता है।  माना जाता है कि मंदिर सोमवंशी राजवंश के राजाओं द्वारा बनाया गया था , बाद में गंगा शासकों से इसमें शामिल हुए। मंदिर देउला शैली में बनाया गया है जिसमें चार घटक हैं, अर्थात् विमान (गर्भगृह युक्त संरचना), जगमोहन (विधानसभा हॉल), नटमंदिर (त्योहार हॉल) और भोग-मंडप(प्रसाद का हॉल), प्रत्येक अपने पूर्ववर्ती की ऊंचाई में बढ़ रहा है। मंदिर परिसर में 50 अन्य मंदिर हैं और यह एक बड़ी परिसर की दीवार से घिरा हुआ है।

भुवनेश्वर को एकमरा क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि लिंगराज के देवता मूल रूप से एक आम के पेड़ (एकमरा) के नीचे थे, जैसा कि 13 वीं शताब्दी के संस्कृत ग्रंथ एकमरा पुराण में उल्लेख किया गया है। भुवनेश्वर के अधिकांश अन्य मंदिरों के विपरीत, मंदिर पूजा प्रथाओं में सक्रिय है। मंदिर में विष्णु की छवियां हैं, संभवत: गंगा शासकों से निकलने वाले जगन्नाथ संप्रदाय की बढ़ती प्रमुखता के कारण, जिन्होंने 12 वीं शताब्दी में पुरी में जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किया था। मंदिर के केंद्रीय देवता, लिंगराज की पूजा शिव और विष्णु दोनों के रूप में की जाती है। हिंदू धर्म , शैववाद और वैष्णववाद के दो संप्रदायों के बीच सामंजस्य, इस मंदिर में देखा जाता है जहां देवता को हरिहर के रूप में पूजा जाता है, विष्णु और शिव का एक संयुक्त रूप।

लिंगराज मंदिर का रखरखाव मंदिर ट्रस्ट बोर्ड और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा किया जाता है। मंदिर में प्रतिदिन औसतन 6,000 आगंतुक आते हैं और त्योहारों के दौरान लाखों आगंतुक आते हैं। शिवरात्रि त्योहार मंदिर में मनाया जाने वाला प्रमुख त्योहार है और 2012 के दौरान इस आयोजन में 200,000 लोग आए थे। मंदिर परिसर गैर-हिंदुओं के लिए खुला नहीं है, लेकिन दीवार के बगल में एक देखने का मंच है जो मुख्य बाहरी हिस्सों का अच्छा दृश्य पेश करता है। यह मूल रूप से लॉर्ड कर्जन द्वारा वायसराय के दौरे के लिए बनाया गया था ।


नगरपारकर जैन मंदिर पाकिस्तान के दक्षिणी सिंध प्रांत में नगरपारकर के पास के क्षेत्र में स्थित हैं। ये परित्यक्त जैन मंदिरों का समुह है और साथ ही यहा मंदिरों की स्थापत्य शैली से प्रभावित एक मस्जिद भी है। १२वीं से १५वीं शताब्दि में इनका निर्माण हुआ था - एक ऐसी अवधि जब जैन स्थापत्य अपने चरम पर थी। सन् २०१६ में इस पूरे क्षेत्र को विश्व धरोहर स्थलों की ‎अस्थायी सूची में शामिल किया गया।

Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of जैन मंदिर by Milind Prajapati
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इस पूरे क्षेत्र में लगभग १४ जैन मंदिर बिखरे हुए हैं जिनमें प्रमुख कुछ हैं; गोरी मंदिर, बाजार मंदिर, भोड़ेसर मंदिर और वीरवाह जैन मंदिर।

दिलवाड़ा मंदिर या देलवाडा मंदिर, पाँच मंदिरों का एक समूह है। ये राजस्थान के सिरोही जिले के माउंट आबू नगर में स्थित हैं। इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ था। यह शानदार मंदिर जैन धर्म के र्तीथकरों को समर्पित हैं। दिलवाड़ा के मंदिरों में 'विमल वासाही मंदिर' प्रथम र्तीथकर को समर्पित सर्वाधिक प्राचीन है जो 1031 ई. में बना था। बाईसवें र्तीथकर नेमीनाथ को समर्पित 'लुन वासाही मंदिर' भी काफी लोकप्रिय है। यह मंदिर 1231 ई. में वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाईयों द्वारा बनवाया गया था। दिलवाड़ा जैन मंदिर परिसर में पांच मंदिर संगमरमर का है। मंदिरों के लगभग 48 स्तम्भों में नृत्यांगनाओं की आकृतियां बनी हुई हैं। दिलवाड़ा के मंदिर और मूर्तियां मंदिर निर्माण कला का उत्तम उदाहरण हैं।

Photo of देलवाड़ा जैन मंदिर by Milind Prajapati
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Photo of देलवाड़ा जैन मंदिर by Milind Prajapati
Photo of देलवाड़ा जैन मंदिर by Milind Prajapati
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Photo of देलवाड़ा जैन मंदिर by Milind Prajapati
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देलवाड़ा मंदिर का इतिहास

इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के दौरान राजा वास्तुपाल तथा तेजपाल नामक दो भाइयों ने करवाया था। दिलवाड़ा के मंदिरों में ‘विमल वासाही मंदिर’ प्रथम र्तीथकर को समर्पित सर्वाधिक प्राचीन है जो 1031 ई. में बना था।

बाईसवें र्तीथकर नेमीनाथ को समर्पित ‘लुन वासाही मंदिर’ भी काफी लोकप्रिय है। इन मंदिरों की अद्भुत कारीगरी देखने योग्य है। अपने ऐतिहासिक महत्व एवं संगमरमर पत्थरों पर बारीक़ नक्काशी की जादूगरी के लिए पहचाने जाने वाले राज्य के सिरोही जिले के इन विश्वविख्यात मंदिरों में शिल्प-सौन्दर्य का ऐसा बेजोड़ खजाना है जिसे दुनिया में और कहीं नहीं देखा जा सकता।

इस मंदिर में आदिनाथ की मूर्ति की आंखें असली हीरे की बनी है तथा इनके गले में बहुमूल्य रत्नों का हार है। इन मंदिरों में तीर्थंकर के साथ साथ हिंदू देवी देवताओं की प्रतिमाएं भी स्थापित की गई हैं। मंदिरों का एक उत्कृष्ट प्रवेश द्वार है। यहां वास्तुकला की सादगी है जो जैन मूल्यों जैसे ईमानदारी और मितव्ययिता को दर्शाती है।

नई दिल्ली में बना स्वामिनारायण अक्षरधाम मन्दिर एक अनोखा सांस्कृतिक तीर्थ है। इसे ज्योतिर्धर भगवान स्वामिनारायण की पुण्य स्मृति में बनवाया गया है। यह परिसर १०० एकड़ भूमि में फैला हुआ है। दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मन्दिर परिसर होने के नाते २६ दिसम्बर २००७ को यह गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स में शामिल किया गया।

विशेषताएं -

दश द्वार

ये द्वार दसों दिशाओं के प्रतीक हैं, जो कि वैदिक शुभकामनाओं को प्रतिबिंबित करते हैं।

भक्ति द्वार

यह द्वार परंपरागत भारतीय शैली का है। भक्ति एवं उपासना के २०८ स्वरूप भक्ति द्वार में मंडित हैं।

मयूर द्वार

भारत का राष्ट्रीय पक्षी मयूर, अपने सौन्दर्य, संयम और शुचिता के प्रतीक रूप में भगवान को सदा ही प्रिय रहा है। यहां के स्वागत द्वार में परस्पर गुंथे हुए भव्य मयूर तोरण एवं कलामंडित स्तंभों के ८६९ मोर नृत्य कर रहे हैं। यह शिल्पकला की अत्योत्तम कृति है।

अक्षरधाम मन्दिर

अक्षरधाम मन्दिर को गुलाबी, सफेद संगमरमर और बलुआ पत्थरों के मिश्रण से बनाया गया है। इस मंदिर को बनाने में स्टील, लोहे और कंक्रीट का इस्तेमाल नहीं किया गया। मंदिर को बनाने में लगभग पांच साल का समय लगा था। श्री अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण संस्था के प्रमुख स्वामी महाराज के नेतृत्व में इस मंदिर को बनाया गया था। करीब 100 एकड़ भूमि में फैले इस मंदिर को 11 हजार से ज्यादा कारीगरों की मदद से बनाया गया। पूरे मंदिर को पांच प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है। मंदिर में उच्च संरचना में 234 नक्काशीदार खंभे, 9 अलंकृत गुंबदों, 20 शिखर होने के साथ 20,000 मूर्तियां भी शामिल हैं। मंदिर में ऋषियों और संतों की प्रतिमाओं को भी स्थापित किया गया है।

फव्वारा शो

मंदिर में रोजाना शाम को दर्शनीय फव्वारा शो का आयोजन किया जाता है। इस शो में जन्म, मृत्यु चक्र का उल्लेख किया जाता है। फव्वारे में कई कहानियों का बयां किया जाता है। यह मंदिर सोमवार को बंद रहता है। अक्षरधाम मंदिर में 2870 सीढियां बनी हुई हैं। मंदिर में एक कुंड भी है, जिसमें भारत के महान गणितज्ञों की महानता को दर्शाया गया है।

प्रवेश

मंदिर में प्रवेश फ्री है लेकिन अंदर जाने के अलग-अलग चार्ज हैं।

मंदिर में अंदर जाने के लिए कुछ विशेष नियम भी बने हैं। प्रवेश करने के लिए ड्रेस कोड भी बना है। आपके कपड़े कंधे और घुटने तक ढके होने चाहिए। अगर आपने ऐसे कपड़े नहीं पहने हैं तो आप यहां 100 रुपये में कपड़े किराए पर भी ले सकते हैं।

Photo of अक्षरधाम मंदिर, दिल्ली by Milind Prajapati
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कीर्तिमान स्थापित -

अक्षरधाम मन्दिर को दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मन्दिर परिसर होने के नाते गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स में बुधवार, २६ दिसंबर २००७ को शामिल कर लिया गया है।गिनीज बुक ऑफ व‌र्ल्ड रिका‌र्ड्स के एक वरिष्ठ अधिकारी एक सप्ताह पहले भारत की यात्रा पर आए और स्वामी नारायण संस्थान के प्रमुख स्वामी महाराज को विश्व रिकार्ड संबंधी दो प्रमाणपत्र भेंट किए। गिनीज व‌र्ल्ड रिकार्ड की मुख्य प्रबंध समिति के एक वरिष्ठ सदस्य माइकल विटी ने बोछासनवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामी नारायण संस्थान को दो श्रेणियों के तहत प्रमाणपत्र दिए हैं। इनमें एक प्रमाणपत्र एक व्यक्ति विशेष द्वारा सर्वाधिक हिंदू मंदिरों के निर्माण तथा दूसरा दुनिया का सर्वाधिक विशाल हिंदू मन्दिर परिसर की श्रेणी में दिया गया।

सिरपुर (Sirpur) भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के महासमुन्द ज़िले की महासमुन्द तहसील में स्थित एक गाँव है। यह महानदी के किनारे बसा हुआ एक ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल है। यहाँ कई प्राचीन मंदिर हैं।

सिरपुर महानदी के तट स्थित एक पुरातात्विक स्थल है। इस स्थान का प्राचीन नाम श्रीपुर है यह एक विशाल नगर हुआ करता था तथा यह दक्षिण कोशल की राजधानी थी। सोमवंशी नरेशों ने यहाँ पर राम मंदिर और लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया था। ईंटों से बना हुआ प्राचीन लक्ष्मण मंदिर आज भी यहाँ का दर्शनीय स्थान है। उत्खनन में यहाँ पर प्राचीन बौद्ध मठ भी पाये गये हैं। सिरपुर पर सर्वाधिक लेख छत्तीसगढ़ के पुरातात्विक यात्री रमेश कुमार वर्मा लिखे हैं जिसमें इस जगह के मन्दिर का विशेष वर्णन है ।

Photo of लक्ष्मण मंदिर by Milind Prajapati
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छत्तीसगढ़ राज्य हमेशा से ही अपनी जनजातीय संस्कृति के लिए जाना जाता रहा है। लेकिन राज्य में कई ऐसे स्थान हैं जो आज भी मुख्यधारा से कहीं दूर हैं। ऐसा ही एक स्थान है महासमुंद जिले में स्थित सिरपुर, जिसे प्राचीनकाल में श्रीपुर कहा जाता था। पौराणिक भूमि श्रीपुर में कई ऐसे देवस्थानों के अंश मिलते हैं जो कई सदियों पुराने माने जाते हैं। इन्हीं देवस्थानों में से एक है, सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर।

इतिहास में दर्ज कई विनाशकारी आपदाओं को झेलने वाला यह मंदिर भारत का पहला लाल ईंटों से बना मंदिर है। साथ ही प्रेम की निशानी छत्तीसगढ़ के इस मंदिर को नारी के मौन प्रेम का साक्षी माना जाता है।

मंदिर का इतिहास एवं संरचना

सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर का निर्माण सन् 525 से 540 के बीच हुआ। सिरपुर (श्रीपुर) में शैव राजाओं का शासन हुआ करता था। इन्हीं शैव राजाओं में एक थे सोमवंशी राजा हर्षगुप्त। हर्षगुप्त की पत्नी रानी वासटादेवी, वैष्णव संप्रदाय से संबंध रखती थीं, जो मगध नरेश सूर्यवर्मा की बेटी थीं। राजा हर्षगुप्त की मृत्यु के बाद ही रानी ने उनकी याद में इस मंदिर का निर्माण कराया था। यही कारण है कि लक्ष्मण मंदिर को एक हिन्दू मंदिर के साथ नारी के मौन प्रेम का प्रतीक भी माना जाता है।

नागर शैली में बनाया गया यह मंदिर भारत का पहला ऐसा मंदिर माना जाता है, जिसका निर्माण लाल ईंटों से हुआ था। लक्ष्मण मंदिर की विशेषता है कि इस मंदिर में ईंटों पर नक्काशी करके कलाकृतियाँ निर्मित की गई हैं, जो अत्यंत सुन्दर हैं क्योंकि अक्सर पत्थर पर ही ऐसी सुन्दर नक्काशी की जाती है। गर्भगृह, अंतराल और मंडप, मंदिर की संरचना के मुख्य अंग हैं। साथ ही मंदिर का तोरण भी उसकी प्रमुख विशेषता है।

विनाशकारी आपदाओं को झेलने वाला प्रेम का प्रतीक
अक्सर हमें प्रेम के प्रतीक में आगरा के ताजमहल के बारे में ही बताया गया लेकिन एक नारी और पुरुष के वास्तविक प्रेम के प्रतीक सिरपुर के लक्ष्मण मंदिर को हमारी जानकारी से हमेशा दूर रखा गया क्योंकि यह एक हिन्दू मंदिर था। एक रानी का अपने राजा के प्रति प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि उन्होंने एक ऐसे मंदिर का निर्माण कराया, जो कई आपदाओं को झेलने के बाद भी आज उसी स्वरूप में है, जैसे आज से 1,500 वर्ष पहले था।

ऐतिहासिक जानकारियों के अनुसार 12वीं शताब्दी में सिरपुर में आए विनाशकारी भूकंप ने तत्कालीन श्रीपुर का पूरा वैभव छीन लिया था। इस भूकंप में पूरा श्रीपुर नष्ट हो गया था लेकिन यह लक्ष्मण मंदिर अप्रभावित रहा। उसके बाद 14वीं-15वीं शताब्दी के दौरान महानदी की भयानक बाढ़ ने सिरपुर में तबाही मचा दी थी। इन दोनों विनाशकारी आपदाओं के चलते सिरपुर के अनेकों मंदिर और धर्मस्थल तबाह हो गए लेकिन एक पत्नी के निश्छल प्रेम का यह प्रतीक बिना किसी नुकसान के सदियों से भक्ति और श्रद्धा की कहानी कहता आ रहा है।

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