पचार सीकर जिले का एक छोटा सा गांव है। हम पचार में २ दिन के लिए रूके रहे थे। पचार में, हम अपने परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों से मिले और वहीं उनके घर में रहे थे।
वहां मेरी मुलाकात मेरी मासी और चचेरे-ममेरे-मौसेरे-फुफेरे भाईयों से हुई।
१८ फरवरी को, हमने जीन माता जी मंदिर और खाटू श्याम जी मंदिर की यात्रा की थी । यह दोनों मंदिर भी प्राचीन , भव्य और पवित्र धार्मिक स्थलों में से एक है।
जीनमाता भारत के राजस्थान राज्य के सीकर ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह सीकरी से 29 किमी की दूरी पर स्थित है ।
श्री जीन माताजी (शक्ति की देवी) को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है, जो कि सीकर के दक्षिण में स्थित है।
चैत्र के महीने में साल में दो बार आयोजित होने वाले रंगारंग उत्सव के लिए यहां लाखों भक्त इकट्ठा होते हैं।
और अश्विनी नवरात्रि के दौरान। बड़ी संख्या में समायोजित करने के लिए कई धर्मशालाएं हैं, आगंतुकों के लिए है।
जीणमाता मंदिर रेवासा गांव से १० किमी दूर पहाड़ी के पास स्थित है। जीन माताजी का मंदिर है ।
जयपुर से लगभग १०८ किमी. यह घने जंगल से घिरा हुआ है। इसका पूरा नाम जयंती माता था। मंदिर
लगभग १२०० साल पहले बनाया गया था। जीण माताजी का मंदिर कहाँ से तीर्थस्थल था?
प्रारंभिक समय और कई बार मरम्मत और पुनर्निर्माण किया गया था।
जीन माता के मुख्य अनुयायियों में वैश्य (खंडेलवाल) आचार्य, ब्राह्मण, लोहार, यादव / अहीर,
शेखावाटी क्षेत्र के बनिया के साथ राजपूत, खंडेलवाल, अग्रवाल, जांगीर और मीणा। जीनो
माताजी आचार्य (आआआआ) / ब्राह्मण, यादव / अहीर, खंडेलवाल, अग्रवाल की कुलदेवी हैं,
सोनवणे, कासलीवाल, बकलीवाल, मीना, जाट, शेखावाटी राजपूत (शेखाव) और राव राजपूत और शेखावाटी क्षेत्र में रहने वाले अन्य राजपूत) और राजस्थान के जांगीर।
मेरे नानीजी और मासी ने घर से खाना बना कर वहां लेकर गए थे। मंदिर में माता जी के दर्शन होने के उपरांत / दर्शन होने के बाद , हम सब परिवार वासियों ने मंदिर परिसर के बाहर , एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे बैठ कर भोजन के लिए प्रस्थान किया। नानीजी और मासी जी ने अपने हाथों से बनाया हुआ भोजन वाकई में बहुत ही लजीज और स्वादिष्ट था। भोजन में हमने पूरी, आलू-प्याज कि सब्जी, हरी मिर्च का ठेचा , मिठे गुलगुले और मट्ठे का लुत्फ उठाया।
जीन माता जी के दर्शन करने के बाद हम लोग श्री खाटू श्याम जी के दरबार के लिए रवाना हो गए ।
सीकर जिले का अन्य प्रसिद्ध मंदिर खाटू श्याम जी छब्बीस किलोमीटर की दूरी पर है।
खाटूश्याम मंदिर राजस्थान के सीकर जिला मे खाटूश्यामजी गांव में एक हिंदू मंदिर है।
यह देवता कृष्ण और बर्बरीक की पूजा के लिए एक तीर्थ स्थल है, जिन्हें अक्सर कुलदेवता के रूप में पूजा जाता है।
भक्तों का मानना है कि मंदिर में बर्बरीक या खाटूश्याम का मुखिया है, जो एक पौराणिक कथा है।
योद्धा जो कुरुक्षेत्र के एंटेबेलम युद्ध के दौरान कृष्ण के अनुरोध पर अपना सिर बलिदान करता है।
महाभारत युद्ध की शुरुआत से पहले, बर्बरीक की अंतिम इच्छा युद्ध देखने की थी।
"महाभारत" इसलिए भगवान कृष्ण ने स्वयं बर्बरीक को देखने के लिए एक पहाड़ की चोटी पर अपना सिर रखा
युद्ध। कलियुग शुरू होने के कई साल बाद खाटू (जिला-
सीकर) वर्तमान राजस्थान में। कलियुग की अवधि शुरू होने के बाद तक यह स्थान अस्पष्ट था।
फिर, एक अवसर पर, गाय के थन के पास दफन स्थान से दूध अपने आप बहने लगा ।
इस घटना से चकित स्थानीय ग्रामीणों ने उस जगह को खोद डाला और सिर दफना दिया, प्रकट किया। सिर एक ब्राह्मण को सौंप दिया गया, जिसने कई दिनों तक इसकी पूजा की, परमात्मा की प्रतीक्षा में आगे क्या किया जाना है, इसका खुलासा खाटू के राजा रूपसिंह चौहान ने तब एक स्वप्न देखा था।
जहां उन्हें एक मंदिर बनाने और उसमें सिर स्थापित करने के लिए प्रेरित किया गया था। इसके बाद, एक मंदिर बनाया गया था और मूर्ति को फाल्गुन महीने के शुक्ल पक्ष (उज्ज्वल आधा) के ११ वें दिन स्थापित किया गया था।
इस किंवदंती का एक और, केवल थोड़ा अलग संस्करण है। रूपसिंह चौहान का शासक था, खाटू। उनकी पत्नी नर्मदा कंवर ने एक बार एक सपना देखा था जिसमें देवता ने उन्हें पृथ्वी से बाहर उनकी छवि लेने का निर्देश दिया था।
इस संकेतित स्थान (अब श्याम कुंड के रूप में जाना जाता है) को तब खोदा गया था। निश्चित रूप से, यह
मूर्ति को प्राप्त किया, जिसे मंदिर में विधिवत स्थापित किया गया था।
मूल मंदिर का निर्माण 1027 ई. में रूपसिंह चौहान ने अपनी पत्नी नर्मदा कंवर के दर्शन के बाद करवाया था।
दफन मूर्ति के बारे में सपना। जिस स्थान से मूर्ति को खोदा गया था उसे श्याम कुंड कहा जाता है। में
1720 ई., दीवान अभयसिंह के नाम से जाने जाने वाले एक रईस ने किसके कहने पर पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार किया।
फिर मारवाड़ के शासक। इस समय मंदिर ने अपना वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति को प्रतिष्ठित किया गया
गर्भगृह. मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बनी है। खाटूश्याम कई परिवारों के कुल देवता हैं।
एक अन्य मंदिर लंभा, अहमदाबाद, गुजरात में स्थित है। लोग अपने नवजात बच्चों को लेकर आते हैं।
खाटूश्याम का आशीर्वाद प्राप्त करें। यहां उन्हें बलिया देव के नाम से जाना जाता है।
जीन माता और खाटू श्याम जी के दर्शन कर हम फिर से पचार चले गए और वहां २० फरवरी को मामा के घर से भोजन कर हम भीलपुरा, सिरसली, राजारामपुरा गए थे , मेरी माँ के बुआजी और काकाजी से मिलने के लिए। राजारामपुरा में मेरा दादा-दादी का घर भी था। वहां जाने के बहाने दादाजी -दादीजी से भी मुलाकात हो गई और उनके दर्शन भी प्राप्त हो गए। राजस्थान में हमारे रिश्तेदारों के घर बहुत बड़े और आलीशान थे। हमारे खुद के घर से भी ज्यादा खुबसूरत थे।
हम २० फरवरी कि रात को मां कि सबसे छोटी बुआजी के घर और भीलपुरा गांव में पहुंच गए थे। रातभर सबने मिलकर खुब बातें कि और सबसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।
मां कि बुआजी याने कि मेरी नानीजी का घर बहुत ही बड़ा और आलीशान था। राजस्थान में हमारे सभी रिश्तेदारों के घर और जमीन दोनों करोड़ों के भाव ( मोल ) कि थी।
नानीजी के घर के बाहर का आगे का आंगन इतना बड़ा था कि उसमें दो घर बांधे जा सकते थे।
सुबह जल्दी उठकर हम सिरसली जाने के लिए निकल ही रहे थे, तभी नानीजी ने आ कर हमें रोक लिया और कहने लगे - " कहा जा रहे हो आप सब, अभी तो आपको और हफ्ते भर के लिए यहां से जाना नहीं है।
हमने राजस्थान यात्रा भाड़े कि गाड़ी लाई हुई थी। बहुत समझाने और मनाने के बाद बड़ी मुश्किल से नानीजी हमें जाने देने के लिए मान गई । और अब हम मम्मी के काकाजी के यहां सिरसली जाने के लिए रवाना हो गए।
अगले दिन सुबह , हम सब लोग बुआ जी और बाकी परिवार वालों से मिलकर अब हम मम्मी के काकाजी के यहां सिरसली जाने के लिए रवाना हो गए।
मां के काकाजी बहुत बड़े ठेकेदार थे। उनके हाथ के नीचे ४०० मजदूर काम करते थे और अपना पेट भरते थे।
मेरे यह नानाजी पत्थर तोड एक्सपर्ट भी थे।
उनके मकान के पीछे , उनकी खुद कि तीन दुकानें थीं।
हमारे हर रिश्तेदारों कि तरह इन्होंने भी गाय, बकरी और भैंस पाल रखे थे। इसलिए हम जहां पर भी, कसी भी रिश्तेदार के घर जाते थे, तो वहां दुध से बने पदार्थ ( व्यंजन ) कि कोई कमी नहीं थी। वह लो राज सुबह और शाम दुध निकाकर आधा खुद के इस्तेमाल के लिए , घर में रखते थे और आधा दुधवाले को बेच दिया करते थे।
सभी रिश्तेदारों के यहां हमने बहुत चाय पी थी और हमे पिलाई गई थी। पर सबसे ज्यादा चाय हमे ठेकेदार साहब (मम्मी के काकाजी ) के यहां पिलाई गई थी और वो भी तीन घंटे में पंधरा कप चाय । उन्होंने भोजन के लिए बहुत आग्रह किया था , पर हमने मना कर दिया । फिर उन्होंने अपने हाथों से हमारे लिए प्याज - लहसुन के पकोड़े बनाए थे।
काकाजी से मिलकर , पुरानी यादें ताजा कर और पकोड़ी खाने के बाद हम राजारामपुरा के लिए आगे बढ़ रहे थे।
राजारामपुरा में हम हमारे दादाजी-दादीजी , मां कि बड़ी बुआ और मजली बुआ से मिले। सबसे पहले हम मां कि बड़ी बुआ जी के यहां गए थे। मां के फुफाजी , एक जमाने में ( एक वक्त में ) राजारामपुरा गांव के सरपंच थे। वह आज ९० साल के हो चुके है और खास बात यह है कि वह अभी भी पहले कि तरह चुस्त दुरुस्त और तंदुरुस्त से ।
इतनी उम्र होने के बावजूद , वह इतना बढ़िया नाचते हैं कि पूरे राजस्थान में कोई आदमी उनकी बराबरी नहीं कर सकते हैं।
फुफाजी हमें उनके यहां से जाने ही नहीं दे रहे थे। रात हो चुकी थी और फिर मां ने फुफाजी को समझाया और कहा कि हम कल सुबह फिर आपसे मिलने आएंगे और तब उन्होंने हमें वहां से जाने कि अनुमति दी थी।
रात को हम मां कि मजली बुआ ( संतु बुआ ) के घर पर रूके । संतु बुआ का घर देख कर नानाजी बहुत खुश हो गए थे। उन्होंने हमसे कहा कि वह बुआ पहले बहुत ही गरीब थी और झोपड़ी में रहती थी। मजली बुआ के तीन बेटे थे और एक बेटी थी। बड़ा बेटा अलग रहता था और उसकी गांव में खुद कि एक ओटो गराज थी। बाकी दो छोटे भाई मां के पास रहते थे। बुआ का मजला बेटा फुफाजी के साथ काम करता था। फुफाजी रसोई का काम करते थे। शादियों और पार्टीयो में खाना बनाने के लिए बड़े बड़े लोग फुफाजी को बुलाया करते थे। फुफाजी का सबसे छोटा बेटा दलाली ( इस्टेट ब्रोकर ) का काम करता था। बुआ कि बेटी और दामाद दोनों जयपुर में पोलीस थे।