क्या कचौड़ी का नाम सुन के आप के मुँह में भी पानी आ जाता है तो एक बार जरूर पढ़ें

Tripoto
18th Jan 2022
Day 1

#kachori

#कचौड़ी

भारतीयों को हमेशा से ही कुछ चटपटा और तीखा खाना बहुत पसंद है.और इसलिए हर गली चौराहा में वहां के किसी न किसी फ़ेमस स्ट्रीट फ़ूड का लुत्फ़ उठाते लोग दिखाई दे जाएंगे. भारतीयों का ऐसा ही एक फ़ेवरेट स्ट्रीट फ़ूड है कचौड़ी, जो नाश्ते में काफी लोकप्रिय हैं। जिसमे कचौरियां भी कई प्रकार की होती हैं जैसे दाल ,प्याज़ ,मावा ,सूखे मेवे आदि आदि ( इसके अलावा अगर आपने कोई और भी तरह की  कचोरी खाई हो तो हमे जरूर बताए )  , जिसे देश के कोने-कोने में बड़े ही चाव से खाया जाता है. वैसे तो कचौरी मुख्य रूप से उड़द की दाल की भरावन से ही बनती है मगर छिलका मूंग और धुली मूंगदाल से भी ज़ायकेदार कचौरियां बनती हैं और कचौड़ी की ही एक रिश्तेदार है पूरी,  वैसे कचौरी और पूरी में फर्क है और वो है कि पूरी को बेला जाता है जबकि कचोरी को बेला नहीं जाता बल्कि लोई में मसाला भर कर उसे हाथ से आकार दिया जाता है।

अगर बात करे कि कचौरी शब्द बना कैसे है तो ये 2 शब्दो को मिला कर आया , कच+पूरिका । जिसमे शायद क्रम कुछ ऐसा रहा होगा - कचपूरिका > कचपूरिआ > कचउरिआ > कचौरी जिसे कई लोग कचौड़ी भी कहते हैं।

संस्कृत में कच का अर्थ होता है बंधन, या बांधना। दरअसल प्राचीनकाल में कचौरी पूरी की आकृति की न बन कर मोदक के आकार की बनती थी या आम भाषा मे बोले यो पोटली के आकार की होती थी जिसमें खूब सारा मसाला भर कर उपर से लोई को लपेट कर बांध दिया जाता था। इसीलिए इसे कचपूरिका कहा गया। मध्यप्रदेश के मालवान्तर्गत आने वाले सीहोर में आज भी मोदक के आकार की ही लौंग के स्वाद वाली कचौरियां बनती हैं जो इसके कचपूरिका नाम को सार्थक करती हैं। ( अगर आपने ने कभी सीहोर की मोदक कचौड़ी खाई हो तो कमेंट कर के हमे जरूर बताये )

बात करे सिर्फ पूरी कि, तो पूरिका शब्द में स्वयं ही भरावन का भाव आ रहा है और सामान्यतः उत्तर भारत में घरों में बनने वाली पूरियां भी दाल के बहुत हल्के भरावन से ही बनती है जिन्हें बेडेमी या कचौरी भी कहते हैं। जो कि ख़ास तौर से उत्तरप्रदेश में ज्यादा खाई जाती है | और अगर कचौरी के आकार को अगर देखें तो यह पूरी की ही तरह से फूली हुई होती है अलबत्ता इनका आकार अलग अलग हो सकता है तथा कचोरी के मैदे में खूब मोहन डाला जाता है ताकि यह खस्ता बन सके। कचौरियां जितनी खस्ता होंगी उतनी ही ज़ायकेदार होगी और उतने ही लंबे समय तक खराब नही होगी ।

अब अगर बात करे कचौड़ी की इतिहास की तो कचौड़ी का इतिहास सदियों पुराना है. इसका इतिहास जुड़ा है राजस्थान के मारवाड़ियों से ।  वैसे तो इसके कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं, लेकिन अधिकतर लोगों का यही मानना है कि इसकी खोज मारवाड़ यानी राजस्थान में ही हुई थी

इसकी एक वजह कचौड़ी को बनाए जाने का तरीका है. मारवाड़ी लोग सीमित संसाधनों में भी गज़ब का खाना  बनाने में माहिर होते हैं. इसलिए उन्होंने ही धनिया, हल्दी, सौंफ आदि से इसे बनाना शुरू किया था. इन तीनों मसालों को ठंडे मसाले में वर्गीकृत किया जाता है. ये मसाले हमारे शरीर को इस क्षेत्र के मौसम की मार से बचाने में सक्षम माने जाते हैं.और यह बात भी सबको मालूम है राजस्थान एक गर्म प्रदेश है ।

दूसरा एक अन्य व्युत्पत्ति के अनुसार तमिल भाषा में दाल को कच कहते हैं इस तरह कच+पूरिका से बनी कचौरी। वैसे देखा जाए तो तमिल में दाल के लिए अगर कच शब्द है तो दक्षिण भारत में भी कचौरी बहुत लोकप्रिय होनी चाहिए पर ऐसा नही है , इसे हम उत्तर भारतीय पदार्थ के रूप में ही जानते हैं।

तो अब हमारा भी यही मानना है कि कचौड़ी या कचौरी भारतीयों और ख़ास कर के राजस्थान के मारवाड़ियों की देन है और कचौरी को पूरे देश मे पहुँचाने का काम व्यापारियों ने किया क्योंकि प्राचीन व्यापार मार्ग मारवाड़ से होकर देश के बाकी हिस्सों में जाता था. इसलिए वहां के बाज़ारों से निकलकर ये व्यापारियों के माध्य्म से पूरे देश में फैल गई. और फिर इसका स्वाद लोगों की ज़ुबां पर ऐसा चढ़ा की आज बहुत से शहरों में लोग सुबह की सेर के बहाने कचौड़ी का आनंद लेने निकल जाते है ( राजस्थान का अलवर शहर जहाँ सुबह 5 बजे से हर चौराहों पर गर्म गर्म कचौड़ी का नाश्ता करते मॉर्निंग वॉक के बहाने निकले लोग मिल जायेंगे )

Photo of Alwar by Pankaj Sharma
Photo of Alwar by Pankaj Sharma

Further Reads