हम्पी की यात्रा लंबे समय से मेरी बकेटलिस्ट में प्रलंबित थी। जब भी मैं हम्पी के बारे में दूसरों के यात्रावर्णन पढ़ती या सोशल मीडिया पे तस्वीरे देखती , तो मेरे अन्दर की घुमक्कड़ मुलगी जाग जाती । शादी के बाद, जब मैंने अपने पति समीर को अपनी इच्छा के बारे में बताया, तो उन्होंने भी तुरंत दिलचस्पी दिखाई। मेरे पति ने पहल करते हुए इतवार को जोड़ दो दिन की छुट्टी ले ली। तब मैं गोवा में पोस्टेड थी और मेरे पति मुंबई थे। हम सफर की शुरुवात एकसाथ गोवा से करने वाले थे। हमारी कार मुंबई थी और गोवामे मेरे पास केवल स्कूटर थी। हमने गोवा से बाइक या कार किराए पर लेने की सोची, पर गोवा के टूरिस्ट वाहन गोवा से बाहर ले जाने की अनुमति न होने के कारण, हम दूसरे विकल्प ढूंढ़ने मजबूर हो गए। बहुत सारे संशोधन के बाद, मुझे एक कर्नाटक राज्य सरकार की "पणजी- हम्पी" बस सेवा के बारे में जानकारी मिली। वह बस सप्ताह में एक बार केवल रविवार को रात ८ बजे चलती थी।
हमने बस से जाना निश्चित किया l पति की "मुंबई से गोवा" ट्रेन और हम दोनो की "पणजी से हंपी" बस की टिकिटे बन गई, लेकिन मेरे छुट्टी की अब भी कोई गारंटी नहीं थी, क्योंकि मेरे एच आर मैनेजर मुझे उसी वक्त दूसरे ब्रांच की ऑडिट में सहाय्यता हेतु भेजने की योजना कर रहे थे। पर मैने भी कुछ जोड़ जुगाड़ करने की ठान ली।
निश्चित दिन पर पति मुंबई से गोवा सुबह पहुंच गए । मैं पणजी से काफी दूर कानकोना पोस्टेड थी। वहा से पणजी जाने के लिए बस से तीन घंटे लगते है। जब हम कान कोना से पणजी के लिए बस से निकले, तो रास्ते में बहुत सारा ट्रैफिक जाम लग गया, तभी ऐसा लग रहा था के हम्पी की बस अब छूट ही जायेगी और सारा नियोजन धरा का धरा रह जाएगा। जैसे ही हम पणजी पहुंचे, हम्पी की बस के लिए भाग पड़े। भगवान की कृपा से बस नही छूटी थी। हम काफी खुश हुए। सामान बस में रख दिया। बसवालेने हमारे नाम के आगे टिकिंग की। बस छूटने को दस मिनिट बाकी थे, इस लिए खाने पीने का सामान खरीदने हम नीचे उतरे। वापस आके देखा तो बस निकल चुकी थी; वो भी निर्धारित समय से कुछ चंद मिनटों पहले।
हमारे पैरो से मानो जैसे जमीन खिसक गई। मुझे तो बस अब रोना आना बाकी था, इतनी मुश्किलें जो आ रही थी। तभी आसपास के लोगोनें बस ड्राइवर को फोन लगाने की सलाह दी। समीर ने तुरंत फोन मिलाया, ड्राइवर ने बताया के ट्रैफिक के कारण बस ज्यादा आगे नहीं निकली है, आप जल्दी से आ जाओ। तभी हमारे जान में जान आ गई। वैसे ही हम गोवा की सडको पे, फिल्मी स्टाइल में कारो के बीच ७०० - ८०० मीटर तक भागते गए। एक चौराहे पे बस खड़ी दिखी, जैसे ही अंदर घुसे सांस में सांस आ गई।
दिनभरी की इतनी सारी मुश्कीले, मशक्कते और आपदाओको पार करने के बाद आखिरकार हम अपनी यात्रा के लिए निकल पड़े। सच में आखरी पल तक ऐसा लग रहा था के घर लौटना पड़ेगा, पर सारी परीक्षाएं हमने पास करली थी और अब अगले दो दिन सारी चिंताएं साइड कर सिर्फ एन्जॉय करना था। भागदौड़ी के कारण नॉन एसी बस होते हुए भी हमे गहरी नींद लग गई।
जब हम सुबह जागे तो हम कर्नाटका थे, रास्ते में जगह-जगह पत्थरोंकी संरचनाएं देख मैं रोमांचित हो उठी। हम अपनी मंजिल के बहुत पास है इस बात का वो संकेत था। होसपेट के बस अड्डे के बाद हमारी बस सीधे हम्पी बाजार में रुकी। यह कोई आम बाजार नही है। यह है हम्पी का प्राचीन बाजार। यहां हम चारो ओर पत्थरोसे बने प्राचीन वास्तुओके अवशेषों से घिरे हुए थे। वह अति दुर्लभ नजारा देख मैं खुशी से फुल उठी।
तुंगभद्रा नदी के पात्र ने हम्पी को दो भाग में विभाजित किया है। एक को कहते है हिप्पी आइलैंड और दूसरे को विरुपक्ष मंदिर क्षेत्र। नाम के अनुसार ज्यादा तर विदेशी यात्री हिप्पी आइलैंड पे ही बसे हुए है और वहा गोवा की वाइब्स महसूस होती है। बस अड्डा विरुपक्ष मंदिर क्षेत्र के परिसर में आता है।
विरुपक्ष मंदिर क्षेत्र से हिप्पी आइलैंड तक पहुंचने के लिए निजी मोटरबोट सेवा चलती है जो प्रति व्यक्ति लगभग ३०/- रुपये चार्ज करती है। इस तट से उस तट तक का अंतर महज २०० मीटर ही होगा, इस लिए मेरे मन में ख्याल आया अगर यहा पुल ही बांध देते तो बहतर रहता । नदी का पात्र बहुत गहरा होने के कारण उसे यूंही कोई पार भी नही कर सकता।
मैने यहां पे पहले से ही एक प्रसिद्ध गेस्ट हाउस में बुकिंग कर रखी थी, पर "पे लेटर" का विकल्प चुनने के कारण ऐन वक्त पर उन लोगों ने बुकिंग कैंसल कर दी। जिसके कारण हमे वहा जाकर रहने के लिए गेस्ट हाउस ढूंढना पड़ा । कुछ प्रसिद्ध गेस्टहाउस पूरी तरह से भरे हुए थे। अंत में, हमें गौतमी गेस्टहाउस में एक कमरा मिल गया । कमरा साधारण सा था लेकिन साफ सुथरा था। हम्पी में आप रूम सर्विस वाले बड़े होटलों की उम्मीद नहीं कर सकते। यहां आपको बुनियादी सुविधाओं वाले गेस्टहाउस ही मिलते हैं। सभी गेस्टहाउस में खाने पीने की व्यवस्था हैं, जहा भारतीय से लेकर कॉन्टिनेंटल खाना भी परोसा जाता है। यहां की विशेषता यह है की सभी रेस्टरों में भारतीय पद्धतिसे नीचे बैठनेकी व्यवस्था है। जहा आरामसे गद्दों पे बैठके खाना खाया जा सकता है।
हिप्पी आइलैंड उतरते ही हमने ३००/ - रुपए प्रति दिन के हिसाब से दो दिन के लिए स्कूटी ले ली। पर बादमें पता चला के मुख्य स्थापत्यविशेष तो नदी के दूसरे तट पर है, जहा स्कूटर लेके नही जा सकते। रूम की व्यवस्था करने के बाद फ्रेश होकर हम नदी के उस पार गए। बस से उतरते ही रिक्शा वाले साइट सीइंग का पैंपलेट लेके हमारे पीछे पड़े थे। समीर ने समझदारी से उनमें से एक का नंबर लेके रखा था। वह विकल्प बड़ा ही किफायती निकला । हमने लगभग सभी मुख्य पर्यटक आकर्षण देख लिए जैसे विट्ठल मंदिर (जिसमें प्रसिद्ध रथ मंदिर शामिल है, जिसे ५०/ - रुपये के नए नोट पर चित्रित किया गया है ), नरसिंह प्रतिमा, रानियोंका स्नानगृह , कमल महल, और अन्य अवशेष। दो दिन की छुट्टी में पूरा हम्पी देखना वास्तव में संभव नहीं है। पर मैने यहाँ जी भर के तस्वीरें ली। हम्पी का को मनोहर सूर्यास्त देखने के बाद संतुष्ट होकर हम अपने कमरे में लौट आए।
शाम को वहा पे गोवा के बीच जैसा माहौल हो रखा था, हमने किसी बढ़िया रेस्टोरेंट में खाना खाने की सोची और स्कूटर लेके चल निकले । एक बढ़िया रेस्टोरेंट देख हम वहा खाना खाने गए। रेस्टोरेंट विदेशी सैलानियों से भरा पड़ा था। संगीत, लजीज खाना, बैठनेकी उत्तम व्यवस्था और रेस्टोरेंट की सजावट यह सब मिलके एक समा बन गया था। समीर और मेरी वह एक यादगार शाम थी। जब हम कमरे में सोने के लिए वापस लौटे तो रात के दो बज चुके थे ।
अगले दिन, हमने सोचा के स्कूटी से जितना होगा हम्पी की ये साइड ( हिप्पी आइलैंड) भी एक्सप्लोर करेंगे, उसके अनुसार हम ने शुरुवात की हनुमान पर्वत से, यह भगवान हनुमान का जन्मस्थान माना जाता है जिसका पौराणिक नाम किष्किंधा नगरी है। ५०० सीढ़ियाँ चढ़ के हम पहाड़ी की चोटी पर पहुंचे। वास्तव में हम सूर्योदय देखने गए थे, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। पर फिर भी यहां से हम्पी का वह बेहद खूबसूरत नजारा दिख रहा था जो आंखों के लिए किसी उपहार से कम न था - विजय नगर साम्राज्य के भग्नावशेष, हरे भरे लंबे चावल के खेत , गन्ने के खेत और चमत्कारी पत्थर के पहाड़ों से घिरी नदी तुंगभद्रा, बहुत ही मनोहर दृश्य । उसके बाद हमने अनगुंडी गांव में बसे राजमहल के अवशेष, पम्पा सरोवर और एक बांध को भेट दी। यहां हमने बड़े टोकरी जैसे दिखने वाली कोरेकल बोट की भी सवारी की। अंत में तुंगभद्रा नदी से निकले एक नहर के ठंडे पानी में पैर भिगोये रख, हम काफ़ी वक्त तक बैठे रहे।
समीर यहां स्थित दर्जी भालू अभयारण्य में जाने को इच्छुक था,जो हम्पी से लगभग ३५ किमी दूरी पे था । तो वहा तक हम रिक्शा से गए। रिक्शा वाले से वापस हम्पी बस अड्डे पे छोड़नेकी बात की। यहां एक मचान पे चढ़ वन्य जीव प्रेमी सैलानी अपनी निजी दूरबीन से दूर दराज के भालूओको निहार रहे थे। हमारे पास दूरबीन न देख एक वृद्ध महिला ने हमे कुछ वक्त के लिए दूरबीन दी। समीर का भाग्य बहुत अच्छा था जो उसे दूरबीन में भालू के साथ साथ एक बाघ भी देखने मिला। वापसी की यात्रा में खरगोश , मोर ऐसे अन्य वन्यजीव देखने मिले तो उसका तो दिन बन गयाl
रास्ते में मैंगो ट्री रेस्तरां में हम्पी का आखरी भोजन करने के बाद हम अपने आखरी पड़ाव याने हम्पी बस अड्डे के लिए निकल पड़े। अंधेरा हो गया था ,माहौल काफी डरावना लग रहा था, मैने न रहकर रिक्शावाले से पूछा के आपने यहां कभी भूत देखे है? तो उसने कहा के अक्सर दिखते है, हम लोगोके लिए यह आम बात है, कहकर वो बड़े ही चाव से कहानियां सुनाने लगा। लेकिन बस का वक्त हो चला था, उसकी चिंता के चलते उसकी कहानियां दिलचस्प होते हुए भी, मैने उसे चुप होकर गति पे लक्ष केंद्रित करने को कहा। इस बार भी बड़ी मुश्किल से बस मिली, कुछ क्षणोकी देरी हो जाती तो बस छूट जाती, पर इस बार फिर से मेरे पतिने समझदारी दिखाते हुए बस ड्राइवर से बात कर ली थी। इस बार भी जैसे बाल बाल बच गए।
इस तरह हड़बड़ी में बनी हमारी हम्पी यात्रा यहां समाप्त हो गई। पर बहुत मजा आया। यहां फिर कभी फुरसत से आने की गांठ बांध हमने उस सुनहरे प्राचीन शहर की राजधानी को अलविदा कहा।