क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप बिना किसी तैयारी के अचानक ट्रेक पर चले गए ,कुछ दो तीन पहाड़ क्रॉस कर उस क्षेत्र की सबसे ऊँची चोटी पर पहुंच गए।अब ऊपर पहुंचने पर अँधेरा होने आया,आप कुछ घंटे गलत दिशा मे चले गए और रास्ता भी भटक गए,ना आपके पास टेंट ,ना कोई गर्म कपड़े ,ना वापस रास्ता दिखाने के लिए कोई गाइड, साथ मे कुछ पहली बार ट्रेक कर रहे ट्रैक्कर्स और अब आपको लग गया कि भाई आज रात तो यही ऊपर ही किसी चट्टान के निचे बैठकर दुबककर निकालनी हैं......... ऊपर से यह क्षेत्र तो अभ्यारण्य है ,कोई जंगली जानवर आ गया तो।
अगर कभी आप ऐसे किसी ट्रेक पर या जंगल मे फंसे हो तो आप अपनी उस यादगार घटना को यहा निचे कमेंट सेक्शन मे जरूर शेयर करियेगा।मेरे साथ भी ऐसा कुछ हो जाता पर शुक्र है सही समय पर हमने सही डिसीजन ले लिया था और फंसते हुए बच गए।वैसे अगर फंस भी जाता तो आज लिखने को और भी काफी कुछ मिल जाता। आगे बढ़ते है -
चलो इस बार मे आपको ले चलता हूँ ,राजस्थान के राजसमंद जिले के देवगढ़ क्षेत्र के पास स्थित गोरमघाट की पहाड़ियों पर।सबसे पहले तो इस जगह के बारे मे आपको संक्षिप्त मे बता देता हु।उदयपुर से 150 किमी और मेरे गृहनगर भीलवाड़ा से 100 किमी दूर स्थित यह घाटी ,अरावली श्रेणी के जंगलो मे'रावली टाड अभ्यारण ' क्षेत्र मे स्थित हैं। चारो ओर घने हरे भरे जंगलो से आच्छादित इस क्षेत्र मे मानसून मे कई पर्यटक यहां पिकनिक मनाने आते हैं।
यहा आकर लोग करीब 50 फ़ीट ऊँचे ,गोवा के ' दूधसागर वॉटरफॉल ' के जैसे दिखने वाले 'जोगमंडी झरने' मे नहाते हैं,350 फ़ीट गहरी खाई पर बनी रेलवे लाइन पर पैदल ट्रेक करते हैं।
यहां की एक विशेषता हैं कि अगर आपको यहां पहुंचना हैं तो पुरे दिन मे सुबह जल्दी केवल एक ही ट्रैन इस ट्रेक पर चलती हैं जो कुछ मिनट यहां रूककर यात्रियों को उतार कर शाम को वापस आती हैं। इस इकलौती ट्रैन के अलावा यहां आने जाने का कोई साधन नहीं हैं और हां इस ट्रैन मे डिब्बे होते है केवल सात । यह ट्रैन2 -3 रेलवे टनल से होती हुई सर्पिलाकार पटरीयो पर से गुजरती हुई यहां के खतरनाक जंगलो के दर्शन करवाती हैं।यह रेलवे ट्रेक राजस्थान का इकलौता ट्रैन ट्रेक है जो कि ब्रिटिशकालीन समय मे बना हुआ हैं। सुना है कि जंगल के बीच मे ही गोरमघाट रेलवे स्टेशन है जहा यात्री सुबह उतरते है और शाम को यही से वापस जाने को चढ़ते हैं।
इधर मेरी बात करू तो इस मंगलवार रात को अचानक हम कुछ दोस्तों और छोटे भाईयों का प्लान बना कि अगली सुबह यानी बुधवार को कही पिकनिक पर चल आते हैं। काफी देर सोच विचार के बाद गोरम घाट जाने का हमने विचार बनाया तो पता लगा कि वो इकलौती ट्रैन तो अभी बंद है और इस समय वहा कोई झरने वगैरह भी नहीं मिलेंगे। मिलेगा तो सिर्फ कपकपाती ठंड ,सूनापन और कुछ जंगली जानवर। मेने सुना था कुछ लोग ट्रैन से जाने की बजाय जंगल की पगडंडियों मे से रास्ता बनाकर पैदल भी यहा पहुंचे हुए हैं ,तो बस मेने सोच लिया कि अब यहां पैदल ही जाना हैं। साथ वाले चार दोस्त तो पहली बार किसी पैदल ट्रेक पर जा रहे थे। साथ वाले दोस्त ने वहा के नजदीक गांव के किसी परिचित से पैदल ट्रेक की सम्भावना है या नहीं ,यह बात कन्फर्म भी कर ली।हमे पता चला की कोई पहाड़ी को चढ़कर हमे ट्रेक नहीं करना हैं ,हमे केवल कुछ किलोमीटर का ही पैदल ट्रेक करना होगा ,और कई जगह उस रेलवे पटरी पर जो कि350 फ़ीट गहरी खाई पर स्थित है,जिसके दोनों और कुछ भी नहीं हैं। ट्रेक भी आसान ही बताया गया था।
अगले दिन सुबह जल्दी हम जल्दी भीलवाड़ा से रवाना होकर दो घंटे मे देवगढ़ पहुंचे ,जहा लोकल लोगो से बातचीत कर हमने गोरमघाट पेदल ट्रेक के लिए रास्ता पूछा। हमे कुछ किलोमीटर दूर एक गांव का रास्ता बताया जहा से आगे हमे कुछ टूटे फूटे रास्तों पर गाडी चलकर,गाडी को वही जंगल मे छोड़कर ट्रेक करना होगा। हम बताये अनुसार आगे गए ,अंतिम गांव को क्रॉस कर जंगल मे गाडी ले गए ,लेकिन खाई और टूटे फूटे व जुगाड़ वाले रास्तो को एवं जंगल के सूनेपन को देख मुझे गाड़ी की सेफ्टी की फ़िक्र हुई। हम फिर पिछले गांव गए वहा के लोगो के बताये अनुसार वहा के एक विश्वसनीय सरकारी पीटीआई सर के घर मे हमने गाडी खड़ी कर दी।यही से अब हमे पैदल निकलना था आगे। हमे गांव वालो ने बताया कि आगे खाने और पीने को कुछ भी नहीं मिलेगा। तो हमने हमारे साथ पानी की तीन चार बॉटल्स पीटीआई सर के घर से भर ली कुछ स्नैक्स एवं बिस्किट रख लिए।हम पांचो वर्तमान मे शास्त्रीय संगीत के छात्र भी हैं तो हम साथ मे म्यूजिक इंस्टूमेंट,ब्लूटूथ स्पीकर ,माइक भी गाडी मे ले आये थे सोचा कि जंगल मे ट्रेक कर के कही अच्छी जगह गाएंगे-बजायेंगे। लेकिन गांव वालो के मना करने पर हम केवल गिटार साथ ले गए।
सीताफल(custard apple)और बेर के पेड़ों के बीच मे से गुजरते हुए हम आगे जंगल मे प्रवेश कर गए। कुछ एकाध किलोमीटर आगे जाने पर हमे एक बड़े मैदान से करीब चार पांच किलोमीटर दूर ,एक खाई से हज़ारो फ़ीट परे 4 -5 छोटे छोटे पहाड़ो से घिरा हुआ एक सबसे ऊँचा पहाड़ दिखा जिस पर एक मंदिर हमे दिख रहा था।वही कुछ चरवाहे हमे मिले जो की अपनी बकरिया ले कर जा रहे थे ,उन्होंने हमे जंगल की तरफ एक पगडण्डी जाती हुई बताई और बताया कि ऊपर मंदिर के लिए हमे अलग जाना होगा और निचे गोरम घाट हेरिटेज स्टेशन जाने के लिए अलग रास्ते पर जाना होगा। हमने सोचा पहले ऊपर उस पहाड़ी के मंदिर पर जायँगे फिर वही से कोई रास्ता ढूंढ के हम गोरम घाट भी घूम लेंगे। हमने पगडण्डी पर चलने के बजाय उस पहाड़ी की तरफ जाती हुई एक सुखी नदी के रास्ते पर चल दिए और वहा से पहाड़ियों की चट्टानों पर चढ़ आगे बढ़ने लगे। कुछ आधे घंटे बाद हम एक ऐसे रास्ते पर पहुंच गए जहां से आगे कोई रास्ता नहीं था। हम थक गए,पानी के लिए बैग देखा तो पता लगा कि पानी की बॉटल्स भी निचे गाडी मे ही रह गयी। दूसरे बैग मे एक बोतल गलती से साथ आ गयी जिसमे काफी कम पानी बचा था। अभी तो हमे काफी आगे और ऊपर जाना था। आस पास कोई पानी का नामोनिशान नहीं था। अब पानी ढूँढना सबसे पहला काम हो गया। हम फिर उल्टा लौट कर उस पगडण्डी पर गए ,जहा एक चरवाहे ने हमको बताया कि इसी पगडण्डी मे आगे जाने पर एक पानी की टंकी हमे मिलेगी। जहा एक मंदिर भी मिलेगा ,वहा से पानी भर के ,एक पानी के पाइप के साथ साथ वाले रास्ते को पकड़ कर हम ऊपर स्थित मंदिर पहुंच सकते हैं। करीब 3 घंटे के इस पैदल ट्रेक मे कई खतरनाक मुड़ाव,खाई और चट्टानों के करीब से गुजरते हुए,हम उस पानी के पाइप के साथ साथ ऊपर मंदिर तक पहुंच गए। बाद मे पता चला हमने 3 पहाड़िया पैदल क्रॉस की हैं।
ऊपर पहुंच कर सबसे पहले हमने वहा एक पंडित जी से पानी माँगा। उन्होंने वहा बने हुए 3 कुए हमको बताये और बाल्टी ,रस्सी देकर पानी निकालने को कहा। उन्होंने एक मटका और लोटा भी हमको दिया जो कि हमने भरकर वहा उन पंडित जी के पीने के लिए रख दिया। कुछ देर हमने आराम कर यहाँ सबसे ऊँची चोटी पर से चारो तरफ के कई रमणीय नजारे देखे। निचे कई बाज उड़ रहे थे जिसके निचे हमे दिखाई दिया सर्पिलाकार रेलवे ट्रेक जो की इस तेज धुप मे भी घने जंगल की वजह से सूर्य की किरणों के लिए तरस रहा था।हम देख पा रहे थे कि ट्रेक एकदम गहरी खाई पर बना हैं। काफी दूरी पर कुछ पहाड़ो से परे एक गांव दिख रहा था ,शायद यह वो ही गांव था जहा मेरी गाडी खड़ी थी। हमे यकीन नहीं था कि हम इतना दूर और इतना ऊपर आ चुके हैं।मैंने उन पंडित जी से यहाँ के बारे मे कुछ पूछना चाहा पर वो पक्की राजस्थानी बोल रहे थे ,जो हम नवयुवाओं के पल्ले ही नहीं पड़ रही थी। हमने उन्हें रेलवे ट्रेक तक का रास्ता पूछा तो उन्होंने इशारो मे कुछ दिशाए और पहाड़ बताये जिनपर से गुजरकर हम निचे उतर सकते हैं। यह रास्ता इस बार विपरीत दिशा मे था।
यह मंदिर ऋषि गोरखनाथ जी का मंदिर था।पास मे एक आश्रम भी था। यहा एक कल्पवृक्ष का जोड़ा भी था। जिस पर एक विशालकाय बंदर था ,जो शायद यही रहता हैं। मेने एप्प मे चेक किया तो यह जगह 3000 फ़ीट की ऊंचाई पर बताई गयी ट्रेक की लम्बाई 6.5 किमी बताई गयी और ट्रेक यहां बिजली की सुविधा नहीं थी इसलिए ऊपर बड़े बड़े सोलर पेनल बिजली उत्पादन का काम कर रहे थे।ऋषि गोरखनाथ जी के ही शिष्य गोरम राजा के नाम पर निचे की घाटी का नाम गोरम घाट पड़ा।खतरनाक पेंथर ,भालू जैसे जानवरो का घर ,यह घाट मेवाड़ और मारवाड़ को अलग अलग करता हैं। हमने मंदिर मे दर्शन किये तभी दिमाग मे एक बात आयी और उन महाराज से हमने पूछा तो उन्होंने मारवाड़ी मे जवाब दिया- "अंदर पड्यो है ,लेलो "
दरअसल हमने पूछा कि क्या यहां भजन वगैरह करने के लिए कोई वाद्य यंत्र है तो उन्होंने अपने आश्रम की तरफ इशारा किया। हम तो ख़ुशी के मारे पागल हो गए। अंदर ढोलक ,हारमोनियम ,मंजीरे पड़े थे।हमने वही ऊपर बैठ कर सोचा मंदिर मे भजन ही गाते हैं। ठंड और अँधेरा होने लग रहा था। कुछ घंटे हमने भजन गाये जितने महाराज हमारे लिए गरमागरम काढ़ा और बिस्किट ले आये। वो यहा अकेले ही रहते थे। उन्होंने कुछ देर हमारे साथ बिताकर ,हमे रेलवे ट्रेक का रास्ता बता कर हमे आशीर्वाद देकर विदा किया।
हम तेज धुप की वजह से सिंगल ड्रेस मे ही ट्रेक पर आये थे। हमे पता नहीं था कि हम ऐसे पहाड़ी ट्रेक पर भी जाएंगे तो हमारे पास ट्रेक के लिए कोई सामान और गर्म कपड़े थे ही नहीं।हम पंडित जी के बताये अनुसार आश्रम के विपरीत तरफ के रास्ते पर निकल लिए। कुछ जगह रास्ता खत्म था तो जैसे तैसे कुछ चट्टानों पर से होकर हम आगे बढ़ते गए। करीब 45 मिनट बाद हमे निचे ना तो रेलवे ट्रेक अब दिख रहा था। ना वो मंदिर,ना दूर दूर तक कोई गांव। अब थोड़ा थोड़ा अँधेरा होने आया ,ठंड लगने लगी। अब पता लगा कि हम तो उस मंदिर और निचे रेलवे ट्रेक के सभी रास्ते भटक चुके हैं। अगर हम आगे बढे तो पता नहीं कोनसे पहाड़ पर पहुचंगे। दरअसल,हम अभी तक ऊपर ही ट्रेक कर रहे थे,एक पहाड़ से दूसरे पहाड़। निचे जाने का तो कोई रास्ता ही नहीं था। पीछे लौटे तो भी अब आश्रम का रास्ता पता नहीं। क्योकि हम तो कुछ भूलभुलैया वाले रास्तो से होकर यहां आये थे।
सवाल यह था कि अब हम आगे बढे और निचे गोरम घाट जाने का रास्ता ढूंढे या पीछे जा कर आश्रम तक पहुंच कर वापस पुराने वो पाइप वाले रास्ते से उस गांव तक पहुंचे। ना तो कोई यहां था जो हमारी मदद कर दे। अँधेरा अलग से होने वाला था। मैंने इन चारो को बोल दिया कि अब अगर ज्यादा अँधेरा हुआ तो रात यही फंस संकते हैं और हो सकता हैं हमे यही ऊपर जंगल मे ही अकेले रात निकालनी पड़े। हमने सोचा की हम वापस पीछे मूड लेते हैं ,अगर आश्रम तक पहुंच गए तो रात वहा रह लेंगे। हम फिर पीछे वाले पर रास्ते पर उलटे बढ़ लिए। किस्मत अच्छी थी कुछ घंटे मे हम उस आश्रम वापस पहुंच भी गए। अभी भी कुछ उजाला तो था तो हम तो पाइप वाले रास्ते को पकड़ हम निचे उस 6.5 किमी के ट्रेक पर चल दिए।
करीब ढाई घंटे मे हम इन जंगल के वीरान और डरावने रास्तो और पहाड़ो को अकेले ही पार कर वापस उस गांव पहुंच चुके थे। तब तक पूरा अँधेरा हो चूका था। हमने मैप मे लोकेशन डाली-भीलवाड़ा और बिना वक़्त गवाए अपने शहर की और निकल लिए ।
'अगर हम ऊपर फंस जाते तो क्या क्या हो सकता था ??? ' देर रात भीलवाड़ा और राजसमंद के बीच हाईवे पर होटल मे लच्छे परांठे के साथ काजू करी और पनीर बटर मसाला की सब्जी खाते खाते हम इसी बात पर चर्चा कर रहे थे। हमे उस गोरखनाथ पहाड़ी से ठीक सामने एक और पहाड़ी दिख रही थी जिसपर भी एक मंदिर था। हमने सोचा शायद अगला नंबर अब उस मंदिर पर जाने का आएगा ,तब गोरम घाट के रेलवे ट्रेक पर भी हो आएंगे।
धन्यवाद
-ऋषभ भरावा