दुनिया की सबसे प्राचीन नगरी राजधानी काशी में होली खेलने की परंपरा कुछ खास और अलग है। जब आप से कोई श्मशान में होली खेलने के लिए कहे तो आप जाना तो छोड़िए यह बात सुनकर हीं डर जाएंगे, लेकिन काशी में ऐसा होता है। लगभग 350 साल से काशी के वासी रंगभरी एकादशी के अगले दिन श्मशान में होली खेलते है। बाबा भोलेनाथ के भक्तों ने इस परम्परा को शुक्रवार को निर्वाहन किया। देशी भक्त हो या विदेशी सभी ने झूम कर होली खेली।
मोक्षदायिनी काशी नगरी के महाश्मशान हरिश्चंद्र घाट पर कभी चिता की आग ठंडी नहीं पड़ती। चौबीसों घंटें चिताओं के जलने और शवयात्राओं के आने का सिलसिला चलता ही रहता है. चारों ओर पसरे मातम के बीच वर्ष में एक दिन ऐसा आता है जब महाश्मशान पर होली खेली जाती है. वे भी रंगों के अलावा चिता के भस्म से होली खेलते हैं।
रंगभरी एकादशी पर महाश्मशान में खेली गई इस अनूठी होली के पीछे एक प्राचीन मान्यता है। कहा जाता है कि जब रंगभरी एकादशी के दिन भगवान विश्वनाथ मां पार्वती का गौना कराकर काशी पहुंचे तो उन्होंने अपने गणों के साथ होली खेली थी. लेकिन वो अपने प्रिय श्मशान पर बसने वाले भूत, प्रेत, पिशाच और अघोरी के साथ होली नहीं खेल पाए थे। इसीलिए रंगभरी एकादशी से विश्वनाथ इनके साथ चिता-भस्म की होली खेलने महाश्मशान पर आते हैं ।
धार्मिक मान्यता है कि बाबा विश्वनाथ महाश्मशान पर दिंगबर रुप में अपने भक्तों के साथ होली खेलते हैं। उनके इस होली में भूत, प्रेत, पिचास सहित सभी गण मौजूद होते हैं।