कहते हैं की समय किसी के लिए नहीं रुकता, वह अपनी गति से निरंतर चलता जाता है। बुद्धिजीवियों के इस कथन को चुनौती देने का उद्देश्य तो मैं नहीं रखती, परंतु बीते वर्ष के कुछ दिनों में समय को अपनी गति से चुहल करते मैंने देखा था; कभी बालक के जैसे घुटनों के बल चलते, तो कभी मदमस्त हिरण सा कुलांचें भरते, तो कभी अचल-स्थिर खड़े मैंने देखा था।
इस पृथ्वी के असीमित विस्तार को प्रत्यक्ष देखने की तृष्णा मुझे पिछले वर्ष पर्वत-राज हिमलाय तक ले गयी। संदर्भ था छह-दिवसीय हमटा पास ट्रेक जिसकी शुरुआत मनाली शहर से होती है।
पहला दिन: मनाली से जोबरा – कंधों पर ट्रेकिंग बैग और पैरों में ट्रेकिंग वाले जूते पहन कर, मनाली से उत्तर की ओर हम जैसे-जैसे बढ़े, हवा में हल्का तीखापन, आसमान में चटक नीला रंग और आस-पास अन-छूए से दरख्तों ने हमारा प्रोत्साहन किया। हमारी पहली कैंप-साइट ‘जोबरा’ नाम के स्थल में थी, जहां घने जंगलों के बीच से हो कर पहुँचने में हमे क़रीब सवा घंटा लगा। कैंप-साइट पर पीले रंग के लगभग 10-11 मुसकुराते हुए तंबुओं ने हमारा स्वागत किया। ऐसा लगा जैसे ये पीले तम्बू अगले 6 दिनों तक हमें अपने आसरे में सुलाने के लिए लालायित थे।
जहां एक दिशा में हरे चादर में लिटपी हुई समतल ज़मीन थी, वहीं दूसरी दिशा में अनावृत चट्टानें इतनी ऊंची थी कि जहां तक आँखें पहुँच सकती थी, वहाँ तक उनका अंत खोज रही थीं। इन चट्टानों कि गोद में एक बेपरवाह और जीवंत नदी बह रही थी, जिसे स्थानीय लोग ‘रानी-नाला’ कहते हैं। समय धीमे-धीमे आगे बढ़ा और जब वादी अंधेरे में डूब गयी तो हमने ठिठुरा देने वाली ठंड से विदा ली और अपने अपने तम्बू में शरण ले ली।
दूसरा दिन: जोबरा से जवारा: - अगले दिन जब सख्त ज़मीन पर बिछे ‘स्लीपिंग-बैग’ से हम अध-पकी सी नींद लेकर उठे, तो नज़ारा कुछ यूं था कि सुबह कि सुनहरी किरणों ने चहुं-ओर जगमग फैला दी थी। आज के दिन कि चढ़ाई ज़्यादा लंबी और थोड़ी ज़्यादा कठिन थी।
रास्ते में हमे कई हिमालयी धाराएँ मिली, जिसने अपनी बोतलें भर कर हम आज के गंतव्य पर पहुँचने कि जद्दोजहद में लगे रहे। कुछ धाराओं के ऊपर हथ-गढ़ से पुल थे, जिनपर से गुजरने में धड़कनें तेज़ हो जाती। कैंप-साइट पहुँचने मे जब ज़रा ही और चढ़ाई बाकी थी, तब एक ऐसी धारा मिली जिसकी चौड़ाई क़रीब 6-7 फीट थी और इस पर कोई पुल नहीं था। इसे पार करने क लिए ग्रुप ने एक ‘ह्यूमन-चैन’ बनाई और एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए एक-एक कर ठंडे पानी में उतरते गए। पानी इतना ठंडा था कि लगा जैसे किसी ने तीखी छुरी त्वचा में भेद कर शरीर के रोम-रोम में ठिठुरन पहुंचा दी हो। अंततः लगभग चार घंटों कि रोमांचक चढ़ाई के बाद हमे अपने दूसरे कैंप-साइट ‘जावरा’ पहुंचे।
तीसरा दिन: जवारा से बालू का घेरा – दो दिन में हम 8000 फीट से लगभग 12000 फीट कि ऊंचाई पर पहुँच गए थे, फलस्वरूप हवा काफी क्षीण हो गयी थी और ठंड अत्यधिक बढ़ गयी थी। लेकिन ट्रेक को पूरा करने कि इच्छाशक्ति पर कोई आंच न आने पायी थी! तीसरे दिन कि चढ़ाई कुछ समतल थी। रास्ते मे बेहद सुंदर घास क मैदान मिले, जिनहे रंग-बिरंगे फूलों से सजाया हुआ था। मैदानों के एक तरफ रानी-नाला पूरी वफादारी से हमारा साथ निभा रही थी। कुछ जगहों पर वह नदी ग्लेशियर कि परत के नीचे छिप जाती, तो थोड़ा आगे बढ्ने पर वह फिर खिलखिलाती हऊई नज़र आ जाती।
तीसरी कैंप-साइट ‘बालू का घेरा’ एक अद्भुत नज़ारा थी - तंबुओं से ज़रा आगे कल-कल बहता एक झरना, सामने अपने प्रवाह मे बहती नदी और चारों तरफ पीले और गुलाबी फूल। यहाँ पहुँच कर पहली बार हमे हमारा गंतव्य ‘हमटा पास’ प्रत्यक्ष दिखा। बर्फीले पहाड़ों में लिपटा वह जितना पास प्रतीत हो रहा था, उस तक पहुँचने का रास्ता उतना ही लंबा और रोमांचक होने वाला था। आज कि रात के उत्साह कि कोई सीमा न थी, क्यूंकि कल की सुबह हमे हमारे ट्रेक के सबसे ऊंचे बिन्दु तक ले जाने वली थी।
चौथा दिन: हमटा पास – तड़के 6 बजे हम अपने कैंप-साइट से निकाल पड़े। आज कि चढ़ाई अधिक कठिन थी – पथरीले रास्ते तो थे ही, साथ ही एक लंबे हिस्से पर हमे बर्फ पर चलना था। बर्फ बहुत छलती है, जहां मासूम सी दिखेगी पैर रखने पर वहीं से नीचे कि ओर धंस जाएगी।
‘पास’ पर पहुंचाने वाली चढ़ाई एकदम तीखी थी, जो कि बर्फ से ढँकी थी और दूसरी छोर पर खाई थी। अपने हर पग को अपनी सांस से समन्वयित करते हुए जब हम अंततः हमटा पास पहुंचे, तो हमारी प्रसन्नता अपनी चरम-सीमा पर थी! यहाँ ऊंचाई 14000 फीट थी और चारों ओर बर्फीली चोटियों का जो दृश्य दिखता है, वह किसी भी माप-दंड से परे था। कुछ समय हमने उसी ऊंचाई पर बिताया। कुछ ऐसा महसूस हो रहा था जैसे पिछले 3 दिन कि चढ़ाई मे बिताया समय हमें गले लगा कर बधाई दे रहा हो।
हम आगे बढ़े और पास से उतार का दूसरी ओर बढ़ने लगे। हमटा पास हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी को लाहौल-स्पीति घाटी से जोड़ता है, और जैसे ही हमने पास को पार किया, दृश्यों में एक नाटकीय बदलाव आ गया था। जहां कुल्लू वादी हर तरफ हरे भरे पहाड़ों से सुसज्जित है, वहीं स्पीति को ‘ठंडा रेगिस्तान’ का खिताब अपने उजाड़, नंगे पहाड़ों ने दिया है। इस नाटकीय बदलाव के अचंभे मे चलते चलते कब हम अपनी अगली कैंप-साइट ‘ शिया-गोरू’ पहुँच गए, इसका पता ही नहीं चला।
पाँचवा दिन: शिया गोरू से छतडु और चंद्रताल – आज के दिन उतार होना था – 13000 फीट से उतर कर 10000 फीट तक रास्ता तय करना था। पर्वत से उतरते हुए आभास हुआ कि शायद समय इन ऊंची-ऊंची चोटियों में उलझ कर धीमे चलने लगता है। शायद इसीलिए हिमालय इतने पुराने होते हुए भी बूढ़े नहीं लगते।
लाहौल-स्पीति वादी मे में एक झिलमिलाता हुआ विस्मयकारी ताल है, जिसे अपने आकार के कारण नाम दिया गया है ‘चंद्रताल’। यात्रा संस्मरणों कि सभी उपमाओं को यदी एक हार में पिरो लिया जाए तब भी वह हार इस ताल कि सुंदरता कि समीक्षा नहीं कर पाएगा। समय के थपेड़ों में प्रौढ़ हुए, कुछ भूरे, कुछ नारंगी, कुछ नीले से रेतीले पहाड़ों कि गोद में हीरे-सा चमकता यह ताल खुद मे ही एक उपमा है। त्वचा को काट कर आत्मा तक पहुँच जाने वाली बर्फीली हवाओं के परे, समय यहाँ अचल खड़ा मिलता है। आँखें मूँद लेने पर आप स्वयं अपने हृदय कि ध्वनि भी सुन सकते हैं। इतनी नायाब जगह को थोड़ा सा आप ख़ुद में सहेज कर ले आते हैं और थोड़ा सा ख़ुद को वहीं छोड़ आते हैं।
अंतिम दिन: मनाली फिर से – ट्रेक के आख़िरी दिन सड़क के माध्यम से, रोहतांग पास से होते हुए हम मनाली वापस पहुंचे। अंततः 6 दिनों के बाद जब मोबाइल फोन को नेटवर्क का ईंधन मिलने पर वह बजने लगा, तब यह अहसास हुआ कि उन पहाड़ों के पीछे, जन-निवास से दूर वह एक अलग ही दुनिया थी, जो हम कुछ जी भी आए और कुछ अधूरी-सी भी छोड़ आए। यह यक़ीन कर पाना मुश्किल था कि जहां हम एक पूरी सदी उन मासूम पहाड़ों कि गोद में बिता कर आए हैं, वहीं शहर में सिर्फ 6 दिन ही बीते थे। समय के इस खेल को मैं समझ ना पायी।