मेरी उम्र 18 वर्ष थी। मन भावनाओ के चक्र व्युह में फसा आहत और मृत्यु को स्वीकारने को त्तपर तब तक जिने को तैयार जब तक प्रकृति जीने दे।
साथ थी तो ओशो की देशनाऐ और एक किताब नारी और क्रांति और जेब में एक सहेली के दिये 150 ₹ और मेरी साईकिल,एक जोडी़ जोगीया कपडा़ ( कुर्ता और लुंगी भाई का) । बस स्टाप पर जो पहली बस मिली चढ़ गये 30 किमी पर एक स्टाप आया और सानमे दिखा एक बोर्ड स्वामी अंगडा़न्नद आश्रम 19किमी, समय 4 बजे के आस पास। विचार आया आश्रम जाया जाय, बस फिर क्या साईकल उतारी गयी और बीच में ही उतर गये टिकट बनारस तक की थी। अंधेरा होने से पहले आश्रम पहुचने का लक्ष्य लिए आगे बडे़ तो दिखा दो पहाडो़ के बीच से गुजरता एक अंजान रास्ता, डर नही लग रहा था क्योकि बुरे से बुरा जो हो सकता था मन उसके लिए तैयार था।
दिखी एक नदि इठलाती बल खाती तो याद आया कि दो दिन से पानी कि एक बूंद मुहँ में नही गयी, भोजन तीन दिनो से नही खाया खैर नदी से पानी पिया और आगे बडे़।
दो किमी चलने पर दिखा एक मन्दिर दो तीन सालो से मंदिर जाना छोडा़ था सोचा आखरी दर्शन करलु क्योकि आगे क्या होना है पता नही। दुर्गा मंदिर बिल्कुल खाली पहाडो़ के बीच अद्भुत सुन्दर, अन्दर गयी प्रणाम किया और एक सवाल (और क्या चाहती हो।) अकारण ही आँखे भर आयी थी, बाहर आकर नजर घुमाया तो दीवाल पर लिखा मिला दक्षिण काली ( काली मेरी इष्ठदेवी) कई साल से मंदिर नही गयी थी मैने कट्टी कर रखी थी और ये बात भूल भी गयी थी।
इस विचार के साथ कि इनसे भी आखरी भेंट कर लू मंदिर की ओर बड़़ गयी। मंदिर के बाहर बैठी दिखी एक बूढी़ माँ चेहरे पे जो तेज था मैने वैसा तेज आज तक किसी के चेहरे पे नहीं देखा। मैने उनको प्रणाम किया और चुँकि अंधेरा घिरने लगा था मैने रात के लिये आश्रय मागा। उनहोने कहा पंडित जी आयेगे तो वोही बतायेगें फिलहाल कही गये है। इस आशंका के साथ कि आश्रय मिलेगा या नही मै वही मंदिर के एक खम्बे के सहारे बैठ गयी मंदिर के उपर झूका था बरगद का विशाल वृक्ष और उसी में उभरा था माँ का अद्भुत चेहरा पुरे श्रृंगार के साथ मै अचम्भित की खुले आकाश के निचे बेशकिमती गहनो से सजी माँ, क्या यहा चोर नही आते।
घंटो निहारती रही माँ का चेहरा।
पंडित जी का आगमन हुआ तो बस अंधेरा होने वाला था। निश्चित ही आश्रय देने से पहले सवाल पुछे गये कहा से आयी, क्युँ आयी आदि। जवाब में सब झूठ कहा मैने। आश्रय मिल गया 7 बजते बजते भोजन की बात आयी बाबा और माँ का भोजन तीन किलोमीटर दुर बने उनके घर से दोपहर मे आ जाता था जो दोनो समय का होता था। बाबा ने कहाँ मै अपने खाने के लिए रोटी या पराठा जो मुझे पसंद हो स्टोप जला कर मै बना लू। मैने पराठे बनाये और कयी दिनो के बाद ठिक से भोजन किया अमूम्न मै दो पराठे खाती थी मगर मैने तीन बनाये सब्जी मिली आलू और बजरबट्टू की जो मुझे कम ही पसंद थी मगर भूख ने ये सोचने का मौका नही दिया। और तीन पराठे खाने के बाद बाबा ने दुध दिया मन में विचार आया एक और पराठा होता तो दुध से खा लेती (और बाबा की आवाज आयी कल से अपने लिए एक पराठा और बना लेना)
मै शुन्य की विचार पढ़ लिए गये है। खैर भोजन के बाद बिस्तर लगाया गया सोने के लिए वहा लाईट उस समय ना के बराबर ही आती थी। 9 बजते बजते तिवारी बाबा जो की दुर्गा मंदिर पर रहते थै आये और बाबा के कुछ कहने के पहले ही बोले सेवक आ गया दो दिन पहले ही इस विषय में चर्चा हो रही थी ( तो क्या मेरे आने का पता पहले से था ) कि अगले दिन नवरात्रि शुरू हो रही है तो मंदिर में सेवक की जरूरत थी।
नींद नही आयी चुँकि अपने विषय में झूठ बोल कर आश्रय पाया था, सुबस उठते ही अपनी मनोस्थिति और यू घर छोड़ कर चले आने के पिछे के कारणो के बारे में बाबा को सारी बाते सच्चायी के साथ बता दि और र्निभार हो गयी।
अब बारी मेरे चौकने की थी। नित्य कर्म के बाद जब मै उस बडे़ विशाल बरगद के वृक्ष को देखा तो उसमे से उभरे माँँ के चेहरे से सारा श्रृंगार हटा हूँआ था पहला जो मन में ख्याल आया कि किसी ने सारे गहने चोरी कर लिए और मै कल रात ही आयी तो शक तो मेंरे उपर ही होगा। मै बहूत असहज हो गयी मगर मैने देखा की बाबा आये सहज ढ़ंग से पुजा की और मै परेशान कि श्रृंगार के सारे गहने चोरी हो गये और बाबा कुछ बोल नही रहे, मै बस निहारती नही उस चेहरे को।
चूँकि नवरात्रि का पहला दिन था तो मुझे रामायण का नवाह ( नौ दिन में पुरी रामायण का पाठ) करने की जिम्मेदारी दे दि गयी।
पहले दिन का पाठ पुरा करके जब उठी तो एक सज्जन दर्शन के लिए आये उन्होने माँ दक्षिणी काली के दर्शन किये और मुडे़ तो बाबा ने उनको बटकाली के दर्शन को कहा वही वृक्ष से उभरा माँ का चेहरा, उस समय बाबा ने बताया कि किस तरह उनकी धर्मपत्नी को माँ ने इस वृक्ष में दर्शन दिया था और अगर व्यक्ति शान्त चित हो तो माँ पुरे श्रृंगार के साथ दर्शन देती है।( आप नही समझ सकते है कि ये लिखते समय मेरे मन मे किस हर्ष की वर्षा हो रही है)
फिर एक दिनचर्या निरधारित हो गयी। सुबह उठना मंदिर साफ करना माँ ( बाबा की धर्मपत्नी) को स्नान के लिए ले जाना ( क्योकि उनको चलने फिरने में परेशानी थी ) मंदिर से ही लग के नदि बहती है, कल कल करती नदि मन को अद्भुत आन्नद देती है। फिर माँ के साथ उन्की पुजा का हिस्सा बन्ना उनका ध्यान इतना गहरा था कि वो आँख बन्द करते ही लिन हो जाती फिर घंटो वैसे रहती, उनके जैसा तेज आजतक मैने कही और नही पाया। फिर रामायण का पाठ खत्म करने के बाद, उस दिन पहली बार मिट्टि का चूल्हा जलाया ( थोडी़ परेशानी हुयी पर जल गया) भोजन पकाया याद है मुझे दाल रोटी और आलू की भुजिया। खाने के बाद बर्तनो को नदि में ले जा कर साफ किया, नवरात्रि होने के कारण दिनभर लोग आते जाते रहे और बहुत सी बाते उस जगह और माँ बाबा के बारे में जानने को मिली, शाम को मंदिर में झाडू लगाने के बाद मै बाबा और माँ एक साथ बैठते थे फिर मै माँ को और बाबा को रामायण भावार्थ के साथ पढ़ कर सुनाती थी अक्टूबर का महिना होने से शाम जल्दी हो जाती थी तो 6:33 तक हम साम का भोजन कर लेते और वही मंदिर के बरामदे मे जोकि पुरी तरह से खुला था बिस्तर लगाते और सोने चले जाते।
नवरात्रि के साथ मेरा पाठ भी पुरा हो गया और मंदिर में लोगो का आवा गमन भी कम हो गया, मुझे गीता पकडा़ दी गयी अध्यन ने लिए, बाबा का घर मंदिर से चार पाचँ किलोमीटर ही था तो कोई आवश्यकता पड़ने पर जाती थी लाने, इस तरह सब के साथ परिवार जैसा जूडा़व हो गया।
ऐसा एक महिने तक चला फिर एक दिन मैने अपने घर ये बताने को फोन किया की कोई परेशान ना हो मै ठीक हूँ। और सब गडबड हो गया अगले दिन मेरी माँ मुझे लेने आ गयी और न चाहते हूये भी मुझे वापस आना पडा़।