होली की छुट्टियां मनाकर मैनें घर से इलाहाबाद जाने को सोचा. टिकट लिया. निकल आयी. इलाहाबाद से दिल्ली और फिर हल्द्वानी निकलने वाली थी. लेकिन इलाहाबाद से दिल्ली की ट्रेन मैंने छोड़ दी और बस में बैठकर बनारस निकल आयी. बनारस, क्योंकि किसी से मिलना था मुझे. बाकी एक कारण ये है बनारस मेरी पसंदीदा जगह भी रही है. बनारस में उतना हैपेनिंग होता रहता है जितना हैपेनिंग हमे जिंदगी में चाहिए होता है. पूरा एक दिन और एक रात मैं वहां थी. अगली सुबह 8 बजे की ट्रेन में बरेली तक का रिज़र्वेशन था. मिडिल सीट थी. जहां ना तो बैठा जा सकता है और न ही सारा दिन लेटकर गुजारा जा सकता है. बरेली से हल्द्वानी जाने में दो-ढाई घंटे लगते हैं. किसी तरह मैंने शाम तक समय काटा.
बरेली स्टेशन आने ही वाला था. मैने अपना सारा सामान चेक किया. फिर दो बैग जो कि सीट के नीचे थे उन्हें निकाल कर बोगी के दरवाजे पर आ गयी. गाड़ी रुकी. मैं अपने दोनों बैग लेकर प्लेटफॉर्म पर उतरी और पुल की तरफ बढ़ने लगी. दिमाग में गणित लगाते हुए मैं चल रही थी कि बस स्टेशन तक के लिए रिक्शा वाले को कितने पैसे देने होंगे. मैंने सांस अंदर खींचा और फिर मैं उल्टे पांव दौड़ पड़ी. इतने में ट्रेन ने भोंपू बजाना शुरू कर दिया था और मैं ट्रेन की तरफ दौड़ रही थी. मेरा हैंडबैग मेरी सीट पर ही छूट गया था. मुझे मेरी सीट तक पहुचने के लिए छः-सात डिब्बे क्रॉस करने थे. एक बैग मैंने पीठ पर लाद रखा था और दूसरा बैग मैने दाहिने हाथ से उठा रखा था. मेरे पैसे, डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड, आधार जैसी बहुत सी जरूरी चीजें उसी बैग में थी. मैं दो बैग के साथ रफ्तार से दौड़ नही पा रही थी तो मैंने एक बैग प्लेटफार्म पर छोड़ दिया. मै जैसे तैसे ट्रेन पर चढ़ गई. ये एस-6 बोगी है? जवाब में हाँ सुनते ही मैं अपनी सीट की ओर दौड़ पड़ी. देखा आस-पास के लोग सो रहे थे और मेरा बैग सीट पर रखा हुआ था. मैंने झट से बैग उठाया और चिल्लाने लगी कि कोई ट्रेन की चेन खींचो. वहां कोई सुनने को तैयार नही था. मैं आगे वाली बोगी में दौड़कर पहुंची और जोर से चिल्लाने लगी कि चेन खींचो मेरा सामान प्लेटफॉर्म पर रह गया है. दो मेरे ही उम्र के लड़के उठे और चेन ढूंढने लगे. वहां पर किसी भी बर्थ में कोई चेन नही थी. जहां चेन होनी चाहिए थी वहाँ बस साइड में लिखा हुआ था "गाड़ी रोकने के लिए जंजीर खींचिए". ट्रेन अब पूरी रफ्तार में थी.
एक अंकल उठे और मुझपर चिल्लाने लगे कि तुम्हे खुद को होश नही था क्या? अकेले जा रही हो और बैग छोड़ दिया. मेरी सांस फूल रही थी मैं वहीं सीट पर बैठ गयी और इधर-उधर देखने लगी. अंकल मुझे काफी देर से दांट रहे थे. मैं उठकर बोली चुप रहिये आप. मदद करने के लिए नही उठे मगर अब अपनी सलाह देने लग गए. सालों से अकेले ही ट्रैवेल करती आ रही हूँ. मुझे मेरी गलती की लिस्ट न थमाकर अगर मदद की होती तो बेहतर होता. मेरी बात सुनकर वो सभी लोग भी चुप हो गए जो ये देखकर आपस मे बातें कर रह थे कि एक अकेली लड़की यात्रा के दौरान इतनी बड़ी गलती कैसे कर सकती है. गोया सामान छोड़ा हो बम छोड़ दिया हो मैनें. दस मिनट बाद एक टी. टी. दिखा. मैनें एक सांस में सबकुछ बता डाला. उस टी. टी. ने मेरी बात को टाल दिया और बोला कि आप ए. सी. बोगी में जाइये वहाँ एक टी.टी. होगा उनसे…मैंने उनकी बात काट कर कहा कि आप भी तो टी.टी. हो आप मेरी मदद क्यों नही कर सकते? उसने टालने की कोशिश की तो मैं झल्ला गयी. मैनें कहा आपने अगर मदद नही करी तो मैं आपके नाम पर ट्वीट करूँगी. मैं किसी और टी.टी को ढूंढने में समय बर्बाद नही कर सकती थी. किसी तरह उस टी.टी.ने मुझे एक पर्सन (जो कि उसी ट्रेन में कार्यरत था) के साथ दूसरे टी.टी. के पास भेजा. उस टी. टी. ने बताया कि गाड़ी अब दो घण्टे बाद मुरादाबाद रुकेगी. उससे पहले किसी भी अन्य छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकने से रही. उस टी.टी. ने बरेली में रेलवे कर्मचारियों को कॉल किया और सारी बात समझाई. मुझे दिलासा दिया कि जैसे ही उसे कुछ पता लगता है वो मुझे बताएगा. मैं वहीं टी.टी. की सीट में बैठकर बरेली में जानने वालों को कॉल करने लगी. अपनी एक दोस्त को कहा. उसके भाई की मदद मांगी. मोबाइल चार्ज में लगाया जो कि आधे घंटे के बाद बंद हो जाता. बाकी बार-बार पूछने पर भी रेलवे की तरफ से मुझे कोई मैसेज नही मिला. फिर दोस्त के भाई का कॉल आया कि बैग मिल गया है. स्टेशन के पास एक दुकान पर है. मैनें उस दुकान वाले को बताया कि मेरे बैग में क्या-क्या सामान है. पता नहीं क्यों बताया. खैर, बैग लेकर उसका भाई चला गया. मुरादाबाद से बस पकड़कर हल्द्वानी आयी और तब तक रात के करीब एक बज चुके थे. कमरे में आयी. हाथ मुंह धोया और बिस्तर पर आकर लेट गयी. उन बूढे अंकल का ख्याल आता रहा. उनका चेहरा याद किया. कभी गुस्सा आ रहा था कभी दया. और फिर नींद भी आती रही. मैं सो चुकी थी. नींद में मैनें ट्रिप का सपना देखा. इस बार कलकत्ते की ट्रेन थी.
-एकता सिंह