इक्यावन शक्तिपीठों में सबसे प्रमुख महाशक्तिपीठ माँ विन्ध्येश्वरी / विंध्यवासिनी धाम।
माता विन्ध्येश्वरी रूप भी माता का एक भक्त वत्सल रूप है और कहा जाता है कि यदि कोई भी भक्त थोड़ी सी भी श्रद्धा से माँ कि आराधना करता है तो माँ उसे भुक्ति – मुक्ति सहज ही प्रदान कर देती हैं ।
विंध्याचल पर्वत श्रंखला में इनका निवास है – माता की नित्य उपस्थिति ने विंध्य पर्वत को जाग्रत शक्तिपीठ कि श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है और विश्व समुदाय में एक अतुलनीय मान सम्मान का भागी बनाया है –।
थोडा सा यदि विचार करें तो माँ कि एक दया भरी नजर यदि पाषाण समूह को इस श्रेणी पर खड़ा कर सकती है तो मानव मात्र यदि पूर्ण श्रद्धा के साथ उनकी उपासना करे तो उसको माँ क्या नहीं प्रदान कर देंगी ?
प्रयाग एवं काशी के मध्य ( मिर्जापुर नमक शहर के अंतर्गत ) विंध्याचल नामक तीर्थ है जहां माँ विंध्यवासिनी निवास करती हैं। श्री गंगा जी के तट पर स्थित यह महातीर्थ शास्त्रों के द्वारा सभी शक्तिपीठों में प्रधान घोषित किया गया है। यह महातीर्थ भारत के उन 51 शक्तिपीठों में प्रथम और अंतिम शक्तिपीठ है जो गंगातट पर स्थित है।
श्रीमद्भागवत महापुराण (महर्षि वेदव्यास रचित ) के श्रीकृष्ण-जन्म प्रसंग में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से उत्पन्न / अवतरित ( अवतरित इस सम्बन्ध में कहा जाता है क्योंकि शब्द ” भगवान ” ( भगवान का अर्थ होता है कि जिनकी उत्पत्ति सामान्य मानव कि तरह भग से न हुयी हो – अर्थात कहने का तात्पर्य ये कि भगवान स्त्री गर्भ से उत्पन्न नहीं होते उनका अवतार होता है –
कई सन्दर्भों में पुराणों और धार्मिक ग्रंथो में उद्धरण / प्रसंग देखे जा सकते हैं कि ” परमात्मा कि कृपास्वरूप जितने भी उनके अवतरण इस धरती पर हुए हैं उनमे कहीं भी वे माँ के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए हैं बल्कि निश्चित अवधि के पश्चात् उनका प्राकट्य हुआ है और तत्पश्चात उन्होंने बाकि सारी लीलाएं जिनमे बाल लीलाएं भी शामिल हैं की हैं “) श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए।
आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
पुराणों में विंध्य क्षेत्र का महत्व तपोभूमि के रूप में वर्णित है। विंध्याचल की पर्वत श्रंखलाओं में गंगा की पवित्र धाराओं की कल-कल करती ध्वनि, प्रकृति की अनुपम छटा बिखेरती है। विंध्याचल पर्वत न केवल प्राकृतिक सौंदर्य का अनूठा स्थल है बल्कि संस्कृति का अद्भुत अध्याय भी है। इसकी मिटटी में पुराणों के विश्वास और अतीत के अनेकानेक अध्याय जुडे हुए हैं।
मार्कण्डेयपुराणके अन्तर्गत वर्णित श्री दुर्गासप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर माँ भगवती ने कहा है-
नन्दागोपग्रहेजातायशोदागर्भसंभवा, ततस्तौ नाशयिष्यामि विंध्याचलनिवासिनी।
वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्द गोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतरित होकर विन्ध्याचल में जाकर निवास करुँगी और उक्त दोनों असुरों का संहार करूँगी।
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया।
मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं:-
नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वकस्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
विन्ध्यस्थाम विन्ध्यनिलयाम विंध्यपर्वतवासिनीम, योगिनीम योगजननीम चंडिकाम प्रणमामि अहं ।
त्रिकोण यंत्र पर स्थित विंध्याचल निवासिनी देवी – महालक्ष्मी, महाकाली तथा महासरस्वती का रूप धारण करती हैं। विंध्यवासिनी देवी विंध्य पर्वत पर स्थित मधु तथा कैटभ नामक असुरों का नाश करने वाली भगवती यंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं।
कहा जाता है कि जो मनुष्य इस स्थान पर तप करता है, उसे अवश्य सिध्दि प्राप्त होती है।
विविध संप्रदाय के उपासकों को मनवांछित फल देने वाली मां विंध्यवासिनी देवी अपने अलौकिक प्रकाश के साथ यहां नित्य विराजमान रहती हैं अतः यही वजह है कि यहाँ साधकों और अन्य उपासकों का हमेशा ताँता लगा रहता है ।
ऐसी मान्यता है कि सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता यह स्थल अनादि काल के लिए कालजयी है ।
यहां पर संकल्प मात्र से उपासकों को सिध्दि प्राप्त होती है। इस कारण यह क्षेत्र सिद्ध पीठ के रूप में सुविख्यात है।
आदि शक्ति की शाश्वत लीला भूमि मां विंध्यवासिनी के धाम में पूरे वर्ष दर्शनार्थियों का आना-जाना लगा रहता है।
चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर यहां देश के कोने-कोने से लोगों का का समूह जुटता है।
ब्रह्मा, विष्णु व महेश भी भगवती की मातृभाव से उपासना करते हैं, तभी वे सृष्टि की व्यवस्था करने में समर्थ होते हैं।
इसकी पुष्टि मार्कंडेय पुराण श्री दुर्गा सप्तशती की कथा से भी होती है, जिसमें सृष्टि के प्रारंभ काल की कुछ इस प्रकार से चर्चा है- सृजन की आरंभिक अवस्था में संपूर्ण रूप से सर्वत्र जल ही विमान था। शेषमयी नारायण निद्रा में लीन थे।
भगवान के नाभि कमल पर वृद्ध प्रजापति आत्मचिंतन में मग्न थे। तभी विष्णु के कर्ण रंध्र के मैल से दो अतिबली असुरों का प्रादुर्भाव / जन्म हुआ।
ये ब्रह्मा को देखकर उनका वध करने के लिए दौड़े। ब्रह्मा को अपना अनिष्ट निकट दिखाई देने लगा और असुरों से लड़ना रजोगुणी ब्रह्मा के लिए संभव नहीं था और यह कार्य श्री विष्णु ही कर सकते थे, जो निद्रा के वशीभूत थे।
ऐसे में पितामह ब्रह्मा को भगवती महामाया की स्तुति करनी पड़ी, और उनकी विनती के परिणाम में माँ जगदम्बा प्रकट हुयीं तथा भवन विष्णु कि निद्रा भंग कि इसके बाद बहुत लम्बे काल तक विष्णु और और उन दोनों महादैत्यों में घनघोर संग्राम चलता रहा कोई भी हार मानने को तैयार नहीं था ऐसे में माँ भगवती ने उन दोनों असुरों को भ्रमजाल में उलझा दिया और परिणाम स्वरुप उन दोनों दैत्यों में भगवान् विष्णु को वरदान देने का मन बनाया और वरदान प्राप्त करके भगवान् विष्णु ने उनका संहार किया तब जाकर उनके ऊपर आया संकट दूर हो सका।
महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं:-
।। विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।।
हे माता पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं।
पद्मपुराणमें विंध्याचल-निवासिनी इन आद्या महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबोधित किया गया है:- ।। विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।।
श्रीमद्देवीभागवतके दशम स्कन्ध में कथा आती है :-
सृष्टि रचयिता पितामह ब्रह्माजी ने जब सर्वप्रथम अपने मन से स्वायम्भुव मनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया।
वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ। कलिकाल में माँ अपने भक्तों के थोड़े प्रयास मात्र से उन्हें सर्वस्व प्रदान कर देती हैं जिसका कभी क्षय नहीं होता ।
मन्त्रशास्त्रके सुप्रसिद्ध ग्रंथ “शारदातिलक” में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से सम्बोधित करते हुए यह ध्यान बताया गया है:-
।। सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयाङ्गदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पार्श्वस्थपञ्चाननाम्॥
जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादिसभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचल पर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुमुखवाली इन विंध्यवासिनी के समीप शिव सदा विराजित रहते हैं।
विंध्य क्षेत्र में घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनी का नाम वनदुर्गा भी पडा। वन को संस्कृत नाम अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी/ छठमी को विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से जाना जाता है ।
मां की पताका (ध्वज) , शारदीय व बासन्त नवरात्र में मां भगवती विंध्यवासिनी नौ दिनों तक मंदिर की छत के ऊपर पताका में ही विराजमान रहती हैं। सोने के इस ध्वज की विशेषता यह है कि यह सूर्य चंद्र पताका के रूप में जाना जाता है। यह ध्वज निशान सिर्फ मां विंध्यवासिनी देवी के पताका में ही है ।
अष्टभुजी देवी, यंत्र के पश्चिम कोण पर उत्तर दिशा की ओर मुख किए हुए अष्टभुजी देवी विराजमान हैं। अपनी अष्टभुजाओं से सब कामनाओं को साधती हुई वह संपूर्ण दिशाओं में स्थित भक्तों की आठों भुजाओं से रक्षा करती हैं।
ऐसी मान्यता है कि वहां अष्टदल कमल आच्छादित है, जिसके ऊपर सोलह दल हैं। उसके बाद चौबीस दल हैं। बीच में एक बिंदु है जिसमें ब्रह्मरूप से महादेवी अष्टभुजी निवास करती हैं।
इसके अतिरिक्त वहाँ पर दो अन्य बहुत ही महिमामयी मंदिर हैं जिनमे से एक कालीखोह और दूसरा अष्टभुजा मंदिर के नाम से विख्यात हैं । जिसे त्रिकोण परिक्रमा के नाम से भी जाना जाता है ।
माता विंध्यवासिनी के मुख्या मंदिर से लगभग २ किलोमीटर कि दुरी पर माता काली का मंदिर कालीखोह नामक स्थल पर विदयमान है। मान्यता है कि रक्तबीज के वध के माता काली यहाँ आकर निवास करने लगीं ।
अष्टभुजा मंदिर जो कि मुख्या मंदिर से लगभग ३ किलोमीटर कि दुरी पर स्थित है। एक अन्य मान्यता यह भी है कि माँ विंध्यवासिनी का मुख्य मंदिर माता लक्ष्मी एवं कालीखोह में स्थित मंदिर माता काली को तथा अष्टभुजी मंदिर माता सरस्वती के रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं ।
।।जय माँ विंध्यवासिनी।।