ग़ालिब ने अपने जीवन में दर्द-ही-दर्द झेला, शायद उन्हें लगता था कि मरने के बाद भी उन्हें अपने दुःख-दर्दों से छुटकारा नहीं मिलेगा।
"हैं और भी दुनियाँ में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और"
अपने एक अलग ही अंदाज़ में जीने वाले ग़ालिब जैसा कोई व्यक्तित्व शायद ही अब किसी युग के भाग्य में हो। ग़ालिब एक ऐसा नाम जिसने केवल अपनी शायरी के बलबूते इतिहास में अपनी पैठ बना रखी है। जिसकी शायरी हर आयु, हर वर्ग के लोगों को खूब भाती है, शायरी और ग़ालिब लगभग पर्यायवाची बन चुके हैं। अगर कहीं पर उर्दू/शायरी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित स्तंभों के नाम लिखें जायें तो उनमें एक नाम "मिर्ज़ा ग़ालिब" का भी जरूर होगा। आज हम आपको उनकी हवेली की सैर करवायेंगे, लेकिन उससे पहले ग़ालिब को थोड़े और करीब से जानने की कोशिश करते हैं।
27 दिसंबर 1797 को आगरा (उप्र) में जन्में मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम 'मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान' था, "ग़ालिब" उनका तख़ल्लुस (Pen Name) था। 13 वर्ष की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख्स की बेटी से हुआ, ग़ालिब के सात संताने हुईं लेकिन दुर्भाग्यवश सभी संतानें अल्पायु में काल के गाल में चली गयीं। ग़ालिब मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबारी कवि थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को 'दबीर-उल-मुल्क़' और 'नज़्म-उद-दौला' के खिताब से नवाज़ा। उन्हें बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय मुगल दरबार के शाही इतिहासविद् भी थे। अपने वक़्त के सबसे महान शायर होने के बावज़ूद उनमें इस बात का जरा भी घमण्ड नहीं था। वो खुद मीर साहब का लोहा मानते थे।
"रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब!
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था..."
कहते हैं एक बार जब ग़ालिब ने बहुत उधार की शराब पी ली और पैसे नहीं चुका सके तो दुकानदारों ने उन पर मुकदमा कर दिया। अदालत की सुनवाई के दौरान ग़ालिब ने अपना ये शेर पढ़ा और कर्ज़ माफ़ हो गया।
"कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फाक़ामस्ती एक दिन..."
ग़ालिब अपने जीवन में अनेक शहरों में रहे, लेकिन आगरा से आकर दिल्ली बसने के बाद वो यहीं के हो कर रह गये। आज भी चाँदनी-चौक दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में गली कासिम जान स्थित एक हवेली है जिसे 'हवेली मिर्ज़ा ग़लिब' कहा जाता है। यहीं पर ग़ालिब ने अपने जीवन के अन्तिम 09 वर्ष व्यतीत किये। 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब ने दुनियाँ के साथ अपने दर्दों को अलविदा कह दिया।
"हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता..."