तुंगनाथ मंदिर
उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है, तुंगनाथ पर्वत और तुंगनाथ पर्वत पर स्थित है - तुंगनाथ मन्दिर। यहाँ भगवान शिव की पंच केदारों में से एक के रूप में पूजा की जाती है। लगभग हजार वर्ष पुराना और पंचकेदारो में सबसे ऊंचाई पर बसा है ये शिव मन्दिर।
चोपता दिल्ली से लगभग 410 किमी दूर है। ऋषिकेश से गोपेश्वर फिर चोपता पहुंचने में लगभग 11 घन्टे लगते हैं। चोपता समुंद्रतल से लगभग 2680 मीटर की ऊंचाई पर है और तुंगनाथ मन्दिर की समुंद्रतल से ऊंचाई लगभग 3560 मीटर है।
चोपता की हरियाली और घने जंगल दिल को लुभाने वाले हैं। हवा की ठंडक दिल और दिमाग को सुकून देने वाली है। चोपता उत्तराखंड के बेहतरीन हिल स्टेशनों में से एक है। हिमालय पर्वत श्रृंखला की गोद में बसे इस छोटे से हिल स्टेशन को ‘मिनी स्विट्जरलैंड’ भी कहा जाता है। यहां आपको कोई मकान नहीं दिखाई देगा। हां, सड़क किनारे कुछ ढाबे और चाय की दुकानें आपको जरूर मिल जायेंगी। कुछ गेस्ट हाउस भी बने है। यहां के गेस्ट हाउस में बिजली के लिए सोलर पैनल लगे है। चोपता में कैंपस की भी व्यवस्था हैं। ट्रैकिंग के लिए चोपता से तुन्गनाथ, चंद्रशीला और भी काफी सारे ट्रैक्स हैं, जो जंगलों और खूबसूरत ग्रासलैंड के बीच से गुजरते हैं।
उत्तराखंड आने वाले अधिकतर तीर्थयात्री यमनोत्री-गंगोत्री के दर्शन के बाद सीधे केदारनाथ-बद्रीनाथ निकल जाते हैं. इसलिये चोपता में आपको भीड़ कम ही मिलेगी।
चोपता से तुन्गनाथ मन्दिर की चढ़ाई लगभग 3 किमी है, जो शुरु में तो थोड़ी आसान है पर आगे एकदम खड़ी चढ़ाई है। रास्ता जितना मुश्किल है, उतना ही खुबसूरत भी है। चढ़ाई के दौरान बड़े-बड़े बुग्याल देखने को मिलते हैं। पहाड़ी इलाकों में मैदानों को बुग्याल कहा जाता है। तुंगनाथ मंदिर अपने धार्मिक महत्व के साथ-साथ अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए भी जाना जाता है।
चढ़ाई शुरू होते ही सबसे पहले रास्ते में गणेशजी का एक छोटा सा मंदिर पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि उनके आशीर्वाद से ही आगे की यात्रा बिना किसी विघ्न के पूरी होती है।
ठंडी और ताजा हवाएं और खूबसूरत नज़ारों ने थकावट का अहसास ही नहीं होने दिया और हम कब मंदिर पहुंच गये पता ही नही चला।
तुंगनाथ पहुंचते ही चारों ओर तरह-तरह के रंग बिरंगे फूल, पक्षियों की चहचहाहट और झरनो को देखकर हम सब मंत्रमुग्ध हो गये थे। ऊपर पहुंचकर मंदिर से जब हमने चारो तरफ नज़र घुमाई तो खूबसूरत घाटी, घाटी में बादल और बादलों के पीछे पहाड़, वो नज़ारा अब शब्दोंं में बयां ही नही हो सकता।
इस मंदिर के बारे में पौराणिक कथा है कि महाभारत युद्ध के बाद पांडव अपने भाइयों की हत्या के पाप का प्रायश्चित करना चाहते थे। इसके लिए भगवान शिव का आशीर्वाद पाना आवश्यक था लेकिन भगवान शिव दोषी पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे। भगवान शिव केदारनाथ जा बसे लेकिन पांडव उनका पीछा करते हुए केदारनाथ पहुंच गए। भगवान शिव जैसे ही भैंस का रूप धारण कर धरती में समा रहे थे उसी समय भीम ने उन्हें पहचान लिया और उन्हें जमीन में समाते हुए पीछे से पकड़ लिया था। तब भगवान शिव ने उनको दर्शन देकर पापों से मुक्त किया था। उसी समय से भगवान शंकर के बैल की पीठ की आकृति पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजी जाती है। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान बैल के रूप में अंतर्धयान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमांडू में प्रकट हुआ। जहाँ पशुपतिनाथजी का मंदिर है।
शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुई इसलिए इन चारों स्थानों सहित केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां सभी जगह भगवान शिव के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
तुंगनाथ मंदिर से तकरीबन दो किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई के बाद चौदह हज़ार फीट की ऊँचाई पर चंद्रशिला चोटी है। जहाँ भगवान राम ने रावण वध के बाद कुछ समय बिताया था। चौदह हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित चंद्रशिला चोटी से आप हिमालय की सुदंर छटा का आनंद ले सकते हैं। ऐसा लगता है जैसे हम दूर दिखाई देते पहाड़ों के समानान्तर ही खड़े हो। दो किमी की खड़ी चढ़ाई बहुत मुश्किल है। चन्द्रशिला तक पहुँचना आसान नहीं है। आप यहां ज्यादा देर रुक भी नही सकते क्योंकि यहां की तेज़ ठंडी हवायें आपको यहां रुकने ही नही देगी।
विजयादशमी के बाद तुंगनाथ मंदिर बंद हो जाता है। सर्दियों में यह पूरा इलाका 4 महीने बर्फ की चादर से ढका रहता है। बैसाखी के बाद तुंगनाथ के कपाट खुलने के साथ शुरू होती है पर्यटको की रौनक।
अब अगर आप चारधाम यात्रा पर जायें तो तुंगनाथ जरुर जाएँ जहाँ आप खुद को प्रकृति और भगवान दोनों के समीप पायेंगे।