इस यात्रा कि शुरुआत मैने अपने शहर बरियाघाट स्थित शिव मंदिर से की, ये जीवन की पहली ऐसी यात्रा थी जो मैं अकेल बीना किसी विशेष सुविधा के साथ करने वाली हूँ।
करोना काल होने के कारण समस्याऐं होने वाली है, फिर भी ये यात्रा की जानी है।
इस पूरी यात्रा में चाय की प्याली साथ चलने वाली है, क्योकि मेरे देखे बीना चाय के कोई यात्रा पूरी नहीं हो सकती।
तो चलिऐ मेरे साथ केदारनाथ ।
सुबह 5 बजे मैने यात्रा शुरू की, मिर्जापुर - प्रयागराज- लखनऊ - बरेली - हलद्बानी - भीमताल तक पहुँचने मे मुझे कुल 30 घंटे बस से यात्रा करनी पडी़।
भीमताल में मेरे आध्यात्मिक गुरू शुन्यम् प्रकाश जी का आश्रम है।
यह मेरे लिए अद्भुत संयोग था कि मै अपने आध्यात्मिक गुरू शुन्यम प्रकाश जी के जन्मदिवश पर वहा पहुँच गयी थी। चुकि करोना काल के कुछ नियम थे, जिनकों मानना जरुरी था, तो 7 दिन कोरनटाईन होना था।
मैंने इस कोरनटाईन के दिनो को अपने मौन साधना के लिए उपयोग कर लिया। इस दौरान 7 दिन एक कमरे से बिना बाहर निकले और किसी से बीना बात किये बीते और निश्चित ही यह मेरे लिए अद्भुत अनुभव रहाँ।
मौन साधना
मौन साधना
मौन साधना
मौन साधना
मौन साधना
मौन साधना
मौन साधना
7 दिनो के मौन साधना के उपरान्त आगे की यात्रा आरम्भ हुयी।
आश्रम से निकलते निकलते 10 बज गये, करोना के कारण बसो की संख्या बहुत सीमित थी, तो मुझे शेयरिंग टैक्सी का सहारा लेना पडा़ चुँकि उत्तराखण्ड सरकार के निर्देशानुसार एक टैक्सी में 5 से ज्यादा सवारी को परमिशन नहीं थी, तो हर सवारी को दो गुना किराया देना पड़ रहा था, खैर 6 घंटे की यात्रा के दौरान हमारे टैक्सी के ड्राईवर प्रसांत से बाते करते करते अलमोडा़ पहुचे । अल्मोडा़ पहुँच कर पता चला कि 4 बजे के बाद आगे के लिए टैक्सी भी मिलना मुशकिल है, फिर थोडा़ पूछ ताछ करने पर पता चला कि अल्मोडा़ से जोरहाट तक के लिए टैक्सी मील रही है और अगर 5 बजे तक पहुँच गये तो द्बारहाट तक के लिये टैक्सी मिल सकती है। समय काफि था तो मैने प्रयास करना उचित समझा।जोरहाट में काफि इन्तेजार के बाद भी कोई टैक्सी नहीं मिली, तो मै आसपास कही नाईट कैम्पिग करने के बारे में मै सोच ही रही थी कि सामने से एक मारुति 800 आती दिखी, मैने बे मन से ही बस लिफ्ट के लिए हाथ उठा दिया और संयोग से टैक्सी रुक गयी।
टैक्सी में बैठे आदमी ने पूछा कहा जाना है, मैने बताया द्बारहाट जाना है, वो उधर ही जा रहे थे तो लिफ्ट मील गयी।
बातो बातो में पता चला वो पडि़त है और कही श्राद कराने द्बारहाट जा रहे है।
जब उनको पता चला कि मैं केदारनाथ जा रही हूँ, अकेली तो वो काफि आषचर्य से भर गये। अब रात होने लगी थी और पंडित जी जानते थे कि द्बारहाट से आगे के लिए अब टैक्सी मिलना नामुम्किन है, इसलिए वो रात में रूकने के बारे में बात करने लगे, मैने उनको बताया कि मेरा कही कैम्पिंग का इरादा है तो बेचारे परेशान हो गये और मेरे बार बार मना करने के बावजूद उन्होने अपने एक जजमान मोहनचद्र तिवारी जी के घर रूकने कि व्यवस्था कर दी।
तिवारी जी से पता चला सुबह 5 बजे एक बस सीधा कर्णप्रयाग जाती है।तो तै किया इसी बस से निकला जाय। फिर तिवारी जी से काफि देर तक बाते होती रही। मै रोज की तरह सुबह 3 बजे उठ गयी और मेडिटेशन किया और भजन का आन्नद लिया, मगर एक मिनट की देरी के कारण बस छूट गयी। अब एक ही रास्ता बचा, टैक्सी से आगे का सफर किया जाय या अगले दिन का इन्तेजार किया जाय। क्यूँकि अगली बस का कोई भरोसा नही था की कब आयेगी या नहीं आयेगी।
वही रोड़ के किनारे सुबह की चाय का आन्नद लेते हुये थोडी़ देर इन्तजार किया मगर कोई टैक्सी भी नहीं दिखी तो सोचा रास्ते को कदमो से नापने का आन्नद लिया जाय और पैदल ही निकल लिए।
एक किलो मीटर चलने पर पिछे से आती एक एस यू वी दिखी तो लिफ्ट मील गयी, गाडी़ आगरा से चौखुटिया किसी को पिक करने जा रही थी इस तरह चौखुटिया पहुचना हुआ। मुश्किले अभी भी कम नहीं थी पर सफर का पूरा मजा मैं लुट रही थी।
जोरहाट से आदिबद्री होते हुये गैणसर पहुँची, गैणसर गरमीयो में उत्तराखण्ड की राजधानी बन जाती है। गैणसर से कर्णप्रयाग, कर्णप्रयाग संगम घाट पर पहुचते ही सारी थकान रफूचकर हो गयी। यहा अलकनंदा और कर्ण गंगा ( पिण्डर) दो नदियों का अद्भुत मिलन देखने को मिला।
थोडा़ समय कर्णप्रयाग पर बिताने के बाद मै रूद्र प्रयाग के लिए चल पडी़।
रूद्र प्रयाग पहुँचते पहुँचते 2बज गये और दो बजे के बाद आगे जाने के लिए कोई साधन नहीं मिला तो मैं संगम स्थल पर चली गयी। जहाँ एक ओर से अलखनंदा और दुसरी तरफ से बह रही मंदाकीनी आपस में मिल कर गंगा बन जाती हैं।
दोनो मिल कर जिस तरह से एक हो जाती है, और फिर कभी अलग नही होती जब तक की सागर में ना मिल जाये।
संगम ने कुछ यू लुभा लिया कि रात वही कैम्पिंग करना तै कर लिया फिर स्नान करके साम के आरती की प्रतिक्षा करने लगें, साम 5:30 पर आरती शुरू हुयी। मै जहा रूकी वही चंद सीडि़ या चड़ के चामुडा़ माँ का मंदिर है। जब दर्शन करने गये तो वहाँ माँ सोमवारगिरी जी से मुलाकात हुयी उनके आग्रह पर मंदिर के पास ही अपना टेंट डा़ल लिया गंगा का किनारा हो और चाय फिर क्या बात है।
रात भर टैन्ट में सोने का आन्नद लेने के बाद मैं माँ सोमवारगिरी से बापसी में फिर से मिलने का वादा कर आगे की यात्रा पर निकल गयी।
रूद्रप्रयाग से गुप्तकाशी
गुप्तकाशी से सोनप्रयाग
सोनप्रयाग से गौरी कुण्ड पहुचने में 3 बज गये। अब मेरे पास दो विकल्प थे, पहला की मैं रात गौरीकुण्ड में रूकू और अगले दिन सुबह से 14 किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू करू, मगर मुझसे रूका नहीं गया और मैने शाम को ही यात्रा करने का निर्णय कर लिया।
मेरे साथ चार और लड़को ने चडा़ई शुरू कि हम बस 5 लोग ही फिलहा साथ चल रहे थे। मगर वो चारो युवा थे तो काफि तेजी से रास्ता तै कर रहे थे। तीन किलोमीटर तक तो मै भी साथ चलती रही मगर फिर तेजी में कमी आने लगी तो मैने रूक कर चाय पिना उचित समझा।
वो लड़के अब आगे निकल गये थे और मैं पिछे अकेली रह गयी। 6 बजे मै भीमबली पहुँची ये चडा़ई का पहला पडा़व था, जोकि 5 किलोमीटर पर था अभी 11 किलोमीटर और चलना था अगला पडा़व निमचोली था जो अभी 5 किलोमीटर दूर था।
मै एक दुकान पर रूकी और एक आलू पराठा आडर किया।
दुकानदार ने रात भीमवली में ही रूकने को कहा क्युकि थोडी़ देर में अंधेरा होने वाला था, दुकानदार ने बताया कि या तो आप घोडा़ कर लो या कल जाओ क्युकी जंगलो से भालू आते है।
मैने दुकानदार से पुछा रास्ते मे लाइट तो जलती है ना, तो उसने कहाँ हाँ। तो मैने सोचा तब तो कोई समस्या ही नही, और मै अपना आलू का पराठा ले कर आगे बड़ गयी। न कोई आगे दिख रहा था ना ही पिछे, साम ढल रही हो अंधेरा सब कुछ अपने आगोश में लेने को तत्पर हो और ऐसे में आप एक अन्जान जगह अकेले सफर पर हो तो डर ओर रोमान्च का मिला जुला अनुभव होता है, वो बडा़ अनोखा होता है।
थोडी़ ही देर में अंधेरा हो गया आस पास कोई दिख नही रहा था, यहाँ तक तो सब ठिक था, मगर अब रास्ते पर जलने वाली लाइटे भी नहीं जल रही थी और दुर से एक लाईट आ रही थी, जहाँ तक जाना था, गुप अंधेरे में आपके अपने कदमो की आवाज डराने को काफि थी, कि जगह जगह से गिरते झरनो की आवाज, हवा से पत्तो में होती सरसराहट और आसपास ही कही भालू के होने के भय ने इतना सजग कर दिया कि लौटते समय मुझे हर वो पत्थर याद रहा जहाँ मैने कदम रखे थे।
अब मै मेरे मोबाईल के टार्च की रोशनी और बीना नेटवर्क के 3 किलोमीटर का रास्ता तै कर मै निमचोली पहुची।
रात के 9 बज चुके ये रास्ते मे हुई बारिश ने मुझे और मेरे बैग को पुरी तरह भीगो दिया था। हालाकि वहा रहने के लिए किराये पर टेन्ट मिल रहे थे, मै अपना टेन्ट लागाने मे जुट गयी तभी दो लोग मेरे पास आये और मदद के लिए पूछा, उन्होने अपने रूम में रुकने को भी कहाँ, मैने उनको धन्वाद दिया और उन्के रूम के बाहर ही टेन्ट लगा लिया, रूम मे तो रोज सोते है, खुले आसमान का मजा कुछ और है।
आग जलाई और सारे कपडे़ बाहर निकाले लगभग सारे कपडे़ भीग हुए थे। ये सब करते करते 10:30 बज गये इस तरह से मेरी यात्रा का १२ दिन पूरा हुआ।
मै अपने समय से 3 बजे उठ गयी मगर अंधेरा और ठण्ड देख कर मैने थोडा़ इन्तेजार किया, अपना सामान समेटा और आगे की यात्रा के लिये चल पडी़, केदारनाथ की चडा़ई कठिन है मगर मैने रास्ते में कुछ बोर्ड देखे थे धिरे चले प्रकृति का आन्नद ले, तो मै सच में प्रकृति का पुरा आन्नद ले रही थी।रास्ते में रूक रूक कर प्रकृति को जी भर कर निहारा और कैमरे में कैद करने की नाकाम कोशिश की।
12 बजे केदारनाथ पहुचें।बाहर से ही दर्शन कर एक रूम लिया क्योंकि वहा काफि ठण्ड थी, टेन्ट में सोने से तबियत बिगड़ सकती थी। जब पहुची तो खिलि खिलि धूप थी 10 मीनट के भीतर ही तेज बारीश होने लिगे। रहने की जगह केदारनाथ प्राग्ण के बिल्कुल बगल मे ही थी, तो भी कमरे से बाहर झाकते ही बाबा के दर्शन हो जाते । चुंकि पैदल यात्रा से थक गये थे तो खाना खाया और सो गये, शाम को जब निंद खुली तो 5:30 हो रहे थे।
तेज बारिश के बीच 6:30 पर आरती शुरू हुयी ऐसे मे आरती में शामील होना अद्भूत अनुभूति थी। 8:00 बजे तक सब खाली हो जाता है 9:00 बजे के बाद प्राग्ण में कोई दिखायी नहीं देता इसीलिए मैं भी खाना खा के सो गयी ।
अगले दिन सुबह उठ कर सुर्य उदय का नजारा देखना बहुत मनोरम और मन को मोह लेने वाला था। चाय पीकर एक किलो मीटर पर भैरो बाबा का मंदिर है वहाँ दर्शन के लिये निकली तो रास्ते में वहाँ के स्थानीय जंगली फूलो ने अपनी ओर आकर्षित कर लिया।
मुझे इस तरह से फोटो खिचते देख वहा के पुजारी भट्ट जी ने भी अपनी फोटो खिचने का आग्रह किया इस प्रकार हमारे बिच संवाद शुरु हुआ और वही भोजन करने का अवसर भी मीला। साधुओ की जीवन पर काफि देर चर्चा हुयी कुछ जीवन के नये आयामो से रुबरु होने का अवसर मिला।
इस प्रकार कई सालो से प्रतिक्षीत यात्रा का समाप्न हुआ।
सुबह 5 बज ही यात्रा प्रारम्भ कर दी, वहाँ के कुत्तो से खास लगाव हो गया था मुझे २ ही दिन में, एक तो मेरे साथ तीन किलो मीटर तक चला आया, उसको बोलना पडा़ कि बस अब तू रूक और हमको जाने दे। कभी कभी बेजूबान जुबान वालो से ज्यादा बात करते है।
उसको विदा करके मै तेज कदमो से निचे उतरने का असफल प्रयास करने लगी, ताकि समय से गुप्त काशी पहुच सकू मगर तबियत थोडी़ गड़बड़ लगने लगी रास्ते में दवा लेकर धोडा़ आराम करना पडा़ ।
केदारनाथ तक चड़ना कठिन था, तो उतरना भी कत्तई आसान नहीं था। पुरी यात्रा में जो बाते सीखि, वो ये थी की मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लिजिये और आप कही भी चले जाओ वो एक पल को भी दुर नहीं होते, जो दिल के करीब होते है।
भीमबली तक आते आते मेरा बुरा हाल था, मेरा बैग भी कुछ ज्यादा ही भारी था, एक खच्चर वाले ने मदद की पेशकस की तो मैने स्वीकार कर ली, अब मेरा बैग उसने ले लिया था । नाम पुछने पर उसने अपना नाम नवीन बताया, हम दोनो बाते करते - करते चलने लगे, उसने बताया की आपदा में उसके पिता की मौत हो गयी थी, वो उस समय रामबाडा़ में ही था किसी तरह पहाडो़ पर चड़ कर तीन दिनों तक बीना खाने के किसी तरह जीवन बचा पाया था।
बीना बैग के चलना भी मुश्किल ही लग रहा था, सामने बह रहे झरने को देखा तो मुँह धोने और पानी पिने को जी चाहा, पानी पिने और मुँह धोकर मुडी़ तो देखा झरने का पानी सड़क के ऊपर से बह रहा था, जाते समय भी जूते भीग गये थे फिर पूरे रास्ते भीगे जूतो में ही चलना पडा़ था, इसी ख्याल से मेने सोचा रेलींग के बिल्कुल करीब पडे़ पत्थर पर पैर रख पानी की धारा पार कर लू, मगर पत्थर पर पैर रख्ते ही वो डिसबैलेन्स हो गया, अब मेरा एक पैर खाई में दुसरा सड़क पर रेलींग हाथ में सब कुछ एक सेकेंड से भी कम समय में घट गया। साथ चल रहें नवीन ने तुरंत साथ दिया मैने उसे रोका पिछे हटने को कहाँ, खुद कि स्थिती जाची तो पाया मामला कन्ट्रोल में है, वापस से नवीन को हाथ देने और उपर खिचने को बोला। इस घटना ने बताया जीवन कितना अनिश्चित है, अगली घडी़ का पता नहीं और सालो का प्लान हम बनाते है। इसके बाद नवीन पूरे रास्ते मेरा हाथ पकड़ कर मुझे गौरी कुण्ड तक छोड़ने आया, एक घंटे पहले मिले नवीन से इतना अपनत्व मिला जो कभी कभी किसी के साथ सालो रह कर भी नहीं मिलता।
गौरी कुण्ड से टैक्सी में बैठे तो साथ की सीट पर रेड्डी ( गेरूवा में एक प्रोफेसनल साधू) साथ हो लिए जैसा की नाम से ही पता चलता है वो आन्ध्रप्रदेश से थे तो भाषा एक समस्या थी, मगर बडी़ जल्दी ये बात साफ हो गयी की वो बाई प्रोफेसन साधू है ना की बाई नेचर।
सोनप्रयाग पहुँचने पर आभास हुआ पास में कैश ना के बराबर बचा था और सोनप्रयाग में एक भी ए टी एम मशीन नही थी, खैर सोनप्रयाग से गुप्तकाशी पहुँचे, वहा दो मशीने थी मगर दोनो बन्द अब ये चिन्ता का विषय था। चुंकि 5 बज चुके थे तो रूद्रप्रयाग के लिए साधन मिलना भी कडी़ चुनौती थी। मगर मै एक बार फिर भाग्यशाली निकली एक गाडी़ जो वापिश जा रही थी मिल गयी। 8 बजे रूद्रप्रयाग पहुँचे तो सारे ए टी एम बन्द तब मेरा किराया भी रेड्डी ने दिया और हमारे रात के खाने का भी।इसके बाद हम पहुँच गये चामुण्डा माता के मंदिर, यह वही मंदिर है जो 2013 में आयी केदारनाथ आपदा में बाल- बाल बच गया था और टिवी पर इसकी काफि चर्चा हुँयी थी। रात मंदिर पर सो कर बीती।
सुबह माँ से मिली तो वो इतनी खुश थी जैसे उनका बहुँत अपना कोई बडा़ काम कर के आया हो।
सुबह रेड्डी के साथ बस स्टैनड तक आना हुआ, ए टि एम से पैसे निकाला और धन्यवाद के साथ रेड्डी को विदा किया और वापस माँ के पास आ गयी । माँ के कहने पर एक दिन वही रूकना हुँआ, वैसे तो माँ 8 बजे तक सो जाती थी मगर उस दिन वो और मै देर रात तक बात करते रहे। मेरे बार बार आग्रह करने पर भी उनहो ने मुझे कुछ भी नहीं करने दिया। अपने हाथो से भोजन पकाया और खिलाया। कही सुना था कि आप ईश्वर की ओर एक कदम बढा़ओ तो वो आपकी ओर हजार कदम बढा़ता है। इस बात की अनुभूती मुझ हर कदम पर होती रही।उस रात बिल्ली के बच्चो के साथ खुब अच्छा समय बिता एक तो रात भर मेरे उपर ही चड़ कर सोती रही, कितनी बार कोशिश की निचे उतारने की मगर क्या मजाल जो वो मान जाय, इस तरह मेरी इस यात्रा का एक दिन और बीत गया।
सुबह आठ बजे माँ से इस वादे के साथ विदा लिया की वो जब भी बुलाएगी मैं वापस उनसे मिलने जरूर आउगी। और फिर घर की तरफ मेरे कदम चल दिये।