chevron right

Tripoto
10th Sep 2020

ROOPKUND

Photo of ROOPKUND by माया मृग

अगस्त की सात तारीख, लॉकडाऊन के लंबे और उबाऊ दौर से परेशान मैं और मेरे साथी, बरसात का दिनोंदिन भयानक रूप धारण करना, अनलॉक 3.0 की घोषणा और इन सब के साथ मेरे दोस्त रविशंकर गुंसाईं की एक जगह पर कैद रह जाने की अकुलाहट.... इन सभी " कभी खुशी कभी गम" जैसे हालातों में आखिर कार हमने फैसला किया कि अब जरूरी एहतियातों के साथ निकला जाना चाहिए। हम यानी कि मैं, रविशंकर गुसांई और दिनेश देवतल्ला "ड्रैगन" पहले से ट्रेक के साथी रहे हैं , एक दूसरे की ताकत और कमजोरियों को जानते रहे हैं, यही वजह थी कि इस बार के बदले हुए हालातों में भी हम ट्रेक की योजना बनाने की हिम्मत जुटा सके। मैं हरदोई, उ0प्र0 से अपनी बाइक से अल्मोड़ा के लिए पहले ही आ चुका था और अपने मित्र नीरज भट्ट जी के आवास पर क्वारंटीन अवधि पूरी कर रहा था। तो इसी बीच रविशंकर जी फूलों की घाटी जाने की योजना लेकर अल्मोड़ा पहुँच गए । उनकी पूरा 7 दिन की "फुलप्रूफ" योजना तैयार थी कि किस प्रकार कहाँ और कैसे हमें चलना और ठहरना है। लेकिन उनका फुलप्रूफ अक्सर बीच में उलटफेर करके कुछ नया रूप ले लेता है । इसी चर्चा में समय लगभग 4 बज चुका था तो हमने तय किया कि चलो आज कम से कम बागेश्वर तक पहुँचा जाए ताकि कल के लिए कुछ दूरी कम की जा सके। इस तरह मैं और रवि, नीरज दा से विदा लेकर बागेश्वर के लिए निकले। रास्ते में कसारदेवी पहुँचकर हमारे पुराने साथी राजू मेहता जी के "द कसार किचन" पर हल्का फुल्का नाश्ता किया और फिर पुराने गानों की मस्ती के साथ आगे बढ़ चले। इसी बीच हमारे तीसरे साथी दिनेश "ड्रैगन" जिन्हें आज हमें अल्मोड़ा में आकर ज्वाइन करना था, अपनी कार को एक दुर्घटना में घायल कर बैठे तो फिर एक बार हमारी यात्रा पर संशय के बादल घिरने लगे। इसी ऊहापोह में मैं और रवि बागेश्वर पहुँच चुके थे और यहाँ हमारे स्वागत के लिए तैयार थे हमारे साथी ललित बिष्ट जो इन दिनों एल आ सी बागेश्वर में तैनात हैं। आज की रात हमें इन्हीं के सानिध्य में रुकना था और यहाँ से ललित, जगदीश मेहता और एल आई सी के एक अन्य साथी रोहित कल से हमारी यात्रा में हमारे साझीदार होने वाले थे।

बात करते करते रात गहरा गई थी और हम सब की चर्चा के केंद्र में थे दिनेश "ड्रैगन" जिनकी कार बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी थी। एयर बैग की कृपा से वो सुरक्षित तो थे लेकिन फिर भी हल्की चोटें आई थीं। बहरहाल उनके हौसले को सलाम कि रात 11 बजे उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि सुबह वो हमें रास्ते में ज्वाइन करेंगे।

इसी बीच हर बार की तरह रवि के "फुलप्रूफ" प्लान ने अचानक से बड़ा उलटफेर किया और अब ट्रेक में बेदिनी बुग्याल ने एंट्री ली जो फाइनल होते होते रूपकुंड हो गया। इस तरह फाइनली यह तय हुआ कि 8 अगस्त की सुबह हमारी यात्रा रूपकुंड के लिए शुरू होगी। मौसम विभाग के एलर्ट के बीच रूपकुंड ट्रेक ( जिसकी कठिनता और भूस्खलन क्षेत्र के विषय में सुना था) के लिए ढेर सारी उत्सुकता और थोड़े से डर के बीच फिलहाल हमने नींद का स्वागत करने का विकल्प चुना।

अगली सुबह जल्दी उठने का वादा हमेशा की तरह हवाई सिद्ध हुआ और सभी साथियों को रूपकुंड के हिसाब से तैयारी करने में थोड़ा वक्त लग गया। अब समस्या यह थी कि एक कार और यात्री छः, ऊपर से लॉकडाउन के नियम के तहत एक कार में चार ही लोगों को अनुमति थी। तो इसका हल यह निकाला गया कि यहाँ रवि की एक पुरानी बाइक जो सालों पहले से मरीज की तरह क्वारंटीन में थी, उसे दुनिया दिखाने का निश्चय किया गया। इस प्रकार ललित और रोहित ने बाइक तथा मैं, दिनेश, जगदीश और विद्युत गति से पहाड़ चढ़ने के दावे के साथ रविशंकर जिन्हें फिलहाल कार का स्टेयरिंग भी थामना था, ने आगे बढ़ने का निश्चय किया। हमारे प्लान के अनुसार तो हमें आज "वाण" पहुँचना था लेकिन समय अधिक हो जाने के कारण हमारा आज के दिन का सफर लोहाजंग में समाप्त हुआ।

लोहाजंग इस ट्रेक का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव है और आखिरी कस्बा जहाँ से आपको ट्रेकिंग से जुड़ी शॉपिंग करने के लिए दुकानें मिलती हैं। यहाँ से जरूरत का सामान आप खरीद भी सकते हैं या फिर किराए में ले सकते हैं। जूते से लेकर स्टिक तक सारा सामान आपको मिल जाता है।

हम भी रूपकुंड ट्रेक की तैयारी के साथ तो आए नहीं थे, इसलिए ना जूते उसके मुताबिक थे न कपड़े। तो हमने छिटपुट खरीदारी के साथ जूते किराए में लिए और अगले दिन वाण पहुँचकर बाकी तैयारी करने का तय किया।

आज रात्रिविश्राम लोहाजंग की खूबसूरत वादियों में था। यहाँ रात होते ही तापमान तेजी से गिरने लगता है और अब तो मौसम भी करवट लेने लगा था। रात होते होते धीमी बारिश और तेज होती जा रही थी। बादल, जमीन पर आवारा बने घूम रहे थे । बादलों के घेरे और बारिश के बीच, हमने एक स्थानीय होटल में खाना खाने के बाद अपने आश्रय स्थल पहुँचना ज्यादा उचित समझा। हमारी इच्छा घूमने की थी, लेकिन मौसम ने इसकी इजाजत नहीं दी और अंततः हम ने कमरों में पहुँच कर सोने का निर्णय लिया। सोने से पहले हर रात की तरह एक घंटा रवि और दिनेश का मुशायरा, साथ ही साथ कॉलेज के दिनों के साथी रहे ललित और रवि की चटपटी नोंकझोंक के बीच हम सब एक एक करके कब सो गए, पता ही नहीं चला।

सुबह जब नींद खुली तो बारिश का रूप देखकर हम सब काफी निराश थे । बारिश शायद रात भर होती रही थी और सुबह भी इतनी तेज थी, कि हमारा निकलना नामुमकिन सा लग रहा था। ऐसे मौसम में भी जगदीश की हिम्मत का शुक्रिया की वो किसी होटल से हमारे लिए चाय का का इंतजाम कर लाए। चाय की चुस्कियों के बीच हम सभी साथियों ने एक दूसरे का विचार जानने की कोशिश की तो यह निकल कर सामने आया कि भले ही इंतजार करना पड़े लेकिन हमारी मंजिल रूपकुंड ही होगी। इस तरह हमारे भरोसे को मौसम ने भी समझा और बरसात कुछ धीमी हुई तो हमने वाण तक जल्दी पहुँचने का निर्णय लिया ताकि आज ही ट्रेक शुरू कर सकें। मौसम को देखते हुए यह संभव था कि हमें रास्ते में समय सामान्य से अधिक ही लगने वाला है।

इस प्रकार लोहाजंग से नाश्ता करने के बाद बारिश और बादल के कोहरे के बीच हम वाण के लिए निकले। रास्ते में बारिश और टूटी सड़क ने गाड़ी और हमारा बखूबी इम्तेहान लिया। रास्ता कमोबेश वैसा ही था जैसा पहाड़ के दुर्गम इलाकों में अक्सर होता है। लेकिन यह भी एक फैक्ट है कि पहाड़ में जहाँ तक रोड पहुँची है( भले ही उसकी हालत कैसी भी हो), उसे दुर्गम कहना उन सुदूर स्थित गाँवों का अपमान होगा जो इन सड़कों तक पहुँचने में ही पूरे दिन का सफर माँगते हैं।

बहरहाल सड़क उतनी खराब नहीं है, जितनी इस लगातार होती बारिश ने हमारे लिए बना दिया था। इस वजह से राह और चुनौतीपूर्ण हो गई थी। दिनेश के मृत्युंजय मंत्र के जाप के साथ साथ हम वाण पहुँचे जहाँ से हमारे एक स्थानीय गाइड केदार राम जी हमारी इस चुनौतीपूर्ण यात्रा के लिए तैयार थे। कोरोना संकट ने इन सुदूर गाँवों में गाइड और पोर्टर का काम करने वाले युवाओं को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया है। केदार जी ने बताया कि हालात यह हो गए हैं कि पर्यटन बंद होने से स्थानीय युवा अब सिर्फ दैनिक मजदूरी के भरोसे है,वह भी यदा कदा ही मिलती है। इस प्रकार किस तरह रोजी रोटी का भयानक संकट खड़ा हो गया है। हम इन सभी अनुभवों को अपनी यादों में जोड़ते आ रहे थे। जब से हमने यात्रा की शुरुआत की थी, उस समय से ही कोरोना के बाद के हालात, पहले से काफी अलग नजर आ रहे हैं। यात्राओं का स्वरूप भी बदला है और तरीका भी।

बहरहाल हमने जल्दी जल्दी टेंट और स्लीपिंग बैग की व्यवस्था की क्यूँकि यहाँ से आगे हमें अगर ज्यादा से ज्यादा कुछ मिल सकता था, तो सिर्फ वन विभाग के बने हुए शेल्टर। इसके अतिरिक्त और किसी सहायता की उम्मीद नहीं थी। और इस समय ट्रेक बंद होने के कारण, किसी ग्रुप से मुलाकात होना तो असंभव ही था। ऊँचे पहाड़ी इलाके और जंगल देखने में जितने खूबसूरत होते हैं, सुविधाओं के अभाव में उतने ही निर्मम भी हो सकते हैं। इसलिए जरूरी है कि आप के पास ठहरने और खाने की पर्याप्त व्यवस्था हो। इस लापरवाही का खामियाजा हम एक पुराने ट्रेक में भुगत चुके थे, इसलिए इस बार हम सब पहले से ही सजग थे। हमने प्लान बनाया था कि हम दो दिन में ट्रेक खत्म करेंगे। पहले दिन वाण से बेदिनी बुग्याल या जहाँ तक समय रहते जा सकें और अगले दिन रूपकुंड जाकर वापस वाण तक आने का प्लान था। इस हिसाब से हमने राशन और अन्य जरूरत का सामान लेकर अपना ट्रेक शुरू किया और सोने पर सुहागा कि ट्रेक शुरु करने के साथ ही शुरू हुई तेज बारिश। लेकिन हमने अब आगे बढ़ते रहने का निश्चय किया । प्रयास यह था कि आज जितनी दूरी कवर कर लेंगे, कल के लिए ट्रेक उतना ही आसान होगा। इसी उम्मीद में हम बढ़ते जा रहे थे। जंगल धीरे धीरे काफी घने हो रहे थे। फिलहाल हमारा अगला पड़ाव 'घैरोली पातल' था जहाँ वन विभाग के शेल्टर थे। हम इस कोशिश में थे कि जल्दी से जल्दी वहाँ पहुँचे तो शेल्टर में कुछ देर बारिश से निजात मिले। इसी बीचे मेरे रेनकोट की चेन टूट चुकी थी और कपड़ों का भीगना शुरू हो चुका था। ये था किस्मत का खेल, ना हमारे पास कोई अतिरिक्त रेनकोट था ना पोंचो। अब मैं पूरी तरह किस्मत के भरोसे था। मैं और दिनेश ट्रेक के घोंघे हैं, तो रवि खरगोश.... अब इन बेमेल जंतुओं का एक साथ चलना भी एक चमत्कार ही है। खैर एक दूसरे का उत्साह बढ़ाते हुए हम तेज बारिश में बढ़े जा रहे थे।ट्रेक रूट पर अब पानी तेजी से बहते हुए आ रहा था, जिसके बीच हम अपना रास्ता पकड़े हुए चल रहे थे। इस समय उम्मीद का बस एक ही डायलॉग होता है जो केदार के मुख से सुनने को मिलता था, वो था " बस थोड़ा सा ही है, जल्दी जल्दी पार कर लो, पहुँच जाएँगे बस अभी।" लेकिन वह थोड़ा कभी भी " थोड़ा" नहीं होता, बहुत होता है।

तो इस तरह हम शाम होते होते "घैरोली पातल" पहुँचे। यहाँ वन विभाग के एक दो कर्मचारी थे जिन्होंने अपनी छोटी सी गृहस्थी बसा रखी थी। वहाँ हमने थोड़ी देर रुकने का निश्चय किया और चाय पीने के बाद आगे जाने या न जाने का निर्णय लेने की सोची।

लेकिन सरप्राइज यहाँ भी हमारा इंतजार कर रहा था। दरअसल पिछले कुछ समय से कोर्ट के एक निर्णय के अनुसार, "घैरोली पातल" के ऊपर अब कहीं भी रुकने या कैंपिंग करने पर प्रतिबंध है। इसका सीधा सा मतलब था कि हमें यहीं रुकना होगा और अगले दिन रूपकुंड जाकर वापस कम से कम यहाँ तक तो आना ही होगा। यह एक बड़ी चुनौती थी । हमने जितना सुना था, उसके मुताबिक बेदिनी तो ठीक है लेकिन उससे आगे का रास्ता काफी कठिन और खतरनाक था, ऊपर से लगातार हो रही बारिश ने किस्मत में चार चाँद लगा रखे थे। समझ नहीं आ रहा था कि क्या होगा और कैसे होगा, अगर कुछ पता था तो बस इतना कि रूपकुंड पहुँचेंगे जरूर।

फिलहाल कल की कल पर छोड़कर हमने शेल्टर में आग जलाई और अपने कपड़े , जूते सुखाने की जद्दोजहद शुरू की। सब लोग काफी थक चुके थे । रात के गहराते ही झींगुर और तरह तरह की जंगली आवाजों के मुकाबिल हमारी एक ही आवाज थी, वो थी रवि की शायरी और दिनेश की वाह वाह। आखिरकार इस मुकाबले में झींगुर जीते और हम सब अपने स्लीपिंग बैग में पैक होकर गहरी नींद में सो गए।

आज 10 अगस्त की सुबह थी। और क्या खूबसूरत सुबह । बादल छँट गए थे और हमें सामने त्रिशूल पर्वत के दर्शन हो रहे थे। हमारा उत्साह भी वापस आ चुका था। कि अब मौसम खुल चुका है और ट्रेक की मुश्किलात कुछ कम होंगी। लेकिन यह क्षणिक खुशी थी। कुछ देर बाद बादलों ने वापस आसमान पर कब्जा कर लिया। आज का दिन रूपकुंड का दिन था और हमारे ट्रेक का सबसे मुश्किल दिन। आज हमें 16000 फीट ऊँचाई हासिल करनी थी । यह अपने आप में रोमांचक था। लेकिन अभी तक हमने जो रास्ता तय किया था, वह इस आने वाले रास्ते के मुकाबले कुछ भी नहीं था। अब रूपकुंड तक इसी कमोबेश सीधी चढ़ाई ही चढ़ाई थी। तो हमने सुबह जल्दी ट्रेक शुरु किया और पहले पड़ाव में हम पहुँचे "बेदिनी बुग्याल" । और यहाँ पहुँचते ही फिर से कुछ पलों के लिए बादल हटे तो त्रिशूल और नंदाघुंटी की चोटियों की मनोहारी छवियाँ हमारे सामने थी। बेदिनी और आली बुग्याल दोनो करीब आस पास ही हैं और काफी विशाल चरागाह हैं। बेदिनी बुग्याल के मध्य में एक कुंड है जिसमें पड़ते बादलों के प्रतिबिंब स्वर्गिक दृश्य निर्मित करते हैं। हम अपनी मंजिल के लंबे रास्ते के बावजूद यहाँ कुछ देर ठहरने का मोह नहीं त्याग सके। पता नहीं क्यूँ मन के अंदर ऐसा कुछ चल रहा था कि अभी देख लो, वापसी का क्या भरोसा कि क्या समय हो और क्या हालात हों।

Photo of undefined 1/7 by माया मृग

कुछ समय रुकने के पश्चात आगे के सफर को ध्यान में रखकर हमने फिर चलना शुरू किया। बेदिनी एक विशाल बुग्याल है जिसे पार करना ही अपने आप में एक छोटा मोटा ट्रेक है। और अब हमारा अगला पड़ाव था "पातर नचौनी"। रास्ता अब धीरे धीरे कठिन होता जा रहा था। हालांकि कुछ दूर चलने के पश्चात पातर नचौनी तक का रास्ता काफी हद तक आसान है। बेदिनी बुग्याल को पार करने के पश्चात ही फिर से हल्की बरसात शुरु हो गई थी। बहुत हल्की फुहार जो ज्यादा मुश्किलें तो पैदा नहीं कर रही थी, लेकिन हाँ कपडों को नम करने के लिए काफी थी। हमारे दो साथी आगे जा चुके थे । एक गलती ये हुई थी कि मेरा टूटा फूटा रेनकोट भी उन्ही के बैग के साथ आगे जा चुका था और अब हल्की फुहार में ये डर था की आगे अगर बारिश बढ़ी, तो इस ऊँचाई में आने के बाद वो बहुत भारी पड़ेगी। फोन के सिग्नल तो कल ही से विदा ले चुके थे, कोई संचार का साधन नहीं था। बस ये उम्मीद कर सकते थे कि उन्हें यह खुद याद आए कि हमारा रेनकोट और पानी की इकलौती बोतल उन्ही के पास है और वो रुक कर हमारा इंतजार करें। इस ट्रेक में बहुत ध्यान रखने लायक बात यह है कि बेदिनी को पार करने के बाद "कालू विनायक" तक पानी के स्रोत ना के बराबर हैं। इसीलिए आपको पानी का इस्तेमाल बहुत सोच समझकर करना है और पर्याप्त मात्रा में पानी लेकर भी चलना है।

Photo of undefined 2/7 by माया मृग
Photo of undefined 3/7 by माया मृग

खैर एक लम्बे और थकाऊ सफर के बाद हम "पातर नचौनी" पहुँचे जहाँ हमारे एक साथी ललित हमारा इंतजार कर रहे थे। मैं और दिनेश ड्रैगन दोनो थक चुके थे और प्यास से बेहाल थे। वहाँ एक शेल्टर पर हमें कुछ स्थानीय युवक मिले जिन्होंने हमें पानी पिलाया तो कुछ जान में जान आई। लेकिन भूख....वो तो हर बढ़ते कदम के साथ और बढ़ रही थी। हमने रास्ते के लिए पराठे पैक किए थे लेकिन पराठा कैरियर केदार और रवि अभी पीछे फोटोसेशन करते हुए आ रहे थे और उनका अंदाजा नहीं था कब तक पहुँचेंगे। यह इंतजार बहुत भारी था मेरे लिए।

पातर नचौनी से कालू विनायक अब अगला पड़ाव था और यह खड़ी चढ़ाई थी। अब तक जो सफर किया था उसमें सबसे ज्यादा कठिन। ऊँचाई बढ़ने के साथ साथ ऑक्सीजन कम हो रही थी और चढ़ाई काफी खड़ी थी। ऐसा ट्रेक आपको बहुत जल्दी थका देता है। दूसरी तरफ प्यास से शरीर बेहाल था, बारिश थी लेकिन इतनी हल्की कि बस कपड़े नम करती थी, प्यास बुझाने लायक नहीं। हम बादलों के बीच प्यासे थे, अजीब विडंबना थी। कालू विनायक तक पहुँचते पहुँचते हमारा शरीर एकदम से जवाब देने लगा था, लेकिन पराठा कैरियर के आने के साथ जब एक एक पराठा और पानी सबको मिला तो उसने दवाई की तरह काम किया। अब शरीर में कुछ फुर्ती आई तो सफर फिर शुरु हुआ अगले पड़ाव "भग्वाबासा" के लिए। कालू विनायक के बाद आपको "ब्रह्मकमल" के दर्शन होने लगते हैं जो उत्तराखंड का राज्य पुष्प भी है। अब रास्ता ऊबड़ खाबड़ पत्थरों का है, जो अधिक थका देता है। दूसरी ओर ऐसे रास्ते आपसे ज्यादा सावधानी की आशा रखते हैं, वरना एक बार पैर मुड़ा तो सारे ट्रेक में आप एक "लायबिलिटी" बन जाएँगे और इस ऊँचाई पर जहाँ जेब का रूमाल भी एक भार लगता है, वहाँ आपकी मदद कर पाना एक बड़ा मुश्किल काम होता है। खैर चलते चलते लम्बे सफर के बाद हम "भग्वाबासा" पहुँचे। यहाँ तक हम काफी कुछ पस्त पड़ने लगे थे। यहाँ हम बस थोड़ी देर सुस्ताने के लिए ठहरे, लेकिन समय बहुत कम था। अगर ज्यादा देर करते तो हमारे लिए वापसी करना असंभव हो जाता। ऊपर से बरसात ने हालात और चुनौतीपूर्ण कर दिए थे। यहाँ से जल्दी जल्दी हमने फाइनली रूपकुंड का ट्रेक शुरू किया। भग्वाबासा से रूपकुंड का रास्ता भूस्खलन और छोटे छोटे ग्लेशियर , तथा बारिश की वजह से तेज आते नालों से भरा हुआ था। हमारी शुरुआत ही भूस्खलन के एक तेज धमाके के साथ हुई जिसने सबके माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं। दूसरी चिंता की वजह ये थी कि चारों तरफ बादल के कारण घने कोहरे का माहौल था। अगर ऊपर से पत्थरों के टूटने या खिसकने की कोई घटना भी होती तो हम नहीं देख सकते थे। बारिश में इसकी संभावना काफी बढ़ जाती है। ऊपर से शरीर के हालात ऐसे हो चुके थे कि इतनी ताकत भी नही थी कि टूटते पत्थर को देखकर भाग भी सकें। कुल मिलाकर रोमाँच अपने चरम पर था। डर, चिंता, उत्सुकता सब बारी बारी अपनी हाजिरी लगा रहे थे। अब सब चुपचाप ट्रेक कर रहे थे, आवाजें आनी बंद थीं, किसी में बोलने की ताकत नहीं थी। बस एक ही शब्द बोलने को होठ हिलते थे कि कितना बचा है गुरू? और केदार जवाब देते कि "अभी है थोड़ा"। रूपकुंड की आखिरी 2 -3 सौ मीटर की चढ़ाई आपकी इस ट्रेक की अग्नि परीक्षा है। सीधी स्ट्रेट चढ़ाई और रास्ते जैसा कुछ भी नहीं। भूस्खलन के ताजा निशान हर रास्ते को बार बार मिटा देते हैं। वहाँ आपको बस चलते रहना है। ऑक्सीजन की कमी को किसी तरह एडजस्ट करते हुए। हम गिरते पड़ते, चलते रुकते धीरे धीरे ऊपर की ओर बढ़ रहे थे। इस आखिरी लेकिन सबसे मुश्किल चढ़ाई के बाद आखिरकार हमें अलौकिक रूपकुंड के दर्शन हुए। खड़ी पहाड़ी के बीच में निर्मित कुंड जो चारों तरफ से वर्ष भर बर्फ से घिरा रहता है। यहाँ पहुँच कर आप 16000 फीट से अधिक ऊँचाई पर होते हैं। इसलिए ठंड और हाई एल्टीट्यूड सिकनेस आपको परेशान कर सकती है।

बहरहाल इतने कठिन ट्रेक के बाद कुंड के मनमोहक नजारे ने हमारी थकान काफी कुछ कम कर दी। यहाँ के मानव कंकालों के विषय में काफी सुन रखा था। जब सामने देखा तो यह सच में रोमांचित करने वाला अनुभव था। इतने पुराने कंकालों पर अभी तक कहीं कहीं साबुत माँस बचा हुआ है। इनके इतिहास के बारे में वैज्ञानिकों के अलग अलग मत हैं।

रवि यहाँ से ऊपर जूनारगली की तरफ जाने के लिए तैयारी कर रहे थे लेकिन समय बहुत हो चुका था। करीब 4 बज चुके थे और हमें वापस घैरोली पातल तक जाना था। इसलिए सब साथी अपने अपने तरीके से दृश्य को कैद करने लगे। कोई आँखों में तो कोई कैमरे में। हर 5 मिनट में मौसम बदल रहा था। कभी घना कोहरा कभी अचानक से साफ मौसम। लेकिन अफसोस यही रहा कि लगातार बादलों के घिरे रहने से त्रिशूल के करीब से दर्शन करने से महरूम रहे हम।

Photo of undefined 4/7 by माया मृग
Photo of undefined 5/7 by माया मृग
Photo of undefined 6/7 by माया मृग

बहरहाल अब वक्त वापसी का था। सफर लंबा तय करना था और बारिश की वजह से उतरना और ज्यादा मुश्किल हो गया था। हाँ लेकिन उतरने में अच्छी बात यह थी कि हमें रुकना कम पड़ रहा था, साँस फूलने की समस्या नहीं थी। इसलिए लगातार चल रहे थे।लेकिन गति कम से कमतर होती जा रही थी। समस्या एक ही थी कि भूख फिर लगने लगी थी और बहुत तेजी से। जो बचा था सब खा चुके थे। अब बैग टटोला तो टोमैटो केचप के कुछ पैकेट पड़े थे। और आप यकीन मानिए.... उस समय जो केचप का स्वाद था, उससे स्वादिष्ट चीज मैंने जिंदगी में कभी नहीं चखी थी। दरअसल खाने का स्वाद उसकी जरूरत की तीव्रता पर निर्भर करता है। यह मेरा आज का आकलन था।

धीरे धीरे करके हम रात के 9 बजे तक वापस घैरोली पातल पहुँचे। यह सुकून था, सफर की थकान थी कि आते ही खाना खाया और स्लीपिंग बैग में फिट हो गए। ऐसी नींद शायद महीनों से नहीं सोए थे कि एक ही नींद में सुबह हो जाए।

अगले दिन हम आराम से उठे। सभी के पैर घायल थे, दर्द था। आज हमें आराम से ट्रेक का समापन करना था और अपने गंतव्य स्थलों को निकल पड़ना था।

नाश्ता करके अपने बैग लाद कर चल दिए हम अपने शुरुआती स्टेशन....वाण जहाँ हमारी गाड़ी खड़ी थी। इस निश्चय के साथ अगली बार रौंटी ग्लेशियर करके वापसी होगी..... देखो अब कब आता है वो दिन.... बहरहाल इसी विचार के साथ हम वाण पहुँचे। दोपहर के 2 बज चुके थे....अब हमें वापसी के लिए निकलना था। हमारा ट्रेक समाप्त हो चुका था... अपनी खूबसूरत यादों की टोकरी का साथ।

Photo of undefined 7/7 by माया मृग
रूपकुंड

Further Reads