जून-जुलाई के महीने में बारिश के आगमन के साथ ही दिमाग में कहीं घूमकर आने के ख्याल भी बादलों की तरह घुमड़-घुमड़कर कर आने लगते हैं। इस पर आसमान से बरसती पानी की बूंदे जब आंखों को छूती हैं तब प्रतिक्रिया स्वरूप हमारी आंखों में भी आसमान से बरसते बादलों को छूने के अरमान जग जाते हैं।
एक तरफ तो पहली बारिश की फुहारें कल तक आसमान तक उड़ती धूल को जमीन में दबा देती हैं। वहीं दूसरी तरफ पहली बारिश के उपरांत पानी और मिट्टी के इस पहले मिलन से परिसर में उड रही भीनी-भीनी-सी सुगंधित खुशबु अपने साथ आपके मन में कैद चाहतों की चिड़ियों को भी आसमान में उड़ा ले जाती हैं।
मानसून के मौसम के इस मदमस्त मिजाज से मैं भी अछूता न रहा। और मेरा मन भी अपने मन की मुराद को मनमाफिक तरीके से पूरा करने के मंसुबो के लिए मान ही गया। अब जब यह तय कर ही लिया था कि कहीं न कहीं और जल्द से जल्द घुमने जाना ही है। तो फिर कहां और किसके साथ जाना है यह तय करने में न ज्यादा समय लगा और न ही कोई खास दिक्कत ही हुई।
शनिवार को आए घूमने के ख्याल को रविवार को हकीकत में तब्दील करने के लिए मैंने मंजिल के लिए हाजी 'मलंग' गढ़ को और सफर में बतौर हमसफर मेरे अज़ीज दोस्त दिपक को चुना। अपनी-अपनी सुविधानुसार मैं कल्याण से और दिपक विठ्ठलवाणी से निकलकर नेवाली नाके पर सबेरे करीब 8 बजे मिले। अब यहां से हमारी मंजिल हाजी मलंग गढ़ करीब 10km ही दूर थी। यानी बाइक से ज्यादा-से-ज्यादा आधे घंटे का सफर और उसके बाद हमारे सामने तनकर खड़ा होगा हाजी मलंग गढ़ का 800 मीटर ऊंचा पहाड़।
नेवाली गांव से हाजी मलंग गढ़ के लिए अपने सफर को शुरू करने के दौरन तो हमारे दिमाग में सिर्फ और सिर्फ पहाड़ की चोटी पर चढ़ने के लिए लगने वाली मेहनत और उसमें आने वाला मजा ही घूम रहा था। लेकिन, 10Km के सफर के दौरान हमें दसों दिशाओं में ऐसे-ऐसे नजारें देखने को मिलने लगें कि एक वक्त के बाद हम मंजिल को भूल अपने आस-पास की खूबसूरती को निहारने के लिए ही जगह-जगह ठहरने और उन्हें कैमरों में कैद करने लग गए।
हाजी मंगल पहाड़ पर पहुंचने से 4-5Km पहले ही एक छोटा सा पहाड़ पड़ता है। जहां हमने माथेरान हिल्स के अंतिम छोर हाजी मलंग गढ़ की लाजवाब खूबसूरती को निहारकर चरम सुख का अहसास किया। सुबह से हो रही हल्की बूंदाबांदी की वजह से हवा में मौजूद गुलाबी ठंडक रोम-रोम में ताजगी का संचार कर रही थी। यही वजह रही कि न चाहते हुए भी हम करीब आधे घंटे तक वहीं दौड़ते-भागते, चढ़ते-उतरते, खेलते-कूदते रह गए। और फिर दोबारा मंजिल की ओर बढ़ गए।
इसके बाद बाइक चलाते वक्त हर समय आपके ठीक सामने गहरे नीले आसमान तले सीना ताने खड़े और अपने गले में काले और घने बादलों का मफलर डालकर इतराते हुए हाजी मलंग गढ़ पहाड़ का मदमस्त कर देने वाला मंजर दिखाई पड़ता रहेगा। और आप हरे-भरे घास की चादर ओढ़े हाजी मलंग गढ़ की ऊंची-ऊंची चोटियों से गिरते पानी के अनगिनत झरनों को देखते-देखते हाजी मलंग बस स्टॉप पर पहुंच जाएंगे। यही वो जगह है जहां से आपको बाइक पार्किंग में खड़ी कर आगे का रास्ता चढ़ाई करके ही तय करना पड़ेगा। करीब 9 बजे ही यहां पहुंच जाने के बाद हमने घंटा भर बस स्टॉप पर ही बिताया। इस दौरान हमारा ज्यादातर समय होटल में कुछ न कुछ खाते-पीते हुए गप्पेबाजी करते ही बीता। इसके बाद करीब 10 बजे हमने हाजी मलंग पर चढ़ाई शुरू की।
पहाड़ फतह करने में मुझे अगल ही किस्म का ऑर्गेज्म मिलता है। काश, मैं दिपक के मामले में भी यही बात कह पाता। क्योंकि बात जब ट्रेकिंग की आती है, उसकी हालत खराब हो जाती है। लेकिन मानसून में किसी दुल्हन की तरह सोलह श्रृंगार किए हाजी मलंग गढ़ की खुबसूरती ने दिपक के अंदर भी पहाड़ पर चढ़ाई करने के लिए जरूरी उत्साह, उमंग और उल्लास भर दिया। नतीजतन पहाड़ की शुरुआती चढ़ाई में वो मुझसे भी ज्यादा फुर्ती के साथ चढ़ाई चढ़ने लगता है। गर्मी के दिनों में तो यहां चढ़ाई की शुरुआत में ही गला सूखने लगता है। लेकिन बारिश के मौसम में आपका गला ही नहीं बल्कि बदन पर मौजूद हर एक रोम पानी से तर होता है। इसलिए मॉनसून में पहाड़ चढ़ते वक्त सामान्य दिनों की तरह ज्यादा कठनाई का सामना नहीं करना पड़ता।
अंदाजन हर कोई करीब-करीब 2 घंटे में पहाड़ की चढ़ाई कम्प्लीट कर लेता है। क्योंकि हम हर कुछ दूरी पर ठहर कर नजारों का लुत्फ़ उठाते और पेट पुजा करते हुए अपनी मदमस्त चाल से चढ़ रहे थे... इसलिए हमें हाजी मलंग बाबा की दर तक पहुंचने में करीब 3 घंटे का समय लग गया। वैसे जैसे-जैसे हम पहाड़ पर चढ़ते गए वैसे-वैसे यह एहसास हुआ कि शहर से पहाड़ को देखने पर वो जितना खूबसूरत दिखाई देता है... पहाड़ से पीछे छूट गया शहर भी उतना ही दिलकश नजर आता है। तब समझ आया कि दूर के रिश्तों में देर तक मिठास क्यों बनी रहती है। मिठास का जिक्र हुआ तो एक बात बताते चलूं कि हाजी मलंग गढ़ हिन्दू-मुस्लिम संबंधो में मिठास घोलने का भी काम करता है। क्योंकि इस पहाड़ पर चढ़ते वक्त एक ही रास्ते पर आपको हिन्दू मंदिर और मुस्लिम दरगाह दोनों के दर्शन होते रहेंगे।
आमतौर पर हाजी मलंग बाबा के दर्शन करने के बाद लोगों को लगता है कि उनकी यात्रा पूरी हो गई। लेकिन असल में असली यात्रा तो यहीं से शुरू होती है। मलंग बाबा के दर्शन करने के बाद हमारा अगला पड़ाव था पांच पीर दरगाह। और हमें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था कि उस दरगाह तक पहुंचने तक हम रोमांच कर शिखर पर पहुंच जाएंगे। जी हां, क्योंकि अब तक हमने सिर्फ खड़ी चढ़ाई की थी। जो मुश्किल तो थी पर उतनी खतरनाक नहीं। लेकिन पांच पीर दरगाह के लिए हमें ऐसे ऊबड़खाबड़ पगडंडीनुमा रास्ते से होकर गुजरना था जिसके दोनों तरफ खाई थी। और सुरक्षा के नाम पर दोनों तरफ एक जमाने में लगे लोहे के पाईप का ही सहारा था।
पांच पीर दरगाह पहाड़ के एकदम छोर पर स्थित है। यहां पहुंचने के बाद हमें ऐसा लगा हम जहां आ गए हैं अब बस वहीं बस जाएं। क्योंकि आंखों के सामने नजारा ही कुछ ऐसा था। जमीन से इतनी ऊंचाई पर आकर हम दूर तक फैली पहाड़ियां, उसके बाद जंगल और फिर शहर की शुरुआत को एकदम साफ-साफ देख पा रहे थे। शोरगुल से भरे शहर को सुदूर किसी पहाड़ी की चोटी पर खड़े होकर एक दम खामोशी से देखने का एहसास को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। हम हाजी मलंग पहाड़ी की चोटी के छोर से मंत्रमुग्ध कर देने वाले नजारों को काफी देर तक अपनी नजरों में कैद करते रहे। हमनें अपने आस पास के नजारों की कई तस्वीरें भी खींची लेकिन जो आंखों में कैद हो रहा था कैमरा उसे पकड़ नहीं पा रहा था।
पहाड़ की पनाह में जी-भरकर जी लेने के बाद दोपहर करीब 3 बजे हमनें नीचे उतरना शुरू किया। उतरते वक्त का एहसास चढ़ते वक्त के एहसासों से एकदम उलट था। चढ़ते वक्त हम नजर आने वाले हर खूबसूरत नजारों को देखकर चहक रहे थे और लौटते वक्त उन्हीं नजारों को देखते वक्त अफसोस हो रहा था। अफसोस इस बात का कि हमें इन सभी को अलविदा कहना पड़ रहा है। नीचे उतरते वक्त मन ही मन एक संवाद हुआ कि- सफर में कुछ जुड़ने और कुछ छूटने का सिलसिला लगातार चलता रहता है। कहीं पहुंचने पर कुछ नया जुड़ जाता है और कहीं से निकलने पर कुछ पुराना वहीं छूट जाता है।
Vishesh
1) हाजी मलंग तक कैसे पहुंचे?
हाजी मलंग तक पहुंचने के लिए आपको मुंबई के प्रवेशद्वार कहे जाने वाले Kalyan(Junction) रेलवे स्टेशन उतरना होगा। स्टेशन से बाहर निकलते ही सामने बस स्टॉप से हर आधे घंटे में आपकों हाजी मलंग गढ़ जाने के लिए बस मिल जाएगी। इसके अलावा आप चाहे तो टैक्सी के जरिए भी 45 मिनट में मंजिल तक पहुंच सकते हैं।
2) जाने का सबसे सही समय कौन-सा?
इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि आप कैसे नजारें देखना पसंद करते हैं? अगर आप पहाड़ की चोटी से नीचे गिरते अनगिनत झरने और हर तरफ पसरी कोहरे की चादर देखना चाहते हैं तो झमाझम बारिश के मौसम में जाएं। लेकिन अगर आप चाहते हैं पहाड़ के शिखर से दूर-दूर तक सब कुछ साफ-साफ देखना, तो आपके लिए वसंत का मौसम मलंग गढ़ से मुलाकात का सबसे सही समय होगा।