वैसे तो इस सिविल सर्विसेज के चक्र में छुट्टियां लेना वर्जित था, परन्तु अपने #FriendsForLife की बात टालना भी हमारे लिए संभव ना हो सका।
जन्म और शिक्षा से हम पूर्णतया राजस्थानी है और शायद यही कारण था कि राजस्थान भ्रमण का इतना जोश हमारे मन में नहीं था। इसलिए जब सहमति जैसलमेर घूमने पर बनी तो हमारा शुरुआती विरोध रहा।
अब सोचते है कि अच्छा ही हुआ जो हम इस जगह के लिए मान गए, वरना इस खूबसूरत संस्कृति और विरासत से तो हम अनभिज्ञ ही रह जाते।
वो सुनहरी हवेलीनुमा होटल, वो राजस्थानी पगड़ी पहने receptionist और खम्मा घणी से स्वागत करता दरबान।
एक क्षण तो अपने राजस्थानी होने पर बड़ा ही फक्र महसूस हुआ।
दिन के कुछ 2 बजे होंगे। हमने हमारे well-planned कार्यक्रम के अनुसार सर्वप्रथम चंदन श्री में केर-सांगरी और गट्टे की सब्जी का भोज किया। और फिर निकल पड़े जैसलमेर की शान, प्रसिद्ध स्वर्ण किले, का भ्रमण करने।
गाइड ने बताया कि यह विश्व का एकमात्र जीवित किला है और इसका परिचायक रास्ते में पड़ रही बंधेज की साड़ियां और जादुई पत्थर की दुकानें भी थीं।
हमने पूरा प्रयास किया कि इस सुंदरता को अपने कैमरे में सहेज कर रखे पर जैसे ही हिल टॉप पर cannon view देखा, हम सभी स्तब्ध रह गए क्योंकि जो दृश्य हम यहां से देख पा रहे थे उसके सामने तो सब कुछ ही फीका था। हमने निश्चय किया कि एक बार फिर से night view के लिए यहां आया जाएगा।
दिनभर हमने भिन्न-भिन्न हवेलियों के भ्रमण का लुत्फ़ उठाया और हर हवेली ने अपनी कलाकृति और नक्काशी से हमें आश्चर्यचकित ही किया। इस जगह की खूबसूरती और भाटिया जी के घोटुआ को आज भी हम चारों अपनी हर मीटिंग में याद करते है।
शाम की 6 बजे होंगे कि हमने जैसलमेर के वार मेमोरियल की तरफ कूच किया। सुना था कि यहां का लेजर शो काफी प्रसिद्ध है और उसको देखने के बाद देशभक्ति की लहर पूरे तन बदन में दौड़ पड़ती है, और हुआ भी वैसा ही।
समय हो चला था रात्रि के 11 बजे, और जैसा कि हमने वादा किया था, हम आ पड़े जैसलमेर किले से night view देखने। पूरे शहर में घनघोर सन्नाटा छा गया था। थोड़ा सा डर हमे भी लगा चूंकि साथ में एक महिला दोस्त जो थी। खैर छोड़िए उस दोस्त की चिन्ता तो, हम तो भूल ही गए थे कि वो दिल्ली वाली लड़की है और ये सन्नाटे के बीच अपने आप को कैसे सुरक्षित रखना है, यह कला तो उसने बचपन से ही सीख रखी है। और अगर सच ही बताए तो उसके साथ तो हम तीन लड़के अपने आप को ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे थे। ,
कुछ इस तरह पहला दिन समाप्त हुआ पर दिन भर की यादें सोते वक्त भी हमारे खयालों में ही घूम रही थी।
दूसरे दिन की शुरुआत पप्सा भाटी जी के साथ परिचय से शुरू हुई। सोचा नहीं था कि जो व्यक्ति अगले दो दिन के लिए बस हमारा ड्राइवर होने वाला है, वो एक अच्छा मित्र और गाइड भी बन जाएगा।
मिट्टी के धोरों में किस तरह मौज करना है, किस तरह लगभग 90 डिग्री की रेतीली ढलान पर चढ़ना है, और किस तरह अपने आप को इस बालू में डूबा देना है, यह सब भाटी साहब की आत्मीयता और खुशनुमा व्यवहार से ही संभव हो सका ।
तनोट माता मंदिर तक के उस सफर में शायद ही किसी जगह मोबाइल नेटवर्क रहा हो पर मरुस्थल की उस शांति, छोटी छोटी घाणिया, wind turbines और Harley Davidson के कुनबे को देखते देखते मोबाइल की जरूरत भी महसूस नहीं हुई।
कहा जाता है कि 1971 के लोंगेवाला युद्ध के दौरान आसपास का पूरा इलाका तबाह हो गया था पर इस मंदिर पर एक आंच भी नहीं आई थी। भारतीय रक्षकों के लिए यह मंदिर कितना महत्वपूर्ण है, यह इस बात से भी समझा जा सकता है कि इसका पुजारी एक बीएसएफ का जवान ही था।
अगला पड़ाव लोंगेवाला युद्ध संग्रहालय था। देशभक्ति की जो भावना एक दिन पहले देखे गए लेजर शो से हमारे भीतर थी, उसे और वेग इस लोंगेवाला स्मारक ने दे दिया। इस संग्रहालय में घूमते घूमते पूरी बॉर्डर फिल्म का चित्रण हमारे दिमाग में घूम रहा था। चाहे वो " संदेशे आते है " गाना रहा हो या " यह धरती मेरी मां है " जैसे डायलॉग रहे हो, सब कुछ हमें हमारे सामने होता हुआ नजर आ रहा था। भीड़भाड़ भरी इस दुनिया में ऐसी अनुभूतियां केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी तक ही सीमित रह गई है, इसलिए हमे खुशी थी कि इस जगह ने फिर से वह अहसास कराया।
हमारा अगला मुकाम Desert camp था। जैसलमेर की इस यात्रा में इस कैंप को लेकर हम बहुत उत्साहित थे और यह पूर्णतया हमारी उम्मीदों पर खरा उतरा। शुरुआत हमारे राजसी स्वागत और पधारो म्हारे देश की धुन से हुई। शाम को होने वाले रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम ने भी हमे खूब मोहा। राजस्थानी संस्कृति, नृत्य और गायन का यह अनूठा संगम बहुत ही प्रफुल्लित करने वाला था। तत्पश्चात दाल, बाटी और चूरमा का भोजन परोसा गया, जिसने मुझे घर का स्वाद याद दिला दिया।
सुनने में तो यही एक परिपूर्ण शाम लग रही है पर ठहरिए जनाब, इस श्रृंखला का सर्वाधिक आनंदमय समय तो रात्रि के 12 बजे चंद्रमा की सफेद रोशनी के बीच और रेगिस्तान के मध्य के उस सन्नाटे में Bonfire के समीप बैठना था।
वो Bonfire के धुएं का नशा था या रात ही इतनी सुहानी थीं।
इस रेगिस्तान का सन्नाटा हमे सोने कहां देता था,
यह तो हमे इसमें ही डूब जाने को कहता था।
इस भ्रमण के आखिरी दिन की शुरुआत, desert safari से हुई। जिस तरह उस जीप ने बालू के धोरों पर हमे ले जाया, उससे roller coaster जैसा अनुभव हुआ। हमने भी इस रोचक राइड का पूरा आनंद लिया और प्रयास किया की इस आखिरी दिन को जितना जी सके, उतना जी ले क्योंकि इसके बाद तो हमे फिर से एक रोबोटनुमा जिंदगी में ही चले जाना है।
याद है आपको वो विंडोज का रेगिस्तान वाला वॉलपेपर, हूबहू वैसे ही था ये दृश्य। हम भी समझ गए थे की यह मौका बहुत दुर्लभ है और इसीलिए एक रेगिस्तानी प्रोफ़ाइल फोटो हमारे वॉट्सएप के लिए तैयार थी।
इस दिन का आखिरी कुछ वक्त खरीददारी में बीता और एक राजस्थानी पगड़ी और मूंछ के चित्र वाली टीशर्ट हम सभी ने अपनी इस यात्रा की याद के तौर पर खरीदी।
फिर वो अंतिम घड़ी आ ही गई, जिसके तहत हमे इस खूबसूरत महकमे को अलविदा करना था और अनायास ही मेरे मुख से भी निकल पड़ा कि फिर मिलेंगे। मुझे भी नहीं पता कि ऐसा क्यों हुआ पर शायद इतना जुड़ाव हो गया था जैसलमेर से कि इसे हमेशा के लिए अलविदा कर देना हमे नहीं भा रहा था।
हमे नहीं पता कि हम वापस इस जगह आ पाएंगे कि नहीं,
नहीं पता कि ऐसा अनुभव किसी और यात्रा में कर पाएंगे कि नहीं,
नहीं पता ऐसे आत्मीय लोग कही और मिल पाएंगे कि नहीं,
परन्तु इतना पता है कि इस यात्रा के एक एक क्षण को जीवनभर भूल पाएंगे नहीं ।