परता धाम दूर है जाना जरूर है

Tripoto
24th May 2020
Photo of परता धाम दूर है जाना जरूर है by Amit Lokpriya
Day 1

परता धाम दूर है जाना जरूर है
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बिहार के औरंगाबाद के कुटुम्बा प्रखंड के एक बीहङ इलाके में आज से दो सौ साल पहले परता नामक जगह पर राधे--कृष्ण की मंदिर बनवायी गई थी । देखना हो तो औरंगाबाद से डाल्टेनगंज जाने वाला राष्ट्रीय राजपथ 139 से गुजरना पङेगा । इसी राजपथ पर स्थित हरिहरगंज --अम्बा के बीच शिवाला के नजदीक से जो पतला रास्ता पूरब की ओर जाता है उसे पकङकर मंदिर पहुंचा जा सकता है । झारखंड से बहकर आने वाली बटाने नदी किनारे यह मंदिर अवस्थित है और झारखंड की सीमा के एकदम नजदीक है । आज भी परता ( किशुनपुर ) संचार व परिवहन के मामले में एक पिछङा हुआ ही इलाका है । फिर आज से लगभग दो सौ साल पहले मंदिर के लिए इस स्थान का चयन क्या रहस्य हो सकता है ! छानबीन से पता चला कि यहां पहले से कल्पवृक्ष मौजूद था । मंदिर बनवाने के लिए इस स्थान का चयन शायद इसी वजह से किया गया हो । अंग्रेजी हुकूमत के दौरान बिहार का इलाका बंगाल का हिस्सा हुआ करता था और बंगाली जमींदार और कर्मचारी के रूप में बिहार से प्रत्यक्ष रुप से जुङे हुए थे । उन्हीं में से किसी ने कोलकाता यह बात पहुंचायी होगी । श्याम बाजार कोलकाता के बंगाली बाबू को पता लगा होगा तो कोलकाता से चलकर यहां पहुंचे । पुत्र-प्राप्ति की मन्नतें मांगी जिसे कल्पवृक्ष ने पूरा किया होगा और निर्माता के दर्द को हरकर मंदिर उठ खङा हुआ । कोई दर्द जब गहरा हो , दुनियावी समाधान नहीं दिखाई देता हो तो आदमी ईश्वर के सामने दंडवत हो जाता है । सारे भौतिक संसाधन और अर्जित यश जब फीके लगने लगते हों तो इंसान मन ही मन ईश्वर से पूछता है कि हे ! भगवान , यह दंड क्यों ! मन चक्कर लगाता है और परेशान इंसान अपनी साधारण जरूरत जैसे पुत्र प्राप्ति , बीमारी ठीक करने , बेटी के विवाह इत्यादि को पूरी करने में आ रहे व्यवधान को पूरी करने की गरज से ईश्वर को साधता है । यह मनुष्य की सीमा है या ईश्वर के सर्वशक्तिमान होने का प्रमाण इस पर नास्तिक और आस्तिक अपने--अपने हिसाब से तर्क रख सकते हैं । भारत में दोनों तरह के विचारों की श्रृंखला रही है लेकिन बंगाली बाबू आस्तिक थे और परेशान भी । उन्होनें ईश्वर के समक्ष किये गये अपने वादे को पूरा करने के लिए ना--नुकुर नहीं किया । शायद इंसान से करते तो मुकुर भी जाते !

बंगाली बाबू ने यहां न सिर्फ मंदिर बनवायी बल्कि पुजारी दल के खर्च के लिए पूरा इंतजाम भी किये । पता चला कि लगभग पिचासी बीघा जमीन मंदिर को दान में मिला है जिसके बङे हिस्से पर आज कई लोगों ने अपने --अपने दावे बनाने के तरकीबें निकालनी शुरू कर दी हैं । स्थानीय मुखिया के घर पर मंदिर को मिली जमीन के दस्तावेज मौजूद हैं । पुराना मंदिर ईंट, चूना--गारा से बना है और लकङी के मोटे--मोटे तख्तों को दरवाजे के ऊपर रखा गया है । मंदिर बेहद सामान्य ऊंचाई के हैं । मंदिर की दीवार पर दो जगह छोटे- छोटे शिलापट्ट लगे हैं । इसकी भाषा संस्कृत है जिसे पढना मुश्किल है । मंदिर परिसर में कुछ निर्माण कार्य बाद के दिनों के भी हैं । मंदिर का हाल ही में आधुनिक सौंदर्यीकरण हो चुका है जिसका पुराने मंदिर के स्थापत्य से कोई मेल नहीं है । चहारदीवारी से लगा हुआ एक गौशाला भी है । यहां के गायों के दूध से कल्पवृक्ष का पटवन ( सिंचाई ) होता है । कार्तिक पूर्णिमा को यहां मेला लगता है जिसे स्थानीय लोग सुथनिया मेला भी कहते हैं । सुथनी एक प्रकार का फल होता है जिसकी बिक्री मेला में होती है । नौ एकङ जमीन अलग से मेला के लिए है । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी किशुनपुर मेला की चर्चा एक बङे मेले के रूप में की है । मंदिर की पूजा पाठ में कई पीढियों के पुजारियों ने योगदान दिया है जैसे ब्रहमचारिणी जी (माई जी) , नागा संत गणेश दास , काशी के राम नारायण दास इत्यादि । इनका आपस में कोई रक्त संबंध नहीं है । मठाधीशी की कुर्सी के लिए कभी कोई संघर्ष नहीं ताज्जुब होता है ।

कल्पवृक्ष का वनस्पतिक नाम एडेनसोनिया डिजटेटा है । इसकी ऊंचाई लगभग साठ से सत्तर फीट होती है । तने का घेरा डेढ सौ फीट । आयु का क्या कहना ! हजार दो हजार साल या उससे भी अधिक । कल्पांत तक नष्ट नहीं होता ! मतलब अनश्वर है । यह एक औषधीय पेङ है । इसके फल, पत्तियां सभी उपयोग में लायी जाती हैं । इंटरनेट पर जो जानकारी उपलब्ध है उसके अनुसार यह वृक्ष किडनी, दमा, एलर्जी, हृदय और उदर रोगों के उपचार में बेहद उपयोगी है । यह विटामिन सी और कैल्सियम का उम्दा स्रोत होता है । सच क्या है पता नहीं । औषधीय जानकार सत्यापन करेंगे या कर चुके होंगे । कुछ भी हो मिथकीय मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन की पौराणिक कथा में जो चौदह वस्तुएं (रत्न) मंथन से निकलीं उनमें कल्पवृक्ष भी शामिल है । हिन्दू मान्यता के अनुसार कल्पवृक्ष को मनोकामना सिद्धि का सबसे उत्तम साधन माना जाता है । कहते हैं कि स्वर्ग से धरती पर यह वृक्ष आया है । जब स्वर्गिक अंश होगा तो जाहिर है कि बेहद पवित्र होगा ! जीते जी इहलोक में रहकर भी स्वर्ग से नाता जोङना मामूली बात भी तो नहीं ! मामूली को इंसान भाव भी नहीं देता । तो लोक विश्वास में तय है कि यह वृक्ष आम नहीं है , विशिष्ट है । विशिष्ट है तो पूज्य है । बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी इसकी विशिष्टता के प्रभाव में आ चुके हैं । अतुल्य समझ कर दर्शन कर चुके हैं और संभवतः उनकी मन्नत पूरी होने का ही कमाल है कि वह धरती पर रखकर भी स्वर्गिक आनंद उठा रहे हैं ! लालू के साथ भी लालू के बाद भी !

परता में जो कल्पवृक्ष के रूप में पूजनीय है वह  संभवतः पारिजात का वृक्ष है । धार्मिक ग्रंथों में पारिजात की भी बङी महत्ता है । कल्प वृक्ष के रूप में इसकी भी पूजा की जाती है । दरअसल कल्पवृक्ष इतना दुर्लभ होता है कि लोग ठीक ठीक इसकी पहचान नहीं कर पाते । इलाके के अनुसार लोग अलग--अलग वृक्षों जैसे कहीं नारियल तो कहीं ताङ को भी कल्पवृक्ष के रूप में मान्यता देकर उसकी पूजा करते हैं । बाबू बंगाली थे तो उनके पढे--लिखे होने की पूरी संभावना है जो ब्रिटिश राज में एक आम बंगाली की पहचान रही है । वे पारखी थे पारिजात की परख कर गये लेकिन देहाती अम्बा के लोग तब गंवार थे । अम्बा से देव जाने वाली सङक पर अम्बा चौक से लगभग सौ फीट की दूरी पर सरयू मिस्तरी के घर के आगे लगे "'विलायती इमली"' की पहचान ही नहीं कर सके । कहते हैं इस वृक्ष के बालरूप को सरयू मिस्तरी के पूर्वज काली मिस्तरी ने ब्रिटश राज में बटाने नदी में बहते देखा और लाकर दुरा पर लगा दिया । सङक पर लगे होने से लोग इसे पहचान ही नहीं सके और उसके फल को विलायती इमली कहकर समझकर खाते--पीते रह गये । इमली स्वर्गिक वृक्ष तो नहीं होता ! वह एक बेहद मोटे तने वाला पेङ था । फूल भी लगते और फल भी । फूल हल्के पीले रंग का होता । इसी फूल से फल निकलता जो जाङा में पककर तैयार हो जाता । फल की लंबाई छ: इंच से लेकर नौ इंच तक होता । यधपि इसकी दूसरी प्रजातियों में फल गोल-सा भी होता है । अम्बा वाले वृक्ष के फल का आवरण बेहद कठोर होता जिसे बिना भारी पत्थर के प्रहार के तोङना मुश्किल होता था । आवरण पर मखमली रोयां होता जो पहले हरा होता और पकने पर हरापन लिये पीले रंग का होता था । तोङने पर भीतर सफेद रंग की सूखी परत जमी होती जिसके नीचे थोङी --थोङी दूरी पर काले-जामुनी रंग के बीज होते । बच्चे जब सफेद पदार्थ से युक्त बीज को मुंह में डालकर जब चूसते तो स्वाद खट्ठा--मीट्ठा का आता । इमली ..... नहीं विलायती इमली !! इस वृक्ष की पहले दो शाखाएं गिरीं और फिर यह वृक्ष लगभग 2010 में जाकर अंतिम रूप से गिर गया । रासायनिक उपचार से गिरा दिया गया ! वजह कि यह सङक पर ऐसा खङा था कि सरयू मिस्तरी के मकान में बनी दुकानों का लुक खराब होता था । व्यवसाय खूब फले--फूले इसके लिए उस वृक्ष को जाना पङा । असली कारण यह था कि किसी को पता ही नहीं चला कि यह कल्पवृक्ष है । नहीं तो व्यवसाय पर आस्था भारी नहीं पङ जाता क्या !! लोग कहते जरूर थे कि ऐसा पेङ कहीं देखने को नहीं मिलता । जो विशिष्ट है उसकी पहचान करना इतना आसान भी तो नहीं होता ! संसार में ऐसे मनुष्य आज दुर्लभ हैं जो कल्पवृक्ष की भांति गरीब--दुखियो का कष्ट हरने में लगे हैं । गुमनाम हैं और कोई मलाल नहीं कि गरीबों के बीच कंबल बांटते उनकी तस्वीर अखबारों में छप क्यों नहीं रहे !

शायद उस गुमनाम वृक्ष की कृपा ही थी कि चारों ओर पुराने जमे हुए बङे बाजारों -- हरिहरगंज , औरंगाबाद और नवीनगर के होते हुए भी अम्बा एक गांव से एक बङे बाजार में अपने को रूपांतरित कर पाया । आज सरस्वती पूजा के उपरांत अम्बा की पूजा कमिटियां कभी--कभी मूर्ति विसर्जन के लिए परता भी जाती हैं तो बच्चे नारेबाजी करते हैं " परता धाम दूर है जाना जरूर है ।" कल्पवृक्ष का दर्शन करना हो तो .....यह कठोर सत्य ही अम्बा का वर्तमान हकीकत है । अम्बा के कथित विलायती इमली वाला कल्पवृक्ष ने उखाङफेंकने वालों की मन्नतें पूरी कर अपनी लाज रख ली । ... जो फेंक दिया वह हीरा था ... लावारिस विलायती इमली था !!

कब जाएं :- कभी भी, कार्तिक पूर्णिमा सबसे उपयुक्त
सङक मार्ग :- दिल्ली-कोलकाता राष्ट्रीय राजपथ 2 से औरंगाबाद तक और आगे रा. राजपथ 139
रेल मार्ग :- गया, अनुग्रह नारायण रोड, डेहरी, वाराणसी सब से सङक मार्ग के द्वारा जुङ
© अमित लोकप्रिय Facebook/Amit Lokpriya

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