एक अजेय दुर्ग: कुम्भलगढ़

Tripoto
18th Jan 2020

जो कभी न हारा

राजस्थान रणबांकुरों की, सुभट वीरों की और महान राज्यों की भूमि है। कर्नल जेम्स टॉड ने इस केसरिया भूमि के लिए लिखा है,‘राजस्थान में एक भी ऐसा छोटा राज्य नहीं है जहां थर्मोपल्ली जैसी रणभूमि न हो और एक भी ऐसा नगर नहीं जहां लियोनाइडस जैसे वीर पैदा नहीं हुए हो।' इसी वीरभूमि में एक समृद्धशाली राज्य था मेवाड़ जिसके शासक कुल में महाराणा कुम्भा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप जैसे महावीरों ने जन्म लिया। इसी राज्य के यशस्वी अतीत का बयान है- कुम्भलगढ़। एक ऐसा दुर्ग जिसकी विस्तृत और ऊंची प्राचीरें ही दुश्मनों के दांत खट्‌टे कर देती थीं। इसी दुर्ग की यात्रा का अवसर आया इस जनवरी के शुरुआती दिनों में। लिहाज़ा, चलिए आप भी हमारे साथ मन के स्यंदन पर सवार होकर इस अजेय दुर्ग की यात्रा में।

तो चलें….

कुछ दिनों के लिए ऑफ़िस की भागमभाग से आराम मिला। मेरा घुमक्कड़ मन, बिस्तर में औंधे मुंह पड़कर पुस्तक पढ़ने वाले व्यक्ति पर हावी होता रहा। उस पर भी जो यूं ही कोई फ़िल्म देखने सिनेमाघर पहुंच जाता है या गाड़ी उठाकर शहर की गलियां नाप डालता है। शहर से भागने को जी करने लगा, और भला वह कब न करता है। मुझे पुकारने लगे, नील गगन पर विचरते मेघ, वनाच्छादित पर्वत, पार्श्व में बजता लोकसंगीत और इतिहास को अंक में समेटे भव्यातिभव्य दुर्ग।

यह कोई स्कूल-कॉलेज का अवकाश भी नहीं था कि घर बैठकर टीवी देखते हुए या मित्रों से गप्पे लड़ाते हुए गुज़ार दिया जाए। यह ऑफ़िस की छुट्‌टी है माई-बाप, एक-एक पल का सदुपयोग करने का दिल करता है। ताकि अधिक से अधिक दुनिया नापी जा सके, अधिक से अधिक अनुभव बटोरे जा सकें। अधिक से अधिक लिखा जा सके, अधिक से अधिक सुना जा सके। ख़ैर, पहले से सोचा तो नहीं था, किंतु सहसा एक नाम उभरा- कुम्भलगढ़। मैं नाम से परिचित था, टीवी पर राजस्थान पर्यटन का विज्ञापन ‘माटी बांधे पैंजणी' भी देखा था, थोड़ा बहुत गूगल भी किया था, लेकिन कभी अपनी आंखों से निहारने का सुख नहीं लूट पाया था। सो यही लुटेरा मन लिए मैंने मित्रों को फ़ोन मिलाया, संयोग कि वे भी एक टांग पर तैयार मिले।

लो सफ़र शुरू हो गया!

हम भोपाल में थे और मित्रगण इंदौर में। उज्जैन रेलवे स्टेशन पर हमारा भरत-मिलाप हुआ। पूरी रात सफ़र में गुज़री, क़िस्से-कहानियों का दौर चलता रहा, राजस्थान और महाराणाओं के इतिहास पर चर्चा हुई। गाड़ी चित्तौड़ स्टेशन पर ठहरी, तो अंधेरे की काली चादर में असंख्य लाइट्स से चमचमाता चित्तौड़गढ़ दुर्ग दिखाई दिया। उदयपुर की स्थापना से पूर्व यही चित्तौड़गढ़ यशस्वी मेवाड़ की राजधानी था। कई सुनी-अनसुनी गाथाएं इस दुर्ग की प्राचीरें आज भी दोहराती हैं। एक बड़ी प्रसिद्ध कहावत है-

‘गढ़ों में गढ़ है चित्तौड़गढ़, बाक़ी सब गढ़ैया हैं,

तालों में ताल है भोपाल ताल, बाक़ी सब तलैया हैं।‘

सुबह आंख खुली महाराणा उदयसिंह द्वारा बसाए गए ख़ूबसूरत शहर उदयपुर में। यही हमारा गंतव्य था। भारत की रुमानी राजधानी। किंतु मेरा सारा प्रेम, सारी चेतना तो जाकर कुम्भलगढ़ में ठहर गई थी। एक भव्य और अजेय दुर्ग की कल्पना रोम-रोम को झंकृत कर देने के लिए काफ़ी थी।

एक वेबसाइट पर पढ़ा था कि राजसमंद से कुम्भलगढ़ नज़दीक है, इसलिए यहां से जाना उचित होगा। सो बस अड्डे पहुंचे। वहां एक सज्जन मिले, जो किसी बस में कंडक्टर थे। मैंने पूछा- ‘बाऊजी, राजसमंद के लिए गाड़ी कहां से मिलेगी?' उन्होंने मुझसे पूछा- ‘कांकरोली जाणा है?'

मैं समझ नहीं पाया। उन्होंने फिर पूछा-‘कठे जाणो है?’ दरअसल राजसमंद ज़िले के बस स्टैंड में से एक का नाम कांकरोली है।

मैंने बताया,‘दरअसल, हमें कुम्भलगढ़ जाना है, आप ही बताइए कहां से नज़दीक रहेगा?'

‘तो हुकुम, थे राजसमंद मत जावो, सायरा री बस में चड्डो। उंडा सूं कुम्भलगढ़ पास पड़ेलो।'

यानी राजसमंद जाने की बजाय सायरा नामक जगह जाइए वहां से कुम्भलगढ़ नज़दीक रहेगा। उन्हें धन्यवाद देकर हम सायरा की बस में बैठ गए। सुबह के 6 बजे थे और चूंकि मौसम ठंड का था इसलिए सूर्यदेव के दर्शन अभी तक नहीं हुए थे। कुछ देर में हल्का उजाला होने लगा, आसमान केसरिया आभा से पट गया। केसरिया माटी और केसरिया आकाश के समक्ष मैं किसी केसरिया बालम की माफ़िक था जिसे उसके देस न पुकारा था। कुछ देर में सूर्यनारायण के दर्शन हुए और बाहर का दृश्य अधिक स्पष्ट हुआ। कहीं-कहीं छोटे-बड़े डूंगर यानी पहाड़ियां दिखाई दे रही थीं। उन पर हरियाली थी। उनके पीछे बहुत दूर कभी-कभी एक पर्वत शृंखला दिखाई दे जा रही थी जो निस्संदेह अरावली थी। भारत की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखला। रास्ता कुछ सपाट, कुछ घुमावदार था। हां, दचके बराबर लग रहे थे। कोई एक से डेढ़ घंटे में हम सायरा उतरे। एक छोटा-सा गांव। बस स्टैंड जैसा कुछ नहीं था, एक महादेव मंदिर के सामने हमें उतार दिया गया। मंदिर ऊंचाई पर था जहां तक पहुंचने के लिए 25-30 सीढ़ियां थीं। उन्हीं सीढ़ियों के सामने कुछ लोग हाथ ताप रहे थे, सो हम भी उन्हीं के साथ हो लिए। दुशाला ओढ़े उन लोगों के केवल चेहरे ही दिखाई दे रहे थे। आसपास नज़र दौड़ाई तो देखा कि इतनी सुबह भी कई दुकानें खुल गई थीं, जबकि शहरों का हाल तो आप और हम जानते ही हैं। हाथ ताप रहे साथियों ने वह जगह दिखा दी जहां से कुम्भलगढ़ के लिए बस मिलने वाली थी। कुछ देर बाद नियत बस भी आ गई और आख़िरकार कुम्भलगढ़ के लिए हम निकले जो वहां से क़रीब 30 किलोमीटर की दूरी पर था।

पूरा रास्ता पहाड़ों में तय करना था, कहीं दर्रे, कहीं घुमावदार राह, कहीं ढलान तो कहीं चढ़ाई। हरे-भरे वृक्ष, छोटे-मोटे ताल-तलैया। बताता चलूं कि यदि राजस्थान का नाम सुनते ही आपके ज़ेहन में मीलों फैला रेगिस्तान उभर आता है तो उदयपुर, आबू, रणथम्बौर या भरतपुर हो आइए। एक नया और वनाच्छादित राजस्थान आपका बांहें फैलाकर स्वागत करने को आतुर है।

आंखों में नींद चढ़ रही थी, किंतु मैं यह सफ़र सोकर बर्बाद नहीं करना चाहता था। झपकी आई भी, लेकिन मैं डटा रहा। निहारता रहा, हिलोरे खाता रहा वादियों में। क़रीब 10 बजे हम कुम्भलगढ़ क्षेत्र पहुंचे, यानी वो जगह जहां से दुर्ग नज़दीक था, लेकिन था किधर, पता नहीं। पर्याप्त पूछताछ के बाद तय हुआ कि तैयार हुआ जाए, फिर दुर्ग पर चला जाएगा, जो अभी भी कोई डेढ़ से दो किमी की दूरी पर था। एक टेंट हाउस किराए पर ले लिया गया।

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टेंट हाउस और उसके बाहर कुर्सी। यहां पर रूकने के लिए  इन्हें किराए पर लिया जा सकता है जिसका एक दिन का शुल्क 500 से 700 रुपए दो लोगों के लिए होता है।

 उसके बाहर एक कुर्सी थी, जिसे लोहे के पाइप पर मज़बूती से सफ़ेद कपड़ा लपेटकर बनाई गई थी। उसमें इतनी पर्याप्त जगह थी कि उस पर आसानी से लेटा जा सके। हाथों को सिर के पीछे लगाया और उस पर फैलकर चादर बन गया। हल्की-हल्की धूप चेहरे पर उतरती रही। सामने पहाड़ों की शृंखला थी जिसके पीछे से सूर्य मेघों के साथ अठखेलियां कर रहा था। तलहटी में इक्का-दुक्का मकान दिखते थे। देह ने आराम पाया, कुछ क्षण के लिए मन ने भी। ख़ुद ही से हौले से कहा,‘इसे कहते हैं एक यादगार दिन की शुरुआत।' जैसे ही आंखें बंद की तो बावरा मन फिर वहीं दौड़ने लगा, कुम्भलगढ़ की तस्वीरों में देखी प्राचीर पर। थिरकने लगा ‘माटी बांधे पैंजणी' पर, ‘केसरिया बालम' पर।

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हनुमान पोल। बाईं ओर कार के पीछे केसरिया रंग में दिखाई दे रही हनुमान जी की मूर्ति को महाराणा कुम्भा नागौर के शासक को हराकर लाए थे। इसी कारण इस द्वार का नाम हनुमान पोल है।

वो रहा कुम्भलगढ़!

पता चला कि गढ़ तक जाने के लिए जीप की सुविधा है, एक ओर का किराया 200 रुपए। राशि तो अधिक थी, किंतु वहां से दूर-दूर तक गढ़ का कोई नामोनिशान नहीं दिखाई दे रहा था, सो जीप कर ली गई। सामने दो पहाड़ दिखाई दे रहे थे, अंग्रेज़ी के अक्षर ‘एम' की तरह। एक ओर कुम्भलगढ़ वन्यजीव अभयारण्य का बोर्ड दिखाई दिया। मैं सामने की पहाड़ियों को बड़ी लालसा से निहारता रहा और सोचा कि हो न हो इन पहाड़ियों के बीच के दर्रे से गुज़रकर मुड़ते ही दुर्ग दिखाई दे जाएगा। और हुआ भी यही।

जैसे ही जीप मुड़ी, ढलान आई और सामने एक ऊंची चोटी पर क़िला दिखाई दिया। अहा! अद्‌भुत और भव्य। ‘वो रहा कुम्भलगढ़'। जैसे एक प्रेमी को लम्बे इंतज़ार के बाद प्रेयसी को जी भरकर देखना नसीब हो गया हो। जैसे कोई निशास्वप्न आज पूर्ण हो रहा हो। जैसे परदेस से लौटे बालम अपने देस का पहला दरख़्त और चौपाल दिख गई हो।

बाईं ओर पहाड़ी पर एक भव्य दुर्ग सीना ताने खड़ा था और वहीं से दाईं तरफ़ की ओर उसकी विस्तृत प्राचीर फैली जा रही थी। सामने एक द्वार आया हनुमान पोल। मेहराबदार द्वार के बाहर बाईं ओर केसरिया रंग ओढ़े हनुमानजी की मूर्ति है। मूर्ति के साथ लाल रंग का ध्वज फहरा रहा है। नागौर के हाकिम को हराकर राणा कुम्भा वहां से हनुमानजी की यह मूर्ति लेकर आए थे। इसलिए द्वार का नाम हनुमान पोल हुआ और ताकि प्रभु सदा गढ़ की रक्षा करते रहें। कोई 5-7 मिनट की यह छोटी-सी सफ़ारी ख़त्म हुई और हम कुम्भलगढ़ के मुख्य द्वार पर खड़े थे। राम पोल।

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राम पोल।

यहां बाएं हाथ पर टिकट खिड़की है। इस द्वार से भीतर घुसते ही क़िले का भीतरी दृश्य स्पष्ट हो गया। जगह-जगह मंदिर, भग्नावशेष, मकान आदि दिखाई दिए। कल्पना की जा सकती है कि आज वीरान-सा दिखाई दे रहा परकोटे से बंधा यह नगर अपने चरम काल में कितना सुंदर और सुसज्जित रहा होगा। हमारे सामने दो रास्ते थे। बाईं ओर का रास्ता घुमावदार रपट से ऊपर बादल महल परिसर तक जा रहा था और दाईं ओर का पथ वेदी परिसर, प्राचीन मंदिर और चौड़ी प्राचीर की ओर जा रहा था। मैंने नज़र उठाकर बादल महल को देखा, दाएं घूमकर प्राचीन मंदिरों को देखा, फिर अपने मित्रों की ओर मुख़ातिब हुआ और अनायास ही बोल पड़ा,‘मुझे यहां फिर से आना पड़ेगा। इतने भव्य दुर्ग के पोर-पोर को छूकर अहसास में पिरोने के लिए मुझे पर्याप्त समय चाहिए।'ा

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कुम्भलगढ़ दुर्ग

राजपूती वैभव का प्रतीक

अव्वल तो क़िले के बाहर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा स्थापित शिला पर यह जानकारी अंकित मिली- ‘इस दुर्ग का निर्माण महाराणा कुम्भा ने वर्ष 1443-1458 ईस्वी के बीच प्रमुख वास्तुविद मंडन की देखरेख में करवाया था। ऐसी मान्यता है कि इस दुर्ग का निर्माण दूसरी सदी के जैन राजकुमार सम्प्रति से सम्बंधित अवशेषों के ऊपर किया गया। क़िले की प्राचीर नियमित अंतराल पर बनी सुदृढ़ बुर्जियों से सुरक्षित है जिसमें प्रवेश हेतु दक्षिण से अरेट पोल, हल्ला पोल व हनुमान पोल होते हुए मुख्य प्रवेश द्वार राम पोल एवं विजय पोल तक पहुंचा जाता है। दुर्ग के ऊपरी भाग में स्थित महलों तक पहुंचने के लिए भैरव पोल, निम्बो पोल एवं पागड़ा पोल होकर जाना पड़ता है। क़िले के पूर्व में एक और प्रवेश द्वार है जिसे दाणीबट्‌टा के नाम से जाना जाता है जो मेवाड़ को मारवाड़ से जोड़ता है। क़िले में स्थित प्रमुख हिंदू एवं जैन स्मारकों में वेदी मंदिर, नीलकंठ महादेव मंदिर, चारभुजा मंदिर, गणेश मंदिर, महादेव मंदिर, बावन देवरी, पार्श्वनाथ मंदिर, महादेव मंदिर, गोलेराव मंदिर समूह एवं कुछ लघु मंदिर उल्लेखनीय हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण स्मारकों में छत्रियां महाराणा प्रताप की जन्मस्थली, कुम्भा महल के भग्नावशेष, बादल महल, बावड़ियां और जल संग्रह हेतु बांध प्रमुख हैं। उत्तरकालीन स्मारकों में राणा फ़तेहसिंह (1884-1930 ईस्वी) द्वारा निर्मित बादल महल दुर्ग के प्रमुख स्मारकों में से एक है।'

इसकी चोटी समुद्र की सतह से 3568 फ़ीट ऊंची है। दुर्ग चारों ओर से 36 किमी लम्बी प्राचीर से घिरा हुआ है जो चीन की दीवार के बाद दूसरे स्थान पर है। साथ ही विश्व में किसी भी दुर्ग की सबसे लम्बी प्राचीर के रूप में गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में कुम्भलगढ़ का नाम दर्ज़ है।

एक महान शासक और अजेय योद्धा : महाप्रतापी महाराणा कुम्भा

मेवाड़ में चौरासी दुर्ग हैं, जिनमें से 32 का निर्माण महाराणा कुम्भा ने करवाया था। उनमें सबसे प्रसिद्ध है- कुम्भलगढ़। महाराणा कुम्भकर्ण यानी कुम्भा मेवाड़ ही नहीं अपितु देश के महानतम शासकों की अग्रिम पंक्ति में गिने जाते हैं। जनश्रुति के अनुसार महाराणा कुम्भा का जन्म देवगढ़ के पास मदारिया गांव में हुआ था। उनका जन्म विक्रम संवत 1474 में मकर संक्रांति के दिन का माना जाता है। उनका जीवन भी उत्तरायण के दिनकर की तरह प्रचंड तेज की भांति दिनों-दिन उदय हुआ जिसके आलोक से आर्यावर्त का इतिहास आज भी प्रकाशमान होता है। उनके पिता महाराणा मोकल एवं माता सौभाग्य देवी थीं। महाराणा मोकल के शासन काल में ही चित्तौड़ के राजदरबार में दो दल बन गए थे, जिनमें से एक कुंवर चुंडा का समर्थक था और दूसरा राठौड़ राव रणमल का। कालांतर में दोनों दलों के आपसी संघर्ष एवं मेवाड़ी सामंत चाचा, मेरा एवं महपा पंवार की महत्वाकाक्षांओं के कारण षड्यंत्र से महाराणा मोकल की हत्या कर दी गई। मेवाड़ पर हुए इस आकस्मिक आघात के परिणामस्वरूप महाराणा मोकल के ज्येष्ठ पुत्र महाराणा कुम्भा ने राजसिंहासन संभाला।

वीर विनोद ग्रंथ के अनुसार महाराणा कुम्भा विक्रम संवत 1490 में यानी 1433 ईस्वी में मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। मेवाड़ उस वक़्त चारों ओर से दुश्मनों से घिरा हुआ था। सबसे पहले महाराणा कुम्भा ने अपने पिता के हत्यारे ‘चाचा और मेरा' से बदला लिया। गुजरात और मालवा के बादशाहों ने समय-समय पर मेवाड़ पर आक्रमण करना चाहे किंतु हर बार महाराणा ने उन्हें धूल चटाई। मालवा के बादशाह महमूद को महाराणा ने हराकर 6 माह तक बंदी बनाकर रखा था और कुछ दण्ड लेकर छोड़ा था। उनकी इस यशस्वी विजय का गुणगान करता कीर्ति स्तम्भ आज भी चित्तौड़ दुर्ग पर मौजूद है। महाराणा कुम्भा ने विक्रम संवत 1490 से विक्रम संवत 1525 तक मेवाड़ पर लगभग 35 वर्षेां तक शासन किया।

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महाराणा कुम्भा का चित्र। स्रोत: इंटरनेट

कुम्भा एक प्रतापी शासक और वीर योद्धा होने के साथ-साथ संगीत विद्या, व्याकरण, छंद, वास्तु, शिल्प, स्थापत्य आदि में भी निपुण थे। वे संस्कृत के भी उद्‌भट विद्वान थे। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में उन्हें निर्भय, निशंक और प्रजापालक कहा गया है। उनके विलक्षण व्यक्तित्व का परिचय उनके लिए प्रयुक्त की गई उपाधियों से होता है जैसे महाराजाधिराज रायराज, राणेराय (विद्वानों के आश्रयदाता), राजगुरु, दानगुरु, शैलगुरु (शस्त्र विद्या के गुरु), चापगुरु (धनुर्विद्या के शिक्षक), हालगुरु (पहाड़ी दुर्गों के विजेता), अभिनवभरताचार्य (नव्य भरत) आदि।

उन्होंने संगीत-राज वर्तिक, संगीत मीमांसा, रसिक प्रिया (जयदेव कृत गीतगोविंद पर टीका) आदि पुस्तकें लिखीं, साथ ही संगीतरत्नाकर और चंडी शतक पर भी टीका लिखा। कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति में उनके द्वारा 4 नाटकों की रचना का भी उल्लेख मिलता है किंतु वे समय की भेंट चढ़ चुके हैं। रामवल्ल्भ सोमानी द्वारा महाराणा कुम्भा पर लिखी पुस्तक के अनुसार, कीर्ति स्तम्भ की प्रशस्ति एवं एकलिंग माहात्म्य में उन्हें वेद, स्मृति मीमांसा, राजनीति शास्त्र, संगीत, नाट्यशास्त्र, गणित शास्त्र, अष्टाध्यायी, उपनिषद् तर्क शास्त्र और साहित्य में निपुण बताया गया है।

एक मत है कि कान्ह व्यास द्वारा रचित ‘एकलिंग माहात्म्य' का प्रथम भाग ‘राजवर्णन' महाराणा कुम्भा ने ही लिखा था। अन्य विद्वानों का मत है कि ‘एकलिंग माहात्म्य' के रचयिता महाराणा कुम्भा हैं। संगीत की कुम्भ मल्हार नामक नवीन शैली को प्रचलित करने का श्रेय भी महाराणा कुम्भा को ही जाता है। महाराणा का शासन काल मूर्तिकला के विकास के लिए भी महत्त्वपूर्ण रहा। उस समय चित्तौड़गढ़, अचलगढ़, एकलिंगनाथ जी मंदिर, रणकपुर के साथ-साथ कुम्भलगढ़ भी मूर्तिकला का प्रमुख केंद्र था। इस काल में शिल्पकला की दृष्टि से अप्रतिम उदाहरण चित्तौड़गढ़ में स्थित ‘विजय स्तम्भ’ है जिसे देवता मूर्ति कोष भी कहा जाता है।

महाराणा कुम्भा इतने जनप्रिय शासक थे कि उनकी अलौकिक कहानियां भी श्रुतियों में प्रसिद्ध हैं। श्रीकृष्ण की तरह की कई कहानियां उनके बारे में सुनने को मिलती हैं, जिसमें श्रीकृष्ण एक ही समय पर अपनी सारी रानियों के साथ मौजूद थे।

एक बात का यहां ज़िक्र और ज़रूरी है। अंग्रेज़ विद्वान कर्नल टॉड ने राजस्थान के इतिहास पर एक प्रसिद्ध पुस्तक ‘एनाल्स एंड एंटीक्स ऑफ़ राजस्थान’ लिखी है जिसमें उन्होंने भूलवश मीराबाई को महाराणा कुम्भा की रानी लिखा है, जबकि मीराबाई महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज को ब्याही थीं।

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नन्हे गाईड से मुलाक़ात

दुर्ग हमारे सामने था और समय हाथ से रेत की तरह फिसल रहा था। तय किया कि पहले दुर्ग देख लिया जाए, फिर परकोटे के भीतर के नगर को निहारेंगे। हम बाएं ओर से रपट पर चढ़कर ऊपर बादल महल की ओर चल दिए। इच्छा थी कि कोई गाईड मिल जाए ताकि हर स्थान की कथा का रस मिल सके। मैं ऊपर महल को देखकर चलता रहा, मित्रगण तस्वीरें लेते रहे। हमारा रास्ता रोका एक 14-15 वर्षीय बालिका ने। उसने पूछा,‘आपको गाईड चाहिए?'

हमने कहा,‘हां, चाहिए तो पर कहां है?'

उसने कहा,‘हम घुमा देंगे आपको। सभी जगह की कहानी बताएंगे। एक-एक चीज़ के बारे बताएंगे।' हम ख़ुश हो गए कि चलो कोई तो मिला। हम ख़ुशी-ख़ुशी बालिका के साथ हो लिए।

बालिका ने कहा,‘हम आपको सिर्फ़ सफ़ेद दरवाज़े तक लेकर जाएंगे। उसके अंदर जो भी महल हैं, उनकी कहानी बाहर ही सुना देंगे।'

हम तैयार हो गए। लिहाज़ा पहली कहानी थी,‘जब दुर्ग का निर्माण शुरू हुआ तब दीवार बनाने में बड़ी समस्या सामने आई। दीवार बनती और गिर जाती, फिर से बनाई जाती, फिर गिर जाती। तब मेहर नामक एक बाबा ने बताया कि यहां पर देवी का प्रकोप है। बलि देनी होगी और जब कोई बलि के लिए तैयार न हुए तो स्वयं मेहर बाबा ने बलि दी और उनकी शीश रहित देह ऊपर तक चलकर गई थी।'

ख़ैर, लिखित साक्ष्यों में ऐसी किसी भी घटना का उल्लेख नहीं मिलता है। हर गढ़-क़िले पर ऐसी अनेकानेक दंतकथाएं प्रचलित हैं जिनका अपना रस होता है।

कुछ क़दम चलकर उसने हमारे मित्र की एक तस्वीर खींची जिसमें वह आभासी रूप से एक मंदिर को शीर्ष से उठा रहा था। वैसी ही जैसी लोग ताजमहल के आगे खड़े होकर खिंचवाते हैं। इस पूरे खेल के समय हम हंसते रहे। कोई 100-150 क़दम चलकर एक मोड़ के बाद ही वह सफ़ेद दरवाज़ा आ गया जहां तक का वादा बालिका ने किया था। यह सफ़ेद द्वार ही भैरव पोल है। भीतर क्या-क्या है उसके बारे में उसने बताया,‘आगे ऊपर एक पागड़ा पोल द्वार है। उसके पीछे की ओर के स्थान पर महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था। यहां जो सामने दीवार देख रहे हैं, वह 36 किमी लम्बी है जो चीन के दीवार के बाद लम्बाई के मामले में दूसरे स्थान पर है। ऊपर एक माताजी का मंदिर है जहां 700 वर्ष पुरानी अखंड ज्योत जल रही है। ऊपर एक बादल पैलेस है जिसका निर्माण महाराणा फ़तेहसिंहजी ने करवाया था। कम्पलीट।'

उसके इस 5 से 6 कहानियां सुनाने के कार्य का मेहनताना था-300 रुपए। ख़ैर, यह उसने हमें पहले ही बता दिया था। हमने उसे मेहनताना दिया, एक-दूसरे को देखा और ठठाकर हंसे। पहली दफ़ा इतनी महंगी कहानियां सुनी थीं। हमें इस नन्ही गाईड का नाम अभी तक याद है और वह टोन भी जिसमें उसने ‘कम्पलीट' कहा था।

महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक

पन्ना धाय की कहानी से हम सब परिचित हैं कि उन्होंने किस तरह अपने बेटे का बलिदान देकर मेवाड़ के वंशज 14 वर्षीय राणा उदयसिंह की बनवीर से प्राणों की रक्षा की थी। किंतु उसके बाद क्या हुआ? वीर विनोद में इसका ज़िक्र मिलता है। पन्ना राणा उदयसिंह को चित्तौड़ से अपने साथ ले निकलने में क़ामयाब हो गई थीं। किंतु, बनवीर का भय भी था, ज़रा भी संदेह होने पर राणा की जान पर बन सकती थी। पन्ना खीची जाति की राजपूतानी थीं। उन्होंने उदयसिंह को टोकरे में बिठाकर ऊपर से पत्तल से ढंक दिया और एक बारिन के सिर पर रखकर अपने व उसके पति को साथ लेकर देवलिया की ओर रवाना हुए। रास्ते में बड़े-बड़े दु:ख उठाते हुए रावत रायसिंह के पास पहुंचे। वहां से वे डूंगरपुर होते हुए अंतत: पहुंचे यहां यानी कुम्भलमेर। उस समय यहां का क़िलेदार था आशा देपुरा। आशा महाराणा सांगा के समय से कुम्भलमेर का क़िलेदार था और अपनी राज्य के प्रति अपनी निष्ठा दिखाने का यही अवसर था। उसने राणा को अपना भांजा बताकर अपने पास रख लिया। किंतु यह बात कब तक छिप सकती थी। थोड़े ही दिनों में यह बात सभी जगह फैल गई। जो सरदार और राजपूत बनवीर पर बिगड़े हुए थे वे भी कुम्भलमेर आ पहुंचे और महाराणा को नज़रें भेंट कीं। विक्रम संवत 1594 यानी 1537 ईस्वी में रीति अनुसार गादी उत्सव का आयोजन कुम्भलगढ़ में किया गया।

राणा उदयसिंह ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर फ़तह हासिल की। राणा उदयसिंह का विवाह खैरवा के जैतसिंह की छोटी बेटी से हुआ था। उनकी बड़ी बहन का नाम था स्वरूपदेवी। विदाई के समय स्वरूपदेवी ने छोटी बहन को दहेज़ के तौर पर एक ज़ेवर का डिब्बा देना चाहा था, किंतु संयोगवश राठौड़ों की कुलदेवी ‘नागणेची' का डिब्बा दे दिया। जब कुम्भलमेर में डिब्बा खोला गया तो उसमें से देवी की एक मूर्ति निकली जिसे महाराणा ने बड़ी ख़ुशी और सम्मान के साथ पूजन में रखा। तभी से उदयपुर में नागणेची देवी का पूजन होता आ रहा है। महाराणा उदयसिंह ने कुम्भलमेर दुर्ग की चोटी पर एक महल का निर्माण भी करवाया था जिसका नाम रखा गया ‘झाली का मालिया' यानी झाली का महल। इस महल के ऊपर रखने के लिए एक ऐसा चिराग़ भी तैयार करवाया गया था जो दो मन बिनौले (कपास के बीज) और तेल से जलाया जाता था।

महाराणा प्रताप की जन्मस्थली

हम भैरव पोल पर खड़े थे। यह भी लकड़ी से बना एक मज़बूत द्वार है। इस पर भी पुराने क़िलों के हर दरवाज़े की तरह नुकीली कीलें बाहर निकली हुई हैं। उस ज़माने में ये हाथियों द्वारा दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश को नाकाम करने में उपयोग होती थीं। पोल से अंदर दाख़िल हुए और दाईं ओर जा रही रपट पर मुड़ गए। उसके बाद आए चौगान पोल से भीतर घुसे तो एक छोटा-सा उद्यान मिला। चारों ओर से कंटीलें तारों की फेंसिंग थी। उद्यान के बाईं ओर किनारे-किनारे फर्श का एक रास्ता है जो तोपखाने तक जाता है। उसमें पंक्ति से पांच मेहराबदार दरवाज़े हैं, जिन पर सलाखें हैं और उसके पीछे रखी हैं उस ज़माने की तोपें। दुर्ग की ऊंचाई पहले ही दुसाध्य है और फिर उसके बाद यहाँ ऊंचाई से अरिदल पर तोपे चलाई जाती होंगी, तो शत्रु के पैर उखड़ते देर न लगती होगी।

यहां से आगे बढ़े तो एक स्थान पर बोर्ड पाया- महाराणा प्रताप जन्मस्थली। मेवाड़ कुल गौरव महाराणा प्रताप। एक ऐसे महान योद्धा जिनकी वीरता की गाथा आज भी सुनी-सुनाई जाती है, जिन्होंने अंतिम श्वास तक मुग़लों से युद्ध किया और तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद रजपूती मान पर आंच नहीं आने दी। महाराणा राजसिंह के समय के ‘अमरकाव्य' के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म विक्रमी 1596 ज्येष्ठ शुक्ल 13 (31 मई 1539) को कुम्भलगढ़ में हुआ। यहीं महाराणा का बचपन गुज़रा था। उनका राज्याभिषेक विक्रम संवत 1628 फाल्गुन शुक्ल 15 (1 मार्च 1572) को हुआ था। महाराणा गोगुंदा में राज्य गद्दी पर बैठे। वहां से प्रताप कुम्भलमेर पधारे और राज्याभिषेक का बड़ा उत्सव हुआ।

राणा प्रताप का नाम पढ़ते ही कानों में वह गीत गूंजने लगा जो हम बचपन में थाप देकर गाया करते थे ‘गूंज उठी थी हल्दीघाटी घोड़ों की उन टापों से, वीरों की एक सेना लेकर राणा लड़ता मुग़लों से'। मन में गीत गूंजता रहा और हम एक-एक कर सीढ़ियां चढ़ते रहे। भीतर एक रोमांच भी था, आख़िर यह महाराणा का जन्मस्थान ही नहीं, वीरों की तीर्थस्थली भी है। किंतु, निराशा। द्वार पर एक बड़ा-सा ताला लगा हुआ था। हम पुन: नीचे उतर आए। जन्मस्थली की ओर मुख कर हाथ जोड़े और श्रद्धापूर्वक नमन किया, उस महान भूमि को, माटी को जिसने महाराणा प्रताप जैसे महावीर को जन्म दिया है।

अजेय दुर्ग के शीर्ष पर

महाराणा प्रताप जन्मस्थली से और ऊपर पहुंचे तो एक ख़ूबसूरत महल दिखाई पड़ा। उस तक पहुंचने के लिए एक संकरी गली थी जो एक दालान में खुलती थी। दालान के बीचों-बीच एक चबूतरा है। इसके ठीक सामने एक प्राचीन देवी मंदिर है। वही मंदिर जिसके बारे में नन्हे गाईड ने बताया था कि वहां 700 वर्ष से एक ज्योत जल रही है। हम भी दर्शन के लिए पहुंचे। तीन सीढ़ियां चढ़कर बाएं मुड़ने पर एक अंधेर कक्ष है। वही मंदिर है। यहाँ एक समाई में ज्योत प्रज्वलित है और मंदिर के भीतर प्रकाश के लिए कोई भी आधुनिक उपकरण जल नहीं रहा था। एक बुज़ुर्ग अम्माजी से भेंट हुईं, जो वहीं देखरेख का कार्य करती थीं। उन्होंने भी यही बताया कि यह ज्योत कोई 700 वर्ष से जल रही है और यह लगातार जलती रहे, यह सुनिश्चित करता है पुजारीजी परिवार। उनकी पुश्तें सदियों से यह कार्य करती आ रही है। ऐसी विशिष्ट बातें अक्सर ही रोमांच से भर देती हैं। यह देवीस्थान और उसमें यह अग्निदेवता गढ़ में घटी सारी घटनाओं के साक्षी होंगे।

इसी दालान के एक कोने पर लिखा था कुम्भा महल। जिस तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां हैं। यह एक दुमंज़िला भवन है। महल में नीचे दो कक्ष, एक बरामदा और सामने की ओर खुला प्रांगण है। ऊपर चढ़े तो यह भी बंद मिला। किंतु इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह अपने समय में कितना भव्य और राजसी रहा होगा।

बादल महल होते हुए हम शीर्ष पर पहुंचे। जैसा कि शिलापट से पता चला था कि इसका निर्माण महाराणा फ़तेहसिंह ने करवाया था। इसमें अनेक छोटे व बड़े कक्ष हैं। यह जनाना महल और मर्दाना महल के नाम से दो भागों में विभक्त है। जनाना महल के बरामदे और खिड़कियां जालीदार हैं ताकि महल के भीतर से स्त्रियां बिना दिखाई दिए वहां के कार्यक्रमों को देख सकें। क़िले के शीर्ष से चतुर्दिक पहाड़ और वन ही नज़र आते हैं। सामने पहाड़ी दर्रे को जाती दूर तक सीधी रेखा में वह सड़क दिखाई दे रही है जिस पर से हम जीप पर सवार होकर आए। उसके बाईं ओर नज़र घुमाई तो क़िले की विस्तृत प्राचीर दिखाई दी जो दूर मीलों तक फैली जा रही है। एक सशस्त्र योद्धा पंक्ति की तरह सुरक्षा को प्रतिबद्ध परकोटे। सूरज चढ़ा हुआ था, हम नीचे उतर आए। उतरते वक़्त एक द्वार के बाहर बुजु़र्ग माताजी दो मटके लिए बैठी थीं, राहगीरों की प्यास बुझाने के लिए। हमने पूछा कि वे कहां रहती हैं और यहां कहां से पानी लेकर आई हैं? वहां से क़िले के नीचे की ओर उन्होंने कुछ एक-दुक्का मक़ानों की ओर इशारा किया ‘वहां। वहीं से मटके सिर पर रखकर लाते हैं।' यह कार्य वे रोज़ाना करती हैं, बिना थके। मैंने आश्चर्य से उन दूर दिखाई दे रहे घरों को देखा, फिर चंद पर्यटकों को जो हांफते हुए चढ़ रहे थे, फिर अम्माजी की ओर मुख़ातिब हुआ। उनके होंठों पर एक निश्छल मुस्कान तैर रही थी।

इस नगर में इतिहास बोलता है…

दुर्ग से नीचे उतरकर हम फिर से रामपोल के सामने खड़े थे। दाएं वाला मार्ग वेदी परिसर की ओर जा रहा था। क़िले की प्रतिष्ठा के समय वेदी परिसर के इस मण्डप में विधिपूर्वक होम किया गया था। इसका निर्माण महाराणा कुम्भा ने 1457 ईस्वी में करवाया था। यह दो मंज़िला परिसर ऊंची जगती पर निर्मित है। द्वार का मुख पश्चिम की ओर है। अष्टकोणीय योजना पर पर निर्मित इस वेदी परिसर की छत गुम्बदनुमा है जो 36 स्तम्भों पर टिकी है। परिसर के दाएं ओर प्राचीर फैली जा रही है। हम भी उसी प्राचीर पर चढ़ गए। पलटकर देखा तो गढ़ का एक विहंगम दृश्य सामने था। हम जिस दीवार पर खड़े थे वह क़िले से ही एक भुजा की तरह निकलकर हमारी ओर आ रही थी। दीवार के उस ओर गहरी खाई है, सामने पर्वत शृंखला है जो अजमेर की ओर चली गई है। इसके पश्चिम में मारवाड़ और पूर्व में मेवाड़ है। दीवार-दीवार चलते रहे, किंतु कब तक! यह तो 36 किमी लम्बी है। कुछ दूर चलने के बाद नीचे उतरे तो प्राचीन जैन मंदिरों तक पहुंचे। जिनमें से कुछ 2000 वर्ष पुराने हैं। उसके आगे जानकारी देने वाला सूचनापट ज़रूर लगा था किंतु उसके शब्द-शब्द यूँ मिट चुके थे जैसे वक़्त के थपेड़ों का सबसे ज़्यादा असर उसी पर हुआ था।

जो बात सबसे अधिक यहां खली वह थी कि किसी भी स्मारक, मंदिर आदि के आगे पर्याप्त जानकारी का न तो कोई बोर्ड था और न ही कोई अधिकृत गाइड जो एक-एक स्थल के बारे में इत्मीनान से बताए। एक ऊंची जगह से कुछ मंदिर समूह दिखाई दिए थे, सो उसी दिशा में चल पड़े। पगडंडी-पगडंडी होते हुए बढ़ते रहे। पैरों के नीचे सूखे पत्तों के तिड़कने और टहनियों के चटकने की आवाज़ बराबर आती रही। नज़दीक पहुंचकर दृश्य स्पष्ट हुआ। यह था बावन देवरी यानी 52 मंदिर। यह एक आयताकार परिसर है। पूरे आयत की रेखाओं पर एक से दूसरे को सटाकर एक ही परिसर में 52 जैन मंदिरों का निर्माण किया गया था। इसका प्रवेश द्वार उत्तर दिशा की ओर है। किंतु यह भी ताले से बंद मिला। भीतर झांकने की कोशिश की दिखाई दिया कि मंदिर में एक गर्भगृह, अंतराल व खुला मंडप है। जैन तीर्थंकर की एक प्रतिमा भी है। बाहर से ही एक परिसर के मध्य एक केंद्रीय मंदिर दिखाई पड़ता है। बाक़ी अन्य छोटे मंदिर मूर्तिविहीन हैं। कुछ देर हम इस द्वार के सामने बैठ सुस्ताए। पत्थरों को छूकर सदियों पुराने पत्थर तराशने वाले शिल्पियों के सख़्त हाथों को महसूस करने की कोशिश करते रहे। मौसम बदल रहा था, सूरज की सख़्त धूप को नर्म हवा हथेली बन हटा रही थी।

वहां से निकलकर मामादेव मंदिर पहुंचे। महाराणा कुम्भा ने इस मंदिर के प्रस्तर खण्डों पर कुम्भलगढ़ के इतिहास को उत्कीर्ण करवाया था। यहाँ से प्राप्त कुम्भलगढ़ प्रशस्ति लेख को 5 विशाल शिलापटों पर उत्कीर्ण किया गया था। पहले प्रस्तर पट पर मेदपाट के पवित्र स्थल, जलाशय, देवमंदिरों का वर्णन तथा अन्य शिलापट पर बाप्पा रावल से लेकर महाराणा कुम्भा तक के शासन का वर्णन प्राप्त होता है। मामादेव मंदिर से देवी-देवताओं की अनेक प्राचीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। इसी के पास एक मामादेव का कुण्ड है।

यह कुण्ड साक्षी है पिता के साथ हुए एक पुत्र के छल का।

एक दिवस महाराणा कुम्भा इसी कुण्ड पर बैठे थे और पीछे से आकर उनके बड़े बेटे ऊदा ने उनकी तलवार से हत्या कर दी थी। इसी जगह एक अजेय शासक का स्वर्गवास हुआ था, जो कभी किसी युद्ध में पराजित नहीं हुए थे। तत्कालीन ग्रंथों में ऊदा की घोर निंदा की गई है। उस समय किसी कवि ने यह दोहा कहा था-

ऊदा बाप न मारजै, लिखियो लाभै राज।

देस बसायो रायमल सरयो न एको काज।

अर्थात- ऊदा तुझे बाप को नहीं मारना चाहिए था, राज्य तो भाग्य में लिखा हो तभी मिलता है। देश का स्वामी तो रायमल हुआ और तेरा एक भी काम सिद्ध न हुआ।

पितृहंता ऊदा लम्बे समय तक टिक नहीं पाया और 5 वर्ष बाद ही उसे हराकर महाराणा कुम्भा के अन्य पुत्र राणा रायमल गद्दी पर विराजे।

मुझे इस तरह के प्राचीन पत्थरों को महसूस करना भाता है। और फिर यदि शिलाएं ऐसी हों जैसे कोई अनुभवी बूढ़ा मनुष्य, तो देह में रोमांच का संचार होना स्वाभाविक है, जिन्होंने न जाने कितनी पीढ़ियों को गुज़़रते देखा, कितने राजाओं को चढ़ते-उतरते देखा। मैं सोचता रहा कि क्या ये सदियों पुरानी शिलाएं कभी उस दृश्य को भूलती होंगी! क्या आज भी वह चीख इन पत्थरों से टकराकर निशा में किसी के कानों में पड़ जाती होगी! यदि ऊदा की आँखों में भय था तो सिर्फ़ इन्हीं पत्थरों ने उसे महसूस किया होगा। यह सत्ता का कैसा लोभ है जो एक पुत्र को अपने पिता के विरुद्ध खड्ग उठाने को प्रेरित कर देता है!

मन में विचारों का सूर्य दमकता रहा और वहाँ बाहर आकाशीय प्रकाशपुंज के अस्ताचल को आलिंगन में भर लेने में अब कुछ ही समय शेष था।

एक ख़ूबसूरत दिन को विदाई

अब लौटने का समय हो रहा था। हम फिर से रामपोल की दिशा में चल दिए। पथ पर वेदी परिसर के पूर्व में नीलकंठ महादेव का मंदिर है। ऊंची जगती पर निर्मित इस मंदिर का निर्माण 1458 ईस्वी में हुआ था। गर्भगृह के चारों ओर चौबीस स्तम्भों वाला खुला मण्डप है। यहां पर उत्कीर्ण एक स्तम्भ लेख के अनुसार राणा सांगा ने इसका पुनरुद्धार करवाया था। एकलिंगनाथ जी भी महादेव शंकर के ही रूप हैं। मेवाड़ के असली महाराज एकलिंग जी हैं और मेवाड़ की राज्य गद्दी पर बैठने वाले महाराणा उनके दीवान के रूप में पदस्थ होते हैं। इसी तरह की दिलचस्प मान्यता जयपुर राजघराने में भी है। वहाँ के अधिष्ठाता प्रभु गोविंददेव जी हैं और रियासत के महाराज उनके दीवान के रूप में कार्यरत हैं।

कुछ ही देर में हम पुन: मुख्य द्वार पर खड़े थे। पूरा दिन अनवरत घूमने के बाद भी गोलेराव मंदिर समूह, पितलिया देव मंदिर आदि देखना शेष रह गए थे, जिन्हें हमने अगली बार के लिए छोड़ दिया था, क्योंकि बाद में कुम्भलगढ़ पुकारे इसलिए भी तो कुछ होना चाहिए न। और फिर प्रसिद्ध लाइट एंड साउंड शो भी तो देखना रह गया था।

कुम्भलगढ़ हमारे अनुमान से भव्य और अप्रतिम था। हमें पुन: उदयपुर लौटना था, जिसके लिए यहाँ से नज़दीकी ग्राम कैलवाड़ा से बस मिलना थी। कैलवाड़ा का नाम सुनकर दो नाम ज़ेहन में आते हैं, बाणमाता और दीपसिंह। यहाँ बाणमाता का एक प्रसिद्ध प्राचीन मंदिर है और दीपसिंह एक वीर राजपूत थे जिन्होंने मालवा के सुल्तान की सेना के दांत खट्‌टे कर दिए थे।

दरअसल, मालवा के बादशाह महमूद खिलजी को महाराणा कुम्भा ने 6 माह तक बंदी बनाकर रखा था। जिसका ज़िक्र हम पूर्व लेख में कर चुके हैं। विक्रम संवत 1499 (ईस्वी 1442) में अपनी गिरफ़्तारी से शर्मिंदा होकर महमूद खिलजी मेवाड़ पर चढ़ आया और पहाड़ के किनारे-किनारे होता हुआ सीधा कुम्भलमेर की तरफ़ आ गया। दुर्भाग्य से महाराणा उस वक़्त कुम्भलमेर और चित्तौड़ दोनों ही स्थान पर मौजूद नहीं थे। वे चित्तौड़ से पूर्व की ओर एक सैन्य अभियान पर थे। जब महमूद खिलजी कुम्भलगढ़ के नज़दीक आ पहुंचा तो क़िले पर मौजूद महाराणा के एक राजपूत दीपसिंह ने बाणमाता के मंदिर में पहुंचकर मोर्चा संभाला। मंदिर के चारों ओर मज़बूत कोट यानी दीवार थी। महमूद ने मंदिर को घेर लिया। दीपसिंह और उनके साथ चंद राजपूत साथियों ने बड़ी बहादुरी से महमूद की सेना मुक़ाबला किया और बहुत से बादशाही नौकरों को मौत के घाट उतारा। दीपसिंह और उनके साथियों के असाधारण युद्ध कौशल के कारण सात दिन तक महमूद मंदिर की गढ़ी में न घुस पाया। अंत में, दीपसिंह और अन्य राजपूत वीरगति को प्राप्त हुए। अधमी महमूद खिलजी ने मंदिर को तहस-नहस कर दिया और बाणमाता की काले पत्थर की बड़ी मूर्ति को भी तोड़ डाला। इसका पूरा विवरण वीर विनोद ग्रंथ में मिलता है। इतिहास पढ़ना-पढ़ाना इसलिए भी आवश्यक है कि इससे सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने की समझ विकसित होती है।

क़िले से हम लोग पैदल ही निकले। गोधूलि बेला थी, मौसम में हल्की ठंडक आ गई थी। सूर्य तो पहाड़ों के उस पार क्षितिज को अंक भर चुके थे, किंतु संसार में उनका लोहित आलोक अभी भी पसरा हुआ था।

विचार उमड़ते रहे कि आज न तो वैसे युद्ध बचे हैं, न वैसे बलिष्ठ काया के वीर। बस शेष हैं तो ऐसे भव्यातिभव्य दुर्ग और उनके भग्नावशेष, जो न जाने कितनी कही-अनकही कथा गाथाएं अपने भीतर समेटे सदियों तक यूं ही खड़े रहेंगे। पता नहीं हमसे पहले कितने लोगों ने उनकी यह गाथा सुनने में दिलचस्पी दिखाई होगी, या यह भी संभव है ये भग्नावशेष इन कथाओं को अथक रोज़ाना बांचते होंगे। समय की सीख यही है कि साम्राज्य ढह जाते हैं, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ, बलशाली से बलशाली मनुष्य चंद क्षणों में काल का ग्रास बन जाते हैं, किंतु चिरंजीवी रह जाते हैं तो उनके ये भव्य निर्माण, उनकी शौर्य गाथाएं और ये अडिग प्रस्तर शिलाएं। हौले-हौले डग भरते, गाते गुनगुनाते हम मित्रवृंद चलते रहे। यादों के पिटारे में तो इस ख़ूबसूरत दिन से जुड़ी कई यादें हैं, किंतु उनका ज़िक्र साथियों की अनुमति के बग़ैर करना ठीक बात भी नहीं। इतना ज़रूर है कि जब भी आज हम में से कोई ‘कम्पलीट’ कहता है तो हम खिलखिलाकर हँस पड़ते हैं। और फिर जूते के फीते बाँधने वाला क़िस्सा, उसे याद करता हूँ तो कानों तक मुस्कान खिल जाती है।

सीधी- सपाट सड़क पर चलते हुए जब हम उस पहाड़ी दर्रे पर पहुंचे, जहां से मोड़ के बाद दुर्ग नहीं दिखाई देने वाला था, मैं पीछे मुड़ा। एक तस्वीर खींची और आंखों में सहेजा उसे फिर से उसी प्रेमी की तरह जो अपनी प्रेयसी को निहारता है, जुदा होते वक़्त, कि पता नहीं अब कब मिलना लिखा होगा!

किंतु, मैंने एक वादा ज़रूर किया था उससे-

मैं जल्द लौटूंगा कुम्भलगढ़।

( स्रोत साभार-

वीर विनोद, महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास।

महाराणा कुम्भा, रामवल्लभ सोमानी।

annals and antiquities of rajasthan by colonel james tod

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, जयपुर मंडल।)

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