हम सभी मित्र पिछले काफी समय से माता के दरबार वैष्णों देवी जाने की सोच रहे थे। जब भी मिलते बातें करते कि इस दिन चलते हैं, उस दिन चलते हैं। लेकिन ऐसे ही काफी समय बीत गया, फिर कहते भी हैं कि जब तक माता का बुलावा नहीं आता, वहाँ कोई नहीं जा सकता।
एक-एक कर सभी मित्रों की शादियाँ हो गईं। शादी की व्यस्तताओं के बाद मिले तो फिर इच्छा हुई कि माता के दरबार चलते हैं, पर नई-नई जिम्मेदारियों और भाग-दौड़ के बीच ऐसा संभव ही न हो सका। फिर यह बात भी मन में रहती कि माता का बुलावा नहीं आया है।
उधर शादी से पहले ही हमारी धर्मपत्नी लवली जी ने माता के दरबार चलने की बात कही थी और हमने ‘हाँ’ भी कर दी थी। जब जाने की बात सोचते-सोचते दो-तीन माह बीत गए तो उन्होंने फिर से याद दिलाया कि माता के दरबार जाना है। हमने फिर ‘हाँ’ कर दिया और कहा, ‘हाँ-हाँ’ चलेंगे। लेकिन वक्त बीतता गया और छह महीने बीत गए।
फिर एक दिन सभी मित्र मिले और हमने कहा कि बहुत हो गया। अब हमें जल्दी ही माता के दरबार जाना है। सभी ने अपनी सहमति दी। और तय हुआ कि आने वाले शुक्रवार का टिकट करा लिया जाए। अब मन में लग रहा था कि माता का बुलावा आ गया है। रेल की यात्रा की मारा-मारी से हमें बड़ा डर लगता था, सो हमने बस द्वारा जाने का निश्चय किया। टिकट पास की ही एक ट्रेवलर एजेंसी से करा लिए गए। नियत दिन शाम छह बजे घर से टैक्सी में बैठकर निकल पड़े।
कुल पाँच लोग थे। हम, हमारी पत्नी, हमारे मित्र पवन और उनकी पत्नी तथा हमारे परम मित्र निकेश शर्मा। घर से निकले तो धूप खिली थी, लेकिन एक अनोखी घटना घटी कि एक किलोमीटर आगे बढ़ते ही बारिश होने लगी। जब तक बस स्टैंड पर पहुँचे तो बारिश काफी तेज हो चुकी थी। कुछ देर टैक्सी में ही बैठे रहे, लेकिन फिर टैक्सी वाला भी हमें उस मूसलाधार बारिश में छोड़ कर चला गया। उस बस स्टैंड से हमें साढ़े छह बजे बस पकड़नी थी, लेकिन बस न आई। हम पाँचों उस तेज बारिश में भीग रहे थे। शाम का समय होने के कारण वहाँ अन्य कई लोग भी थे। सभी भीग रहे थे।
लगभग एक घंटे तक बारिश होती रही, जब बारिश रुकी तो हमने पास ही बने पार्क के विश्राम गृह में अपने कपड़ों को सुखाया। एक-एक कॉफी पी और फिर बस के इंतजार में स्टैंड पर आ गए। हम ट्रेवलर एजेंसी वाले को बार-बार फोन कर रहे थे और वो बार-बार एक ही जवाब दे रहा था कि बस आ रही है। खैर अब स्टैंड पर बैठकर सड़क पर भरे पानी और उसमें से आती-जाती गाड़ियों को देख रहे थे। चारों तरफ भीगे हुए लोग दिख रहे थे। इसी इंतजार में कब सवा आठ बज गए पता ही न चला और बस आ गई। हम सभी बस में चढ़ गए और अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। हमने स्लिपर सीट बुक की थी इसलिए कुछ देर बाद लेट गए।
भीगने के कारण कब नींद आई, पता ही न चला। जब आँख खुली तो हम दिल्ली से बहुत दूर जम्मू पहुँच चुके थे। अब हम बाहर के अनोखे नजारों को देख रहे थे। सेना की कई छावनियाँ रास्ते में दिख रही थीं। सुबह नौ बजे के आस-पास हम जम्मू उतरे और वहाँ से कटरा की बस में बैठ गए। इस रास्ते में अनेक ऐसे दृश्य देखने को मिले कि मन प्रफुल्लित हो गया। कहीं ऊँचे-ऊँचे पहाड़ तो कहीं दूर तक हरियाली। दूर दिखाई देती बर्फ से ढकी पहाड़ियाँ। मोड़ों पर मुड़ती, धीमी-तेज होती, ऊँचाई-निचाई पर चढ़ती-उतरती बस आगे बढ़ी जा रही थी। हम सब इंतजार कर रहे थे कि कब कटरा पहुँचेंगे और माता के दर्शन करेंगे। ठीक साढ़े नौ बजे हम कटरा पहुँचे। वहाँ एक अलग ही दुनिया थी। चारों तरफ भीड़-ही-भीड़, न जाने कहाँ-कहाँ से लोग दर्शन करने आए थे। हमारे ठीक सामने वह पहाड़ियाँ थीं, जिन पर माता का दरबार था। नीचे से देखने पर ऐसा लग रहा था जैसे वो पहाड़ आसमान को छू रहे थे। हरियाली से ढके हुए और बादलों को स्पर्श करते हुए, विशालकाय पर्वत। उसी असीम ऊँचाई पर नजर आ रहा था, माता का श्वेत दरबार।
खैर हमने पहले नहा-धोकर कुछ आराम करने की सोची। वहाँ हर प्रकार के होटल थे, जिनके किराए भी कम-ज्यादा थे। कई धर्मशालाएँ भी थीं, जहाँ मुफ़्त रहने की व्यवस्था थी। हमने एक कमरा किराए पर लिया और वहाँ कुछ आराम किया। साथ ही नहा-धोकर सफर की थकान उतारी। दोपहर के बारह बज चुके थे, फिर हमारे मित्र पवन ने काउंटर पर जाकर दर्शनों की पर्ची कटा ली। लगभग दो बजे हम सबने दोपहर का भोजन किया। वहाँ सभी जगह शुद्ध शाकाहारी भोजन मिलता है। इसके बाद कुछ आराम करने कमरे में आ गए। चार बजे के आसपास हमने चढ़ाई प्रारंभ करने की सोची। अपना सामान कमरे में छोड़कर हम सब बाहर आ गए। साथ में एक-एक जोड़ी कपड़े रख लिए जो दर्शनों से पहले नहाकर पहनने थे। प्रसाद की थालियाँ लेकर हम सबने ठीक चार बजकर पंद्रह मिनट पर चढ़ाई आरंभ कर दी। रास्ते में हमारे जैसे सैंकड़ों लोग चल रहे थे।
चारों ओर से माता के जयकारों की थी। जो लोग पैदल नहीं चढ़ सकते थे, वो घोड़ों तथा पालकियों में बैठकर दर्शन के लिए जा रहे थे। पालकियाँ उठाने वाले बेहद आत्मविश्वास तथा तालमेल के साथ आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में छोटे-छोटे जल-पान गृह तथा दुकानें भी आ रही थीं। जब हम थक जाते तो किनारे पर बनी दीवार पर बैठकर सुस्ताने लगते। धीरे-धीरे ऊँचाई बढ़ने लगी और नीचे का दृश्य मनोहारी लगने लगा। जहाँ से हम चले थे वहाँ के घर-दुकानें बेहद छोटे नजर आ रहे थे। समूचा रास्ता पक्का तथा साफ-सुथरा था। रास्ते के ऊपर लोहे की चादरें धूप तथा बरसात से बचने के लिए लगाई गई थीं। लेकिन ऊपर पहाड़ों से गिरने वाले बड़े-बड़े शिला-खंडों से कुछ स्थानों पर बड़े-बड़े छेद हो गए थे, जिन्हें देखकर मन भयभीत हो जाता था। उस समय गर्मी थी, इसलिए बीच-बीच में पानी आदि पीना पड़ता था। रूकते-चलते, आराम करते हम आगे बढ़ते जा रहे थे। कभी हम कुछ लोगों से आगे होते तो कभी वे लोग हमसे आगे बढ़ जाते।
हमने काफी रास्ता पूरा कर लिया था। शाम होने लगी थी और उसके साथ मौसम में ठंडक भी बढ़ने लगी थी। रास्ते में कई सारी फोटो खिँचाने की दुकानें पड़ीं, जहाँ हमने भी माता की गुफा के साथ फोटो खिँचवाई। जब आगे बढ़ते-बढ़ते सात बज गए, तब हमने भोजन किया। भोजन करने के बाद आगे बढ़े और आठ बजकर दस मिनट पर अर्धकुमारी पहुँच गए, वहाँ सैकड़ों लोग थे। इसलिए हम माथा टेककर आगे बढ़ गए। रात के ग्यारह बजे हम भवन पहुँच गए थे। वहाँ पहुँचकर हम सबने स्नान किया और नए वस्त्र पहन लिए, वहाँ काफी भीड़ थी। सभी लोग श्रद्धा भाव में डूबे माता के दर्शनों के लिए तैयार थे।
स्नान करने के बाद हमने वहाँ से प्रसाद लिया और अपना एकमात्र बैग क्लॉक रूम में जमा कराने गए, लेकिन वहाँ तो बहुत अधिक भीड़ थी। खैर किसी तरह सामान जमा करवाकर हम दर्शनों की लाइन में लग गए। माता के जयकारों के साथ हम आगे बढ़ते जा रहे थे। रात एक बजे हम माता की गुफा में थे। वहाँ पहुँचकर मन को अपार शांति की अनुभूति हो रही थी। दर्शन करके हम सबके चेहरे चमक उठे थे फिर हम वहीं बने शिव मंदिर में दर्शन कर भैंरों मंदिर के लिए बढ़ गए। भैंरों मंदिर की चढ़ाई और भी खड़ी थी। ऊपर को चढ़ना मुश्किल लग रहा था। फिर भी हमने हिम्मत बनाए रखी और आगे बढ़ते गए। रात तीन बजे हम ऊपर पहुँच गए। वहाँ से नीचे देखने पर चारों तरफ अंधेरे का साम्राज्य दिख रहा था। सर्दी भी बढ़ गई थी। इसलिए हमने एक-एक कप चाय पी और आराम करने बैठ गए।
सुबह चार बजे हम वापस उतरने लगे। रास्ते में हल्की-फुल्की बरसात भी होने लगी। लगभग एक घंटा चलने के बाद हम काफी थका महसूस करने लगे, सो सोने के लिए जगह ढूँढ़ने लगे। वहीं कंबल उपलब्ध थे, हमने भी दो-तीन कंबल लेकर एक शेड के नीचे बिस्तर लगा लिया। कब आँख लगी पता ही न चला। जब जागे तो साढ़े छह बज चुके थे। हम सब जल्दी से उठे और वहीं पास में हाथ-मुँह धोकर कैंटीन में नाश्ता किया। इसके बाद फिर से नीचे उतरने लगे। अब पूरी तरह से उजाला हो गया था और प्रकृति हमें आकर्षित करने लगी थी। हम बीच-बीच में रुकते-रुकते नीचे उतर रहे थे। थकान इतनी थी कि एक-एक कदम बढ़ाना मुश्किल लग रहा था। फिर भी हम हिम्मत करके चलते रहे और लगभग दस बजे नीचे पहुँच गए।
वहाँ प्रसाद रूपी सूखे मेवों की कई दुकानें थीं। हमने भी घर के लिए प्रसाद के लिए अखरोट, सेब आदि ले लिए। लगभग बारह बजे हम अपने होटल पहुँच गए। वहाँ स्नान आदि करने के बाद कुछ देर आराम किया। दोपहर के दो बज चुके थे। इसलिए खाना खाने बाहर आए। होटल पर अपनी-अपनी पसंद का खाना खाया और फिर कमरों में आकर सो गए। लगभग साढ़े चार बजे उठकर बाजार गए। बाजार में कई तरह के समान थे। भीड़ भी काफी थी। वहाँ से घर वालों के लिए अलग-अलग चीजें ली और फिर वापस आ गए। शाम सवा छह बजे की बस थी। बस स्टैंड होटल के पास ही था, इसलिए छह बजे अपना सामान लिए होटल से निकले। बस में आकर अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। मन में अपार शांति थी।
अभी बस चली भी न थी कि तेज बारिश शुरू हो गई। कुछ देर बाद पता चला कि तेज बारिश के कारण भवन बंद कर दिया गया है। भक्तों को जहाँ हैं, वहीं रहने के निर्देश दिए गए हैं। बस धीरे-धीरे चलने लगी। बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी, जो हमें भिगो तो नहीं रही थी लेकिन हमारे मन माता का आशीर्वाद पाकर भीग चुके थे। आज भी वह अनुभव हृदय के किसी कोने में विद्यमान हैं।
कवि प्रीत (वरिष्ठ संपादक)