मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह)

Tripoto
8th Jul 2019
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar

"ग़ालिब के यहाँ तीन मुलाज़िम थे।

एक वफ़ादार थी जो तुतलाया करती थी।

एक कल्लन मियाँ थे जो बाहर का सौदा सब्ज़ी लाते थे।

ग़ालिब की बोतलें संभालते थे।

तीसरा मुलाज़िम मै हूँ।

वो सारे तो वक़्त के साथ रिहाई पा गए।

मैं अभी तक ग़ालिब की मुलाज़मत में हूँ।"

--- गुलज़ार

भारत की राजधानी दिल्ली में एक पुराना शहर-पुरानी दिल्ली। इस पुरानी दिल्ली में है चाँदनी चौक, उसी से सटा इलाका है बल्लीमारां। वैसे तो यह कोई दो सवा दो सौ साल पहले गाँव था लेकिन अब शहर ने इसे अपने आगोश में लेकर अपना बना लिया है। इसी बल्लीमारां की भुल-भुलैया जैसी गलियों में एक गली है - गली कासिम जान। बस उसी गली में मस्जिद के पास रहते है मिर्ज़ा ग़ालिब।

हाँ, भाई! पता है मिर्ज़ा ग़ालिब इस दुनिया से महात्मा गाँधी के जन्म वाले साल ही 5 फरवरी 1869 को रुखसत हो लिए थे लेकिन ग़ालिब की हवेली में आकर उनकी मौजूदगी का अहसास बिलकुल वैसा ही लगता है जैसे साबरमती आश्रम में बापू का। 27 दिसंबर, 1797 में पैदा हुए मिर्जा असदुल्लाह बेग ख़ान यानी ग़ालिब उर्दू शायरी का वह चमकता सितारा है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं।

पिछले 2 साल में दिल्ली के करीब 6 चक्कर लगे लेकिन हर बार ग़ालिब से मुलाकात की इच्छा अधूरी ही रह जाती थी। मेट्रो से राजीव चौक होते हुए चाँदनी चौक स्टेशन पहुँचा।

यहाँ पूछने पर पता चला कि बल्लीमारां शीशगंज गुरूद्वारे से सीधे नाक की सीध में करीब 800 मीटर दूर है। चाँदनी चौक की मुख्य सड़क प्रशासन ने डेवलपमेंट के लिए खोद रखी है इसलिए रिक्शा लेने में ज्यादा समय लगता। लिहाजा कंधे पर टंगे बैग की रस्सियाँ खींची और उसे टाइट करके पीठ पर सेट किया और भरे पूरे ट्रैफिक में चल पड़ा।

इसका फायदा ये हुआ कि चाँदनी चौक की लगभग सभी पुरानी दुकानें देखने के लिए मिल गई जिसमें कपड़े, बैग, मिठाई, लस्सी, करेंसी (नए पुराने नोट और सिक्के) सभी शामिल थी। भीड़ में चलते हुए प्यास लगने लगी तो वही पर बेल का शरबत (बेलपत्र का फल) सिर्फ ₹10 में पिया। गला और पेट दोनों तृप्त हो गए।

बल्लीमारां की गलियों में घुसते ही लगा कि बहादुरशाह जफ़र के समय में आ गए हों। अधिकतर मकान-दुकान पुरानी शैली के ही है और करीब 100 साल से वैसे ही खड़े है। बस दुकानों के होर्डिंग-बोर्ड नए लग गए है। यहाँ परम्परागत हस्त शिल्प का बहुत सा सामान मिलता है जिसमें हाथ से बने कशीदे के जूते चप्पल, महीन एम्ब्रायडरी वाले कपड़े और क्रॉकरी मुख्य है। ग़ालिब की हवेली का पता पूछने पर सब लोग बड़े ही आदर से ऐसे पता बताते है जैसे ग़ालिब अब भी वहीं रहते हो।

गली कासिम जान के कोने से दो - चार ही दुकान छोड़कर मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली का बड़ा सा दरवाजा दिखाई देता है। गेट पर ही सिक्योरिटी गार्ड यशवंत जी बैठे हुए मिल गए। दोपहर होने से लोगो की आमद कम थी। ग़ालिब का परिचय, कुछ खास शायरी जो दीवारों पर लगे बोर्ड पर लिखी थी वो पढ़ने लगा। जैसे ग़ालिब हवेली में आनेवाले का स्वागत इन शेरो से कर रहे हो -

"ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं,

कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं!

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं,

कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं!"

इसमें 45 मिनट कब गुज़र गए पता ही नहीं चला। इस बीच 3 -4 लोग रिक्शे से आये 5 -10 मिनट में फटाफट फोटो खिंचवाए और चले भी गए। शायद मेरी तरह ही उन्हें भी सोशल मीडिया पर ग़ालिब के साथ वाली फोटो डालकर कूल डूड बनने का इरादा होगा। वैसे बहुत बड़ी हवेली नहीं है बस मुश्किल से 1000-1500 वर्ग फ़ीट में बनी है। उसमें भी कुछ साल पहले यहाँ बर्तन कारखाना चलता था। जिसे तत्कालीन दिल्ली सरकार ने हटवाकर इस हवेली का रेनोवेशन करवाया। अब भी अंदर एक दुकान चलती है। रेनोवेशन के बाद ग़ालिब की हवेली का उद्घाटन प्रसिद्द गीतकार गुलज़ार जी और तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने 2010 में किया था।

ग़ालिब के कमरे में जहाँ वो अपना कलाम लिखते थे वहाँ उनकी प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से बनी जीवंत मूर्ति जैसे कह रही हो -

"पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है?

कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या।"

दिल्ली के आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फर अपने वक्त के मशहूर शायर भी थे। उनके जमाने यानी 18वीं शताब्दी में जब देश में मुगलिया सल्तनत का चांद डूब रहा था और अंग्रेजी हुकूमत का सूरज सिर उठा रहा था, उसी दौरान गालिब, दाग, मोमिन और जौक जैसे शायरों ने अपने बेहतरीन कलाम लिखे। बहादुरशाह जफर ने ही गालिब को मिर्जा नोशा की उपाधि दी थी जिसके बाद गालिब के साथ ‘मिर्जा’ जुड़ गया।

गीतकार गुलजार का लिखा 2005 में आई बंटी और बबली फिल्म का कजरारे, कजरारे, कजरारे तेरे नैना याद ही होगा आपको? अरे वही, अमिताभ बच्चन, अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय वाला कजरारे. उसका एक अंतरा है-

"तुझसे मिलना पुरानी दिल्ली में,

छोड़ आये निशानी दिल्ली में,

बल्ली-मारां से दरीचे के तलक,

तेरी-मेरी कहानी दिल्ली में."

वही पुरानी दिल्ली और बल्ली-मारां... यानी गालिब का असर.

अपने मरने के बाद की तस्वीर का तसव्वुर करके ग़ालिब लिखते है कि -

"हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,

वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता!"

लेख के साथ लगी सभी तस्वीरें गूगल बाबा से ली गई है और लेख में गुलज़ार जी के व्यक्तव्य का हिस्सा बीबीसी हिंदी, द क्विंट हिंदी और कुछ शेर रेख़्ता साइट से लिए है।

मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली से बाहर आते समय ग़ालिब का ये शेर पीछे से जहन में सुनाई देता है -

"मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे,

तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे"

ऐसी मुलाकातें मुझे ख़ुशी, ऊर्जा और आनंद से भर देती है।

- कपिल कुमार

Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar
Photo of मिर्जा ग़ालिब से एक मुलाकात (Ghalib Ki Haveli - बल्लीमारान की तफ़रीह) by Kapil Kumar

अपने सफर की कहानियाँ Tripoto पर लिखें और हम उन्हें Tripoto हिंदी के फेसबुक पेज पर आपके नाम के साथ प्रकाशित करेंगे।

रोज़ाना वॉट्सऐप पर यात्रा की प्रेरणा के लिए 9319591229 पर HI लिखकर भेजें या यहाँ क्लिक करें।

Further Reads