#सिक्किम
नागेन्द्र छुट्टियों में गांव अम्बा आ गये थे । वह भारतीय रेलवे के आद्रा मंडल में पोस्टेड थे और अभी भी वही हैं । उनसे बचपन से जान-पहचान है जो बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में स्नातक के पाठ्यक्रम में एक साथ प्रवेश लेते मित्रता में तब्दील हो गई थी जिसका सफर आज तक जारी है । प्लान बना कि कहीं घूम आया जाए । . .. "गंगटोक ... !" ...और टिकट बुक हुआ । पटना से रेलगाङी न्यू जलपाईगुङी के लिए रात में खुली । सिक्किम के गंगटोक पहुंचने का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन वही है गोरखालैंड का जलपाईगुङी । हम खा पीकर पटना के राजेन्द्रनगर टर्मिनल से डिब्बे में सवार हुए । रात का वक्त होने से डिब्बे में राजनीतिक पंडितों का भाषण नहीं हो सका । सबकी विद्या धरी रह गयी होने की वजह से हमने भी नींद की चादर तान ली । गरमी का महीना होने से खिङकियां रात से ही खुली हुई थीं । सुबह शौच--क्रिया के लिए हो रहे हलचल से आंखें खुलीं । सूर्यदेवता अपनी उपस्थिति डिब्बे में भी करा रहे थे यधपि भोर की हवा ने उनकी मारक क्षमता के पैनापन को कमजोर कर रखा था । शौच की मानसिक तैयारी शुरू हुआ । हमारी अलसायी आंखें राह के अजनबी इलाकों को कौतूहल से निहारने लगी थीं । बिहार के भौगोलिक दायरा को अभी भी हमने छोङा नहीं था लेकिन हमारे मगध से नवगछिया, कटिहार , किशनगंज का मेल भी नहीं था । लोहे के पतले पहिया वाली बैलगाङियां चलती दिखीं । बैलगाङी का कोई मॉडल हमारे औरंगाबाद में अब शायद ही देखने को मिलता है । बैल ही उपहते जा रहे हैं तब बेलगाङी कैसे !... गांवों की ओर जाते पगडंडीनुमा पक्की सङकों पर अनाज के दानों को अलग करने के लिए मक्का को उन पर बिछा दिया गया था जो आने -जाने वाली गाङियों से कुचल कर किसान का पैसा और मेहनत बचा रहे थे । दाना निकालने वाली यूरोपीय मशीनों को चुनौती सहज बुद्धि के द्वारा भारतीय किसान दे रहा था । एक चुनौती अनजाने में पवित्रता को भी दिया जा रहा था । जाति, महजब के आधार पर अलग--अलग बस्ती बसाने वाला और दलितों को गांव के दक्षिण में बसाने वाला किसान छोट जात वालों और कुत्तों--सांपों के द्वारा रौंदे जाने के बावजूद सङक को पवित्र मानने को मजबूर था । सब भाव का खेल है । नहीं ...! यही किसान जब छठ का प्रसाद तैयार करेगा तो अनाजों की पवित्रता की रक्षा को घर के बच्चे चुनौती देंगे । बेचारे बच्चे समझ नहीं पाते कि 'उधर' जाना मना क्यों किया जा रहा है !! वे भी कुछ पल के लिए 'शूद्र !' क्षुद्रता और शूद्रता दोनों इंसानों के दिमाग की उपज । प्राय: एक अस्थायी दिमागी भाव और एक स्थायी सामाजिक भाव । दोनों का विभाजन कभी-कभी इतना धुंधला कि पता ही नहीं चलता कि कोई 'महाजन' शूद्र न माने जाते हुए भी स्थायी रूप से क्षुद्र ही है कि "'महाजन !"'
.....हरी -अधहरी घासों को लांघते गाङी बंगाल की सीमा तक जा पहुंची । दृश्य में बदलाव हुआ । खेतों में लगातार एक ही तरह के पौधे नजर आने लगे । जमीन में गङे , बीते भर ऊपर उठने के बाद खुरदरा पेट फुलाये और सिर पर किसी आदिवासी मुकुट धारण किये दूर से वे पहचाने नहीं जा रहे थे । इस बीच कई दफा नागेन्द्र की आंखों से नजरें लङती रहीं । उनके बिखरे बाल किंतु शांत चेहरे पर विस्मय की लकीरें आङे तिरछे आ जा रही थीं । सहसा कौंधा अनानास ! हां, वह वही था । पहेली सुलझ गयी और रोचकता बढ गयी थी । पूर्व धारणा कि अनानास का फूला हुआ हिस्सा मूली,गाजर की तरह जमीन के भीतर गङा हुआ होता होगा बदलने को विवश हो गई । सच सामने आ चुका था । करीब दस--ग्यारह बजे न्यू जलपाईगुङी तक का हमारा सफर खत्म हो गया । हम स्टेशन पर बने स्नानघर में घुसे । सार्वजनिक शौचालय की स्वच्छता को बंगालियों की 'भद्रता' ने किसी तरह संभाल कर रखा था या गुरखाओं के कथित उग्रता , कह नहीं सकते । वैसे भद्र बंगालियों की ऐसी समझ कोलकाता को लेकर अब नहीं दिखती । आगे पहाङ मिलेंगे इसलिए चमङे के जूते की मरम्मत भी इस बीच करवा डाली ।
गंगटोक ...गंगटोक सुमो गाङी वाला हांक लगा रहा था । "चला जाए !!"... "हूं" ... "लेकिन भात और मछली के भोजन के बाद ।" बंगाल की तहजीब का सम्मान तो करना ही था । प्राय: निरामिष रहने वाले नागेन्द्र भी इस भोजन का 'सम्मान' कर गये । सुमो गाङी शहर छोङ तंग रास्तों से ऊपर सरकने लगी । या खुदा कहने... नहीं ....हनुमान चालीसा पढने की नौबत कई बार महसूस हुई । कमबख्त याद्दाश्त... दो चार लाइनें ही जेहन में उतरतीं । 'बुद्धिजीविता' में अब तक उसे भकोस गये थे । मां जीतिया पर्व करते आई थी । शायद उसी के पुण्य से आत्मबल मिलता रहा । नीचे घाटी ताकते तो लगता कि अब गये ! दार्जिलिंग और नैनीताल की तुलना में गंगटोक जाने वाली सङक संकरी और थोङा ज्यादा खङी है । चीन की सामरिक चुनौती के मद्देनजर भारत सरकार अब इस इलाके में भी सङक चौङीकरण पर ध्यान दे रही थी । कुछ जगह काम होते दिखा भी । खैर, गाङी के भीतर दूसरे यात्रियों को सहज देखते तो लगता कि सबसे ज्यादा डर महसूस करने की जरूरत नहीं । कौतूहल भरा नकली मुस्कान चेहरे पर शायद सबने पोत रखा था । गंगटोक घुसने से पहले पुलिस वाले ने हाथ दिखाया । अब नागरिकता का सवाल सुलझाया जाने वाला था । "आईकार्ड दिखाओ सब कोई ।" सबने निकाले । देखकर मन ही मन शायद वह आश्वस्त हुआ ....कोई चाईनीज नहीं है । "हूं ... चलो निकलो यहां से ।" चाईनीज समानों को गैर-कानूनी इंट्री है लेकिन गैर -कानूनी चाईनीज इंसान .... नो इंट्री । इंसान को समान खा गया । थोङा आगे बढकर ड्राइवर यात्रियों से पूछ-पूछ कर उनके पहले से बुक होटल पर छोङता गया । हम ठहरें अनप्लान्ड । अवारा जानकर उसने किसी प्रसिद्ध जगह हमलोगों को उतार दिया । अंधेरा हो चला था । होटल खोजने की गुंजाइश बेहद कम थी । एक--दो छानबीन कर हम हजार रूपये कमरे वाले एक होटल में घुस गये । कमरा का आकार तो औसत था लेकिन लोकेशन और भीतरी सजावट बढिया । हम दोनों फ्रेश हुए ।
बाहर का मौसम बेहद लुभावना था । भोजन भी करना था । हल्की बूंदा-बांदी के बीच भोजन के लिए हमने 'शेर ए पंजाब' होटल का शरण लिया । सरदार जी ने ठंड काटने का इंतजाम होटल में मैयखाने की उपस्थिति बना कर दी थी । पंजाबी नॉर्थ ईस्ट में भी ! ...वाहे गुरू !! .... इसे कहते हैं जीवटता । उधमशीलता जैसे शब्दों को हम फिर से टटोलते रहे । हमारे टेबल के बगल में बीयर चल रहा था । हमने भी आर्डर कर दिया । नागेन्द्र सकुचाये ... फिर आश्वस्त हुए कि यह 'फुल' दारू नहीं है । अपना ट्रेनिंग पीरियड समझ वह पी भी गये । पङोसी से हमने पूछा कि आपलोग बिहार से हैं क्या ? वे दोनों थोङा मुस्कुराये । एक ने कहा कि हैं तो बिहार के ही लेकिन यहीं रहते हैं । "यहां बिहारी भी रहते हैं " पर उन्होनें कहा कि लगभग चालीस फीसदी । "लालबाजार हैं न ... उसी में शॉप नंबर इतना मेरा है ।" "कितनी कमाई हो जाती है" मेरा सवाल था । "देखिए भाई यदि ठीक लोकेशन पर आपको यहां दूकान मिल गया तो साल भर में दस लाख रूपया कहीं नहीं जा रहा ।" हम दोनों भौंचक । रोड किनारे जगह -जगह सिक्किम टूरिज्म के लगे हुए सरकारी होर्डिंग 'स्मॉल एंड ब्यूटीफूल' का मतलब सुलझ चुका था । इस सिक्किम को बिहारी सुंदर बना रहे थे और उधर बुद्ध की असली धरती पर लार्ज एंड लीजेंड बनने का 'खेल' अब भी जारी है । खैर ... सोने का वक्त आ चुका था । हमने एक दिन के अपने किराये के 'महल' की शरण ली । खिङकी के नीचे ढलुआ पहाङी थी । बांस के पौधे हमारे स्वागत की बाट जोह रहे थे यह सुबह की किरणों ने बताया । चिकने सुडौल बांस और अपेक्षाकृत मोटे भी जो बिहार में नहीं मिलते । एक -एक बांस दूसरे से अलग खंभे से गङे हुए ताङ के तरू की तरह थे । गिरह पर शाखाएं नहीं लेकिन हर बांस पर गिरह के निशान जरूर बने हुए थे ।
सुबह हुई और हमने कमरा छोङ दिया । बाहर निकल कर नीचे पानी टंकी की ओर बढने पर छ: सौ रूपये वाला कमरा मिल गया था । समान ढो लिये गये । बांस हमारे मुंह देखते भर रह गये जैसे कह रहे हों कि 'बांझ' कहीं का ! पूछ ताछ शुरू हुआ तो पता चला कि एमजी रोड देखना जरूरी है । सबसे पहले जून महीने में हमदोनों ने स्वेटर खरीदे जिसके अभाव में गंगटोक में टिकना संभव नहीं था । पहुंच गये एमजी रोड । शाम का वक्त और हम जैसे बैंकांक में हों । एक बङे-सा मैदान के दो ओर करीने से बने हुए दुकान , दोनों ओर के बीच लगभग साठ फीट का फासला और बीच में छोटे-छोटे पार्कों के भीतर रंगीन लाइट्स के बीच पानी के उङते फव्वारे , पश्चिमी संगीत किंतु लाउड नहीं और यूरोपीय स्टाइल की बनी कुर्सियों पर पसरे हुए लोग । लैंप पोस्टों से पसरती चौंधियाती रोशनी और मार्केटिंग तथा सैर-सपाटा का मिला जुला दृश्य ! तो देर किस बात की लेकिन टूटहे मोबाइल फोन दगा देने लगे । उजाले में भी धुंधलका .... ऊफ्फ !! नागेन्द्र को मैनें कहा " काम न चलतवा एकरा से ... आईल बेकार हो जतवा ।" ताव में निकॉन का दस हजार का कैमरा खरीद लिया गया । फोटो शूट होने लगे । एक अजीब दृश्य कैमरा में कैद होते- होते तो रह गया लेकिन आत्मा ने कैद कर लिया है । यत्र-तत्र थूकने की अपनी आदत की वजह से जब कुर्सी पर बैठे-बैठे इधर उधर चोर निगाह से धीरे से थूका तो एक मंगोल लङकी ने मना करते हुए कहा कि यहाँ थूकना मना है और मैं शर्मिंदगी के साथ सॉरी ...। यह था ह्युमन सीसीटीवी का कमाल .... । लङकी शायद मुझे निहार रही होगी ... इतना अपनापन (!) कोई डांट के साथ भी दिखाये तो मुगालता तो पाल ही सकते हैं कि " आप की नजरों ने समझा प्यार के काबिल हमें ".... नहीं ! वर्ना परीक्षाओं में वीक्षकों को हमेशा मात देने की कला यहाँ धरी क्यों रह गयी !! जल्द ही परदेशी होने के यथार्थ ने अंकुश दिया तो मेरा अवचेतन मन गुनगुना उठा " चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों ...। "
अगली सुबह । धुंध से नहाया हिमालय । मनमोहक छंटाओं के कई शेड्स जिसकी प्यास न जाने कितने सालों से थी । ग्यारह -बारह बजे भोला मिल गया । टैक्सी ड्राइवर भोला ने बताया कि आठ सौ रूपये में सब इंपोर्टेंट लोकेशन घुमा देगा और पूछने पर यह भी कि उसके दादा सिक्किम में तब आ गये थे जब वहाँ राजवाङा हुआ करता था यानि भारत में विलय के पहले ही । एक बिहारी की अद्भुत कहानी । न जाने पेट ने हमारे पुरखों को ग्लोब पर कहां-कहां फेंक रखा है ! सूरीनाम, फिजी, ट्रिनिटाड ...में बलात् निर्वासन से यह निर्वासन ( थोङा मुलायम होकर कहें तो प्रवासन ) अलग तरह का है । शायद आत्म निर्वासन ही सिक्किम,नेपाल बसने की वजह रही हो ! पेट ने बेरोजगार लाचार आत्मा को कुरेद दिया हो ! .... झरना, राजभवन, गार्डन, क्राफ्ट म्यूजियम , गणेश टोंक इत्यादि देखते हुए हम हनुमान टोंक पहुंचे जो आठ हजार फीट की ऊंचाई पर था । बादलों के बीच रोमांचक अहसास .... बादलों से बराबरी... हवा में जैसे उङ रहे हों । "हम पंछी उन्मुक्त गगन के " भाव हिलोर मारने लगा था । मंदिर में विराजमान देव दर्शन सम्पन्न हुआ । आगे मार्ग की संकीर्णता के डर से नाथूला की यात्रा का विचार पहले ही त्याग दिया था । फिर देखा बौद्ध मठ । कत्थई वस्त्र धारण किये युवा भिक्षुकों को देख लगा कि जिनको देखा वह कैसे निर्लिप्त भाव से अपने निहारे जाने को देख रहे हैं । हमारे लिए वे अजायबघर के प्राणी-सा दिखे और हम इस नश्वर संसार के क्षुद्र खिलौने दिख रहे होंगे उनको शायद ! माया की काया से मुक्त होने के लिए हिमालय ही उपयुक्त क्यों रहते आया है , होटल लौटते वक्त हम कुछ-कुछ महसूस करने लगे थे ।
क्षुद्रता फिर से आ धमका । सङक पार करती साङी में एक कामकाजी महिला को देखकर आंखें फटीं रह गयीं । लंबे कद , तीखे नाक और छोटी आंख वाली वह लङकी ने मंगोलायड प्रजाति को लेकर बनी हमारी समझ को एकाएक झकझोर दिया । हमारा होटल वाला बिहारी ही था । बातचीत से पता चला कि वह कोई क्षेत्री जाति की लङकी होगी । "क्षेत्री ...!" "हां, हमारी तरफ के राजपूत के समान सामाजिक हैसियत वाली बिरादरी ।" मतलब नॉर्थ ईस्ट भी "'आर्यीकरण"' से अछूता नहीं रहा है । स्पष्ट है कि रक्त शुद्धता एक मिथक है लेकिन वोट तो हम बिहारी जाति वाले को ही देंगे ।
◆कैसे पहुंचे :- सबसे नजदीकी एयरपोर्ट बागडोगरा एवं नजदीकी रेलवे स्टेशन न्यू जलपाइगुङी है । यहां से लगभग तीन -साढे तीन घंटे में गंगटोक पहुंचा जा सकता है । दार्जिलिंग, कलिम्पोंग, सिलिगुङी से सड़क मार्ग के जरिए भी गंगटोक पहुंचा जा सकता है ।
◆ कब जायें :- अक्तूबर से मार्च के बीच सबसे उपयुक्त समय होता है । बरसात में भू-स्खलन का डर बना रहता है ।
© अमित लोकप्रिय Amit Lokpriya