रक्तहीन बलि देवी को पसंद है !

Tripoto
19th Aug 2019
Photo of रक्तहीन बलि देवी को पसंद है ! by Amit Lokpriya
Day 1

रक्तहीन बलि देवी को स्वीकार्य है 

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फोन से मदन की दुकान पर बुलाकर मुझे सूचना दी गई कि कल मुंडेश्वरी धाम चलना है । सिंचाई विभाग में तैनात उमेश पटना में ही तय कर चुके थे कि नवरात्र में अम्बा पहुंचते ही अपनी योजना की जानकारी देंगे । मेरे पहुंचने से पहले ही दुकान पर बैठी मंडली यात्रा का सारा कार्यक्रम तय कर चुकी थी । यात्रा का पूरा खर्च उमेश के मत्थे था । तो तय हो गया कि कैमूर की पहाङी पर कल चढाई होगी । अगली सुबह लगभग आठ बजे उमेश, सुमंत, मदन, जयराम, सुनील , राजू और मुझे लेकर अम्बा से स्कार्पियो खुली । सकुशल यात्रा के लिए आशीर्वाद मांगने हेतु ड्राइवर पंडित दिनेश ने सतबहिनी मंदिर के सामनेे गाङी धीमा की और फिर बढा दिया मानो उधर ताकते देवी माता ने जीवनदान का आशीर्वाद दे दिया हो । 20 मिनट मेें औरंगाबाद आ गया । औरंगाबाद पहुंंचते गाङी शेरशाह सूरी राजमार्ग पर चढ गई । हिन्दू धर्म की देवी तक लोगों को 'मुसलमानी' रास्ता पहुंचायेगा ...!! ..जी...यह भारत है और ऐसी खूबसूरती सिर्फ यहीं देखने को मिल सकती है । 

ग्यारह बजे के लगभग हम भगवानपुर अंचल के कैमूर पहाङ के पवरा पहाङी के गिरिपद में थे । ऋषि अत्रि सहित अनेक ऋषियों की तपोभूमि मानी जाने वाली पवरा पहाङी पर लगभग छ : सौ फीट की ऊंचाई पर ऊपर में माता की पीठ है । भूख तेज लगी हुई थी और वहां मौजूद टूटपूंजिए ढाबों के संचालक हमें लुभाने के लिए आवाज भी लगा रहे थे । सुमंत और मैनें लिट्टी -चोखा खाई किन्तु शेष साथियों ने दर्शन के उपरांत कुछ खाने का संकल्प दिखाया । हम दो पेटजीवी कमजोर भक्त समझ लिये गये । कमजोर और मजबूत दोनों तरह के लोग धरती पर हमेशा रहे हैं । अत: ऐसे लांछन को लेकर हम दोनों चिंताग्रस्त नहीं थे । देखना था, माता से मिलना था तो दोनों श्रेणी के भक्तों ने देवी को अर्पित की जाने वाली पूजन सामग्री खरीद ली । जूते जमा कर खाली गोङ आगे बढे । पहाङ के ऊपर मंदिर तक सीढियों से जाना था । खङी सीढियां थीं । एक--एक फीट की ढाप वाली । ऐसा नहीं कि पहाङी के ऊपर चारपहिया गाङी न जाती हो लेकिन उस दिन किसी कारण से गाङी की मनाही थी । वैसे भी गाङियां मंदिर के एकदम पास तक नहीं जा पाती हैं । उन्हें सौ-दो सौ सीढी नीचे ही रुकना पङता है । मतलब वीआईपी को भी दर्शन के लिए कुछ सीढियां चढनी ही पङेंगी । भौगोलिक दिक्कत से ही सही लेकिन मुंडेश्वरी देवी ने भक्तों के बीच समानता का पाठ पढा दिया था । भले ही घर आकर हम गृहदेवी और चाकरों के साथ व्यवहार में समानता के मंत्र का ऐसी की तैसी कर दें । हांफते- ठहरते -हंसते हुए हम सब ऊपर आखिरकार पहुंच ही गये । 'ऊपर' पहुंचने से पहले जिदंगी की यात्रा भी तो हम इसी तरह पूरा करते है न ! पहाङी के ऊपर भक्तों का हुजूम जयकारा लगाते हुए दिखता रहा । पूजा-स्थलों पर दिखने वाले चिर परिचित माहौल यहां भी मिला । कुछ इधर -उधर दरख्तों के साये में सुस्ताते हुए तो एक बङी संख्या गर्भगृह में प्रवेश की बारी की प्रतीक्षा करते हुए पंक्तिबद्ध ...मुंडेश्वरी माई की जय । ...धूप ! .. था लेकिन दर्शन की लालसा के सामने बेअसर । कैमरा ने जब टटोलना चाहा तो मंदिर खंडित दिखाई पङी । मंदिर के बाहर अनगिनत खंडित भग्नावशेषों को तो नंगी आंखों ने ही देख लिया । यह सब कैसे ! दंतकथा को इतिहास मान लें तो मानना पङेगा कि मंदिर मुस्लिम आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी के आक्रमण से नष्ट हुआ लेकिन प्राकृतिक विपदा से ऐसा होना मानना ज्यादा तार्किक लगता है क्योंकि यदि आक्रमण होता तो गर्भगृह की मूर्त्तियां भी सुरक्षित नहीं बचतीं । जवाब अनुमान आधारित हैं लेकिन कलाकारी उम्दा जान पङी । बारीक नक्काशी किसने की ! कलाकारों की गुमनामी.. यही दुनियावी व्यवहारशास्त्र है । कोई गणपत, महेशी, बैजनाथ, तीरथ, जुदागीर रहा होगा जो मूर्त्तियां में प्राण फूंककर खुद समय से पहले ही गरीबी में बूझ गया होगा । रचनाकार से अधिक उसकी रचना वजनी हो गई । बहरहाल, मुंडेश्वरी मंदिर सरकारी संरक्षण में आ चुका है । चूंकि पुरातत्वविद् कनिंघम इसकी चर्चा कर गये थे इसलिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग इसके संरक्षण के लिए मजबूर था ।

यह मंदिर अष्टभुजीय है । मंदिर का अष्टकोणीय होना भारत में दुर्लभ है । अष्टकोणीय होने से ऐसा लगता है कि यह स्थल तंत्र साधना का कभी केन्द्र रहा हो । गर्भगृह में चतुर्मुखी शिवलिंग है और देवी की प्रतिमा भी । मंदिर का मुख्य द्वार दक्षिणी दिशा की ओर है जिसे अब बंद कर मुंडेश्वरी की प्रतिमा को पूर्वी दिशा की ओर स्थापित कर दिया गया है । खैर, हो- हल्ला के बीच हमने दर्शन कर लिया । पुजारी ने हाथ से प्रसाद के दोने को प्रतिमा से छूआ कर हमें वापस कर दिये थे और फूल ले लिये थे । मतलब हमारा चढावा चढ गया था । प्रसाद लेकर हमलोग बाहर निकले और लोगों की देखा-देखी हवनकुंड के पास नारियल पटक कर तोङ डाले । नारियल पानी वहीं गिराया । अगरबत्ती जलायी । हमारी पूजा सम्पन्न हो गई थी । बाहर निकल कर सोचते रहे कि अभी जब यह हाल है तब सावन के दिनों में शिव दर्शन के लिए यहां क्या होता होगा ! 

पहाङ पर एक भव्य मंदिर निर्माण की योजना कौतूहल पैदा करने वाली है । मार्कंडेय पुराण के अनुसार मां भगवती ने इस इलाके में असुर मुंड का वध किया । अत्याचारी असुर नेता शुभ्भ, निशुभ्भ के सेनापतियों चंड और मुंड का वध देवी द्वारा किये जाने की एक कथा है । मुंड को देवी को पकङ कर लाने का आदेश उसके स्वामी ने दिया था ताकि असुरपति उसे रानी बना सके लेकिन मुंड मारा गया । कहते हैं तब से यहां विराजमान देवी का नाम मुंडेश्वरी पड़ा । मतलब यह भी हुआ कि मुंडेश्वरी नाम से पुकारने वाल लोगों की आबादी भी निकट रही होगी । आज देखने से ऐसा प्रतीत नहीं होता । आज भी यह इलाका मानव आबादी की दृष्टि से विरल है । इतिहास की दृष्टि से प्राचीनतम मानव बसावट के साक्ष्य कैमूर की पहाङी कई बार प्रस्तुत करते रहे हैं । हो सकता है कि मुंडेश्वरी पुुकारने वाली पहली पीढी बस कर किन्हीं कारणों से बाद में उजङ गयी हो । यहां के शिलालेख से पता चलता है कि उदय सेन नामक स्थानीय शासक के शासन काल में मंदिर का निर्माण हुआ था । एक शिलालेख चौथी सदी से सातवीं सदी के बीच का मिला है जो अभी कोलकाता संग्रहालय में है । गुप्तकाल मंदिर निर्माण के लिए प्रसिद्ध है और इसकी पूरी संभावना है कि नागर शैली का यह पत्थरों का मंदिर इसी समय बनाया गया हो । गुप्तोत्तर काल में वैदिक धर्म की शाक्त परंपरा खासा लोकप्रिय हो गई थी । कहते हैं कि यहां पहले विष्णु देवता विराजमान थे जो बाद में शक्ति पीठ में तब्दील होकर 'नारी सशक्तिकरण' के शिकार हो गये !! बहरहाल, इतना स्पष्ट है कि इस मंदिर की ख्याति चारों ओर थी तभी तो कई ब्रिटिश विद्वान व पर्यटक यहां आये थे । फ्रांसिस बुकनन भी यहां आये थे । महाजन का अनुकरण तो दुनिया करती है इसलिए अब हम भी यहां पहुंच गये थे । 

हमने ऐसा होते तो नहीं देखा लेकिन कहते हैं कि जिसकी मन्नत यहां पूरी होती है वह इसकी खुशी में खस्सी (बकरे) को लेकर माता के दरबार में पहुंचता है । मंदिर का पुजारी माता के चरणों में अक्षत चढ़ा उसे बकरा पर अभिमंत्रित कर फेंकते हैं, तो बकरा बेहोश हो जाता है और तब मान लिया जाता है कि बलि की प्रक्रिया पूरी हो गयी । जब कुछ समय पश्चात् बकरा होश में आ जाता है तब उसे वहीं पहाङ पर छोङ दिया जाता है । तो यह है रक्तहीन बलि... ! मांसाहार की संभावना को शाकाहारी विकल्प में बदलना यही माता का शायद संदेश है । 

नजदीकी रेलवे स्टेशन :- भभुआ रोड अथवा सासाराम
सङक सम्पर्क :- नेशनल हाइवे 2
वायुमार्ग :- वाराणसी, पटना और गया हवाई अड्डा

© अमित लोकप्रिय 
amitlokpriya@gmail.com,
Facebook/Amit lokpriya

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