कुछ जगहें अनछुई होती हैं, जैसे छुआ तो मैली हो जाएँगी। उन्हें छुकर नहीं, देखकर महसूस किया जा सकता है। जैसे उसकी खूबसूरती और उसका नायाबपन अनोखा हो। तो आइए चलते हैं उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में स्थित भोटिया गाँव बगोरी की सैर पर, जो अपने आप में खूबसूरती के अलग-अलग आयाम समेटे है। हालांकि यह स्थान अब भी पर्यटकों की नजरों से दूर है, लेकिन धीरे-धीरे लोग यहाँ पहुँचने लगे हैं। जैसे हमारी पूरी टीम बगोरी गाँव की सैर पर पहुँची। लकड़ी के खूबसूरत घर और सेब के बगीचे बगोरी गाँव की खासियत है।
पर्यटन ग्राम हर्षिल से महज एक किलोमीटर की दूरी तय कर बगोरी पहुँचा जा सकता है। दोपहिया गाड़ी भी वहाँ तक जा सकती है, लेकिन अगर आप पैदल जाएँगे तो कल-कल बहती नदी पर बने सुंदर पुलों और बर्फ से ढकी चोटियों के दीदार आसानी से कर पाएँगे। हिमालय की गोद में बसे इस गाँव की प्राकृतिक सुंदरता वाकई अद्भुत है। गाँव के चारों ओर नजर घुमाएँ तो बर्फ से ढकी चोटियाँ और देवदार के घने जंगल नज़र आते हैं। हर्षिल से बगोरी तक के सफर में सात छोटे-छोटे पुल आते हैं, जो बेहद खूबसूरत हैं। वहीं, गाँव के आखिरी छोर पर भागीरथी और सिंहगाड का संगम है, जहाँ हिमालय की गोद में बहती नदी का नजारा वाकई विहंगम है।
ऐतिहासिक गांव है बगोरी
कहते हैं 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान सीमा पर बसे जादुंग और नेलांग गाँव को खाली करा दिया गया था। वहाँ से अधिकतर लोग बगोरी गाँव आकर बस गए। उस दौर में जादुंग और नेलांग के लोग तिब्बत के साथ व्यापार किया करते थे, जो उनकी आजीविका का मुख्य साधन हुआ करता था। बगोरी के ग्रामीणों का कहना है कि वे तिब्बत से नमक का व्यापार करते थे, लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बनीं कि उन्हें अपना गाँव छोड़ना पड़ा और उन्होंने भी आजीविका के नए साधन तलाश लिए। अब सेब की बागवानी के अलावा भी लोग अलग-अलग रोज़गारों से जुड़ गए हैं। बगोरी में एक बौद्ध मठ के साथ-साथ मंदिर भी है, जहाँ सभी आस्था के साथ सिर झुकाते हैं।
बगोरी में जादुंग और नेलांग के मूल निवासी रहते हैं, जिन्हें जाड़ कहा जाता है। इसके अलावा गाँव में एक आबादी ऐसी भी है, जो यहीं की मूल निवासी है। यहाँ कुल मिलाकर 250 के करीब परिवार रहते हैं, जो सिर्फ गर्मियों में यहाँ रहते हैं। सर्दियों में गाँव बर्फ की सफेद चादर से ढक जाता है और लोग नीचे डुंडा और उत्तरकाशी के आसपास चले जाते हैं। गाँव की खासियत है लकड़ी के खूबसूरत घर, जिन पर फूलों से लेकर बेलों तक की नक्काशी की गई है। घरों के दरवाजों से लेकर खंभों तक की बनावट बरबस ही मन मोह लेती है। वहीं कई घरों पर बौद्ध मंत्र भी खुदे हैं, तो कहीं लोगों ने अपना नाम खुदा रखा है। गाँव की पतली सी गली से गुज़रते हुए हर एक घर पर नज़र ठहर जाती है। पुराने घरों के अलावा यहाँ कई घर नए भी बने हैं।
जंगल और पहाड़ों में रहने वाले लोगों को जड़ी-बूटियों की पहचान होती है। यहाँ लोग चाय में एक विशेष प्रकार की जड़ी-बूटी डालते हैं, जिसका अलग ही स्वाद आता है। मैं खुशनसीब थी कि एक घर में मुझे भी जड़ी-बूटी वाली चाय पीने को मिल गई। वहीं मशरूम की कई प्रजातियों का यहाँ के लोग खाने में इस्तेमाल करते हैं। चीन से नजदीक होने के कारण यहाँ चाइचीज खाने का काफी प्रभाव है, जैसे, नूडल्स, मोमो, थुकपा आदि, आदि।
बगोरी और सेब के बगीचे
बगोरी गाँव के लोग सर्दियों में नीचे उत्तरकाशी और डुंडा चले जाते हैं। सेब की बागवानी यहाँ के लोगों की आजीविका का मुख्य साधन है। यहाँ गाँव के अलावा आसपास भी लोगों के सेब के बगीचे हैं। अप्रैल में गंगोत्री धाम के कपाट खुलने के बाद ग्रामीणों के बगोरी आने का सिलसिला शुरू हो जाता है। यह सीजन सेब के फ्लावरिंग का होता है और उन्हें अपने सेब के बगीचों की देखभाल करनी होती है। इस दौरान वो कीटनाशक का छिड़काव करते हैं और सेब की तुड़ाई तक यहीं रहते हैं। हर्षिल में खाद्य और प्रसंस्करण की एक यूनिट है, जहाँ कोल्ड स्टोरेज भी है। इसके अलावा हर्षिल और बगोरी के सेब की मार्केट में भी काफी डिमांड है।
कब पहुँचें – बगोरी जाने के लिए सबसे उचित समय अप्रैल अंत और मई के बाद है, जब ग्रामीण यहाँ आ जाते हैं और काफी चहल-पहल होती है।
कैसे पहुँचें – देहरादून से 220 किमी का सफर तय कर पहुँचा जा सकता है। हर्षिल तक चारपहिया और दोपहिया गाड़ियाँ जाती हैं, लेकिन बगोरी जाने के लिए सिर्फ बाइक या पैदल जाया जा सकता है।
कहाँ रुकें – बगोरी में तो रुकने की कोई व्यवस्था नहीं है, लेकिन हर्षिल में आपको हर तरह के होटल मिल जाएँगे। यहाँ गढ़वाल मंडल विकास निगम का गेस्ट हाउस भी है, जिसमें आप रिवर व्यू रूम लेकर कल-कल कर बहती भागीरथी को करीब से महसूस कर सकते हैं।
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