ट्रेन जैसे जैसे धीमे होती जा रही थी , वैसे ही डिब्बे में हलचल बढ़ती जा रही थी , जैसे मधुमखियाँ अपना छत्ता बनाने में तल्लीनता से जुट जाती हैं ठीक वैसे ही , ट्रेन की रफ्तार कम होते ही डिब्बे में लोग मख्खियों की तरह भिनभिनाने लगे थे।
कोई अपना सामान ऊपर की बर्थ से नीचे उतार रहा था, तो कोई नीचे से खिसकाकर ऊपर रख रहा था , एक महिला अपने बच्चों को उठाकर तैयार करने में लगी थी, बच्चे ऊँघते अँगड़ाई लेते और सो जाते , वहीं अपर बर्थ पर लेटे एक शख्स उबासी लेकर बोल रहे थे कि ," चलो भाई अब उतरो स्टेशन आ गया "।
मैं अपने बैग को घुटनों के ऊपर रखकर सब चुपचाप देख रहा था , जाने कितने ट्रेन के सफरों में ये सब नज़ारे देख चुका था और जब से अलीगढ़ आने की योजना बनाई थी आँखे इसी नज़ारे को तरस रहीं थी , रात भर ठीक से सो भी नहीं सका बार बार यहाँ बिताए वो पल आँखों के सामने आ जाते और नींदे छीन लेते , मैं अभी अपनी सोच में डूबा ही हुआ था कि तभी स्टेशन पर घोषणा होने से मेरा ध्यान टूट गया , मेरी आँखें जो अधखुली , झपकी ले रहीं थी वो अब तपाक से खुल चुकी थी ।
"यात्रीगण कृपया ध्यान दे" "चन्दौसी से अलीगढ़ आने वाली वाली गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर 1 पर आ चुकी है ।
" हम आपकी सुखद व सुरक्षित यात्रा की कामना करते हैं , 'धन्यवाद ।
मैं धीरे धीरे खिसकर दरवाज़े पर पहुँच गया , और ट्रेन रुकने पर डिब्बे से नीचे उतरा । सुबह के 5 बजे थे, ट्रेन अपने नियत समय पर प्लेटफार्म पर पहुँची थी पर कुछ ज्यादा भीड़-भाड़ नज़र नही आ रही थी , गिने चुने लोग ही सामान हाथ में लिए अपने डिब्बे की तलाश में जुटे थे , कुछ चायवाले हाथ मे चाय की टँकी लिए दौड़ रहे थे , गिनी चुनी दुकाने , ठेले ही खुल पाये थे अभी तक । हाँ बुकस्टाल पर लोगों की भीड़भाड़ थी अभी भी , लोग अखबार खरीद रहे थे , पास में एक चाय के ठेले से चाय पत्ती की भीनी भीनी खुशबू पूरे प्लेटफार्म को महका रही थी । मेरे पास एक छोटा बैग था जिसमें कुछ किताबें , कुछ पेपर , चार्जर ओर कई ज़रूरी चीज़े थी जिसे कन्धे पर डाले मैं स्टेशन को बारीकी से देख रहा था , उसे महसूस कर रहा था एक अरसे बाद ये नज़ारे जो देखे थे मैंने । प्लेटफार्म से निकल कर बस स्टैंड गया और बस में बैठ गया । कुछ ही देर बाद कंडक्टर के कॉलेज कॉलेज चिल्लाने पर मैं बस से उतरा , अब कॉलेज बस 500 मी० दूर रहा था । बस स्टॉप से कॉलेज तक एक छोटी सी सड़क जाती थी , सड़क से सटी हुई कुछ दुकाने आज भी वैसी की वैसी थी जैसे पहले हुआ करतीं थीं । एक चाय की टपरी थी जहाँ से समोसों की महक अभी भी आ रही थी । जिसने मुझे न चाहते हुए भी मुझे अपनी और खींच लिया । इसी टपरी से सटी कई और दुकानें थी जहाँ कभी हम अपने मोबाइल का रिचार्ज करवाते , कुछ शौकीन सिगरेट के छल्ले उड़ाते ,और कितनी मस्ती किया करते थे ।
सब कुछ वैसा ही था जैसा छोड़कर गया था लेकिन कुछ कमी थी अभी भी , मेरी नज़रे रहरहकर किसी शख्स को ढूँढ रही थी , जो अकसर मेरे यहाँ आने पर अपने आप सामने आ जाता था ।
वो सांवला सा मासूम चेहरा , छोटी छोटी आंखें जो गुस्से में कभी कभी बड़ी हो जाती थी , लंबे खुले बाल जो कमर तक लहराते रहते थे , पतले पतले होंठ जो न जाने मुझे देख क्या क्या बुदबुदाते रहते थे ।
और एक दिन बिना बताये न चाहकर भी यहीं छोड़ गया था मैं , अगर बता देता तो शायद कभी जा नहीं पता , मुझमे इतनी हिम्मत नहीं थी ये कहना शायद उचित होगा , मोहब्बत सी ही गयी थी उस चेहरे से पर न जाने वो कहाँ है ।
और मैं ये सब सोचते सोचते यादों में खो गया ।
मुझे याद आ रहा था कि होस्टल से ऊबकर जब एक दिन मैं , वीर, जोगिंदर, आकाश चाय और समोसे हाथ लिए गपशप कर रहे थे तो अचानक मेरी नज़र उस पर पड़ी थी, वो बार बार छत से मुझे देख रही थी । सभी बातों में व्यस्त थे और मेरा मन कहीं दूर ही उलझ गया था, किसी मांझे की तरह ।
और फिर महीनों मैं दोस्तो से अलग होकर सौंदर्य दर्शन में व्यस्त रहा था ।
कैसे महीनों तक आँखों ही आंखों में बातें चलती रहतीं थी ।
बस एक दूसरे को देखकर ही हम प्यार जताते , आते जाते जब भी हमें एक दूसरे की झलक दिखती हम दोनों सिहर जाते , समय कुछ देर के लिए जैसे रुक सा जाता था । सब कुछ एक रहस्यमय प्रेम कहानी सा चल रहा था और एक दिन पोल खुल ही गयी ।
और फैल गया रायता , मैं कभी नहीं चाहता था, और मैं क्या कोई भी नहींं चाहता कि मोहब्बत , प्यार जग जाहिर हो , लेकिन इश्क और मुश्क छुपाये नही छुपते ।
नाशते के बाद सभी मेस से लौट रहे थे , बातों की लम्बी छड़ी लगी हुई थी । हॉस्टल गैलरी शौर और ठहाकों से गूँज रही थी ।
"अरे भाई अपना चौधरी आजकल परेशान दिख रहा है ,आशिक़ी की बू आ रही है मुझे , विपुल ने हँसकर कहा .
" नहीं नहीं ऐसा नही है " मैने झेंपते हुए कहा था ।
पता है बेटे हमे सब ,आँखें हमारे पास भी हैं ,वीर ने हंसते हुए कहा था ।
और उस पर जोगिंदर ने भी हाथ आजमाया की "कोई नहीं "भाई को भाभी से मिलाने की जिम्मेदारी हमारी ।"
और कैसे मैं शर्म से लाल हुआ जा रहा था अंदर ही अंदर ।
कहा था मैंने की भाई ऐसा नहीं है जैसा तुम सोच रहे हो ,बस वो देखती है तो मैं भी देख लेता हूँ , अभी आँखों में ही चल रहा है , इससे ज्यादा कुछ नहीं ।
वीर - तो भाई कब होगा जब डिप्लोमा का आखरी दिन होगा ,
जोगिंदर - भाई नम्बर भी मांग ले आँखों आँखों में ।
कितनी सुनाई थी कमीनों ने , सब याद है आज भी ।
और उस दिन तो हद ही कर दी थी , जब वो दुकान पर खड़ी थी , मुझे याद है शायद जोगिंदर को मोबाईल का रिचार्ज कराने के बहाने , मेरा नाम लेकर मेरा नम्बर उसे बताया था , कितने कमीने दोस्त थे मेरे । शर्म से पसीना पसीना हुए जा रहा था मैं, काटो तो खून न निकले , हाथ कांप रहे थे जैसे तैसे संभल पाया था ।
उसका भाई जो किसी पहलवान से कम न था वहीं बैठा था , मैं इतना डर गया था कि नज़रे तक घुमा ली थी ।
और फिर वो बिना डरे मेरी ओर मुस्कुराकर देख रही थी , जैसे कह रही हो कि तुम दे नही पाते चलो दोस्त ही काम के रखे हो ।
कई दिन तक मैं अपने फोन को अनलॉक करके देखता रहा था ,कॉलेज से होस्टल में आकर फोन को वाइब्रेशन पर सेट करके हाथ मे पकड़कर रखता था कहीं किसी को आवाज़ न आ जाये , और वीर , जोगी दिन में कई बार ये टोह लेने आजाते की "भाई फोन आया क्या भाभी का ? ...
वीर जोगी से कहता " साले तूने लगता है एक या दो नम्बर गलत बोल दिए , नहीं मुझे लगता है ।
और फिर जोगी समझता " अबे नहीं यार देख लेना शाम तक फोन आ ही जायेगा : पक्का ।
चौधरी " तू टेंशन न ले : उदास न रह साले न अभी जाकर उसके घर से मांग लूँ नम्बर ।
और मैं निराशा के सागर में डूबा बस सर हिला देता ।
फिर शायद एक शाम फोन आ ही गया ।
मुझे याद है , उस दिन रविवार था वीर , जोगिंदर , बाहर गार्डन में घूम रहे थे , मैं अकेला अपने कमरे मैं बैठा था । तभी फोन बजा था , सिर्फ एक मिस्ड कॉल आयी थी ।
मैंने दोबारा फोन किया तो कोई आवाज़ नही आई ।
जहन में तो था मेरे की उसी की होगी लेकिन बस मन को बहला रहा था , अगली कॉल में एक आवाज़ ने दिल के सभी तारों को एकसाथ झनझना दिया था ।
हाँ हलो, मैं गीत --------- । आवाज़ में इतनी नरमी, इतनी मोहब्बत थी कि शब्दो मे बयां कर पाना मुमकिन नहीं है ।
जैसे कोई अमृत कानों से होकर दिल तक उतर गया हो ।
मैं फूला नहीं समा रहा था । और मुझसे भी ज्यादा खुश थे मेरे दोस्त जिन्होंने अपनी हड्डियों की परवाह किये बिना इस खतरनाक काम को अंजाम दिया था ।
मैं बार बार अपने दोस्तों का धन्यवाद कर रहा था । चेहरा खुशी से खिल रहा था , मैं पहली बार उस लड़की से बात कर रहा था । एक साल , दो साल हम बस फोन पर ही बात करते रहे । फिर तीसरे साल उससे अकेले में मिला था । अलीगढ़ शहर के बीचोबीच गोलचक्कर पर एक पार्क था । उसका गोल चहरा लाल होगया था । डर रही थी कि कहीं हमे कोई देख न ले । मोहब्बत की सारी दुनिया दुश्मन जो हैं ।
और लौटते हुए उसने बस इतना ही कहा था कि तुम छोड़ जाओगे न मुझे ।
राहुल तुम चले जाओगे ना , मुझे छोड़कर ।
फिर मिलोगे भी या नहीं,
क्या तुम मुझसे शादी नहीं कर सकते ।
उसके इन ढेरो सवालों का मेरे पास कोई उत्तर न था ।
हालांकि मैं भी उसे चाहता था लेकिन , शादी की बात आते ही मुझे एक लंबी कतार दिखती , जो कभी नहीं चाहती कि मैं उससे शादी करूँ ।
मुझे याद है वो आखरी दिन जिस दिन कॉलेज , होस्टल ये शहर , ये गाँव, सब छोड़कर मैं एक नए सफर पर निकल गया था मैं ।
मैंने देखा था , वो उतरा हुआ चेहरा जो कभी खिला रहता था,
आँखें जो नीलम की तरह चमकती थी , उस दिन रोने से सूज रहीं थी ।
मैंने देखे थे वो होंठ जो हिल तो रहे थे लेकिन बेज़ान थे , सूखे , जैसे गुलाब को कई दिन से पानी न लगा हो ।
दुख मुझे भी हुआ था , उससे दूर जाने का , सिहर मैं भी रहा था , एक एक कदम जैसे कितना भारी लग रहा था मुझे ।
और इसी चाय की टपरी पर आकर सामान कन्धे से नीचे रख बैठ गया था मैं , जैसे दिल कर ही नही रहा था कि तू यहाँ से जा ।
इसी चाय की टपरी पर बैठे बैठे आज सारी यादें ताजा हो गयी , आज सब बदल चुका है , मैं और शायद वो भी ।
हाँ मुझे याद है ,यहाँ से जाने के एक दो महीने ही उसका फोन आया था , फिर एक दिन मेरे फोन करने पर फोन , स्विच ऑफ आया था , शायद नम्बर बदल दिया गया था । मैंने भी ये बदलाव जल्दी ही स्वीकार कर लिया था ।
एक अरसा बीत गया , इस दुनिया से अलग हुए , लेकिन ये दुनिया बिल्कुल नहीं बदली थी । मैंने जल्दी से चाय की और पैसे देकर आगे बढ़ गया ।
रास्ते में जाते जाते मैं इधर उधर देखता जा रहा था कि कहीं वो चेहरा दिख जाए लेकिन वो कहीं नही दिखी । मैं निराश भी था लेकिन ये सोचकर खुश भी की चलो वो बीता कल था जो आज नहीं आ सकता । और अगर आ भी गया तो सामना कैसे करूँगा । सोचता हुआ कुछ देर बाद मैं कालेज पहुँच गया । कालेज से होस्टल गया । घूमते घूमते घण्टों बीत गए । दोपहर के बाद मैं अपने ज़रूर कागज़ लेकर वापस स्टेशन आ गया ।
उसी बेंच पर जहाँ कभी पहली बार बैठा था मैं ।
ज़िन्दगी में कितना कुछ बदल जाता है लेकिन कुछ चीज़े हमेशा एक सी रहतीं हैं । कुछ तो यादें बनकर सीने से लग जाती हैं । जब भी इनका नाम लो चाहे महीने , साल ही क्यू न बीत गए हों , एक पल में ताज़ी, कोरी निकलतीं हैं ,।
©Rahul chaudharyकोई अपना सामान ऊपर की बर्थ से नीचे उतार रहा था, तो कोई नीचे से खिसकाकर ऊपर रख रहा था , एक महिला अपने बच्चों को उठाकर तैयार करने में लगी थी, बच्चे ऊँघते अँगड़ाई लेते और सो जाते , वहीं अपर बर्थ पर लेटे एक शख्स उबासी लेकर बोल रहे थे कि ," चलो भाई अब उतरो स्टेशन आ गया "।
मैं अपने बैग को घुटनों के ऊपर रखकर सब चुपचाप देख रहा था , जाने कितने ट्रेन के सफरों में ये सब नज़ारे देख चुका था और जब से अलीगढ़ आने की योजना बनाई थी आँखे इसी नज़ारे को तरस रहीं थी , रात भर ठीक से सो भी नहीं सका बार बार यहाँ बिताए वो पल आँखों के सामने आ जाते और नींदे छीन लेते , मैं अभी अपनी सोच में डूबा ही हुआ था कि तभी स्टेशन पर घोषणा होने से मेरा ध्यान टूट गया , मेरी आँखें जो अधखुली , झपकी ले रहीं थी वो अब तपाक से खुल चुकी थी ।
"यात्रीगण कृपया ध्यान दे" "चन्दौसी से अलीगढ़ आने वाली वाली गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर 1 पर आ चुकी है ।
" हम आपकी सुखद व सुरक्षित यात्रा की कामना करते हैं , 'धन्यवाद ।
मैं धीरे धीरे खिसकर दरवाज़े पर पहुँच गया , और ट्रेन रुकने पर डिब्बे से नीचे उतरा । सुबह के 5 बजे थे, ट्रेन अपने नियत समय पर प्लेटफार्म पर पहुँची थी पर कुछ ज्यादा भीड़-भाड़ नज़र नही आ रही थी , गिने चुने लोग ही सामान हाथ में लिए अपने डिब्बे की तलाश में जुटे थे , कुछ चायवाले हाथ मे चाय की टँकी लिए दौड़ रहे थे , गिनी चुनी दुकाने , ठेले ही खुल पाये थे अभी तक । हाँ बुकस्टाल पर लोगों की भीड़भाड़ थी अभी भी , लोग अखबार खरीद रहे थे , पास में एक चाय के ठेले से चाय पत्ती की भीनी भीनी खुशबू पूरे प्लेटफार्म को महका रही थी । मेरे पास एक छोटा बैग था जिसमें कुछ किताबें , कुछ पेपर , चार्जर ओर कई ज़रूरी चीज़े थी जिसे कन्धे पर डाले मैं स्टेशन को बारीकी से देख रहा था , उसे महसूस कर रहा था एक अरसे बाद ये नज़ारे जो देखे थे मैंने । प्लेटफार्म से निकल कर बस स्टैंड गया और बस में बैठ गया । कुछ ही देर बाद कंडक्टर के कॉलेज कॉलेज चिल्लाने पर मैं बस से उतरा , अब कॉलेज बस 500 मी० दूर रहा था । बस स्टॉप से कॉलेज तक एक छोटी सी सड़क जाती थी , सड़क से सटी हुई कुछ दुकाने आज भी वैसी की वैसी थी जैसे पहले हुआ करतीं थीं । एक चाय की टपरी थी जहाँ से समोसों की महक अभी भी आ रही थी । जिसने मुझे न चाहते हुए भी मुझे अपनी और खींच लिया । इसी टपरी से सटी कई और दुकानें थी जहाँ कभी हम अपने मोबाइल का रिचार्ज करवाते , कुछ शौकीन सिगरेट के छल्ले उड़ाते ,और कितनी मस्ती किया करते थे ।
सब कुछ वैसा ही था जैसा छोड़कर गया था लेकिन कुछ कमी थी अभी भी , मेरी नज़रे रहरहकर किसी शख्स को ढूँढ रही थी , जो अकसर मेरे यहाँ आने पर अपने आप सामने आ जाता था ।
वो सांवला सा मासूम चेहरा , छोटी छोटी आंखें जो गुस्से में कभी कभी बड़ी हो जाती थी , लंबे खुले बाल जो कमर तक लहराते रहते थे , पतले पतले होंठ जो न जाने मुझे देख क्या क्या बुदबुदाते रहते थे ।
और एक दिन बिना बताये न चाहकर भी यहीं छोड़ गया था मैं , अगर बता देता तो शायद कभी जा नहीं पता , मुझमे इतनी हिम्मत नहीं थी ये कहना शायद उचित होगा , मोहब्बत सी ही गयी थी उस चेहरे से पर न जाने वो कहाँ है ।
और मैं ये सब सोचते सोचते यादों में खो गया ।
मुझे याद आ रहा था कि होस्टल से ऊबकर जब एक दिन मैं , वीर, जोगिंदर, आकाश चाय और समोसे हाथ लिए गपशप कर रहे थे तो अचानक मेरी नज़र उस पर पड़ी थी, वो बार बार छत से मुझे देख रही थी । सभी बातों में व्यस्त थे और मेरा मन कहीं दूर ही उलझ गया था, किसी मांझे की तरह ।
और फिर महीनों मैं दोस्तो से अलग होकर सौंदर्य दर्शन में व्यस्त रहा था ।
कैसे महीनों तक आँखों ही आंखों में बातें चलती रहतीं थी ।
बस एक दूसरे को देखकर ही हम प्यार जताते , आते जाते जब भी हमें एक दूसरे की झलक दिखती हम दोनों सिहर जाते , समय कुछ देर के लिए जैसे रुक सा जाता था । सब कुछ एक रहस्यमय प्रेम कहानी सा चल रहा था और एक दिन पोल खुल ही गयी ।
और फैल गया रायता , मैं कभी नहीं चाहता था, और मैं क्या कोई भी नहींं चाहता कि मोहब्बत , प्यार जग जाहिर हो , लेकिन इश्क और मुश्क छुपाये नही छुपते ।
नाशते के बाद सभी मेस से लौट रहे थे , बातों की लम्बी छड़ी लगी हुई थी । हॉस्टल गैलरी शौर और ठहाकों से गूँज रही थी ।
"अरे भाई अपना चौधरी आजकल परेशान दिख रहा है ,आशिक़ी की बू आ रही है मुझे , विपुल ने हँसकर कहा .
" नहीं नहीं ऐसा नही है " मैने झेंपते हुए कहा था ।
पता है बेटे हमे सब ,आँखें हमारे पास भी हैं ,वीर ने हंसते हुए कहा था ।
और उस पर जोगिंदर ने भी हाथ आजमाया की "कोई नहीं "भाई को भाभी से मिलाने की जिम्मेदारी हमारी ।"
और कैसे मैं शर्म से लाल हुआ जा रहा था अंदर ही अंदर ।
कहा था मैंने की भाई ऐसा नहीं है जैसा तुम सोच रहे हो ,बस वो देखती है तो मैं भी देख लेता हूँ , अभी आँखों में ही चल रहा है , इससे ज्यादा कुछ नहीं ।
वीर - तो भाई कब होगा जब डिप्लोमा का आखरी दिन होगा ,
जोगिंदर - भाई नम्बर भी मांग ले आँखों आँखों में ।
कितनी सुनाई थी कमीनों ने , सब याद है आज भी ।
और उस दिन तो हद ही कर दी थी , जब वो दुकान पर खड़ी थी , मुझे याद है शायद जोगिंदर को मोबाईल का रिचार्ज कराने के बहाने , मेरा नाम लेकर मेरा नम्बर उसे बताया था , कितने कमीने दोस्त थे मेरे । शर्म से पसीना पसीना हुए जा रहा था मैं, काटो तो खून न निकले , हाथ कांप रहे थे जैसे तैसे संभल पाया था ।
उसका भाई जो किसी पहलवान से कम न था वहीं बैठा था , मैं इतना डर गया था कि नज़रे तक घुमा ली थी ।
और फिर वो बिना डरे मेरी ओर मुस्कुराकर देख रही थी , जैसे कह रही हो कि तुम दे नही पाते चलो दोस्त ही काम के रखे हो ।
कई दिन तक मैं अपने फोन को अनलॉक करके देखता रहा था ,कॉलेज से होस्टल में आकर फोन को वाइब्रेशन पर सेट करके हाथ मे पकड़कर रखता था कहीं किसी को आवाज़ न आ जाये , और वीर , जोगी दिन में कई बार ये टोह लेने आजाते की "भाई फोन आया क्या भाभी का ? ...
वीर जोगी से कहता " साले तूने लगता है एक या दो नम्बर गलत बोल दिए , नहीं मुझे लगता है ।
और फिर जोगी समझता " अबे नहीं यार देख लेना शाम तक फोन आ ही जायेगा : पक्का ।
चौधरी " तू टेंशन न ले : उदास न रह साले न अभी जाकर उसके घर से मांग लूँ नम्बर ।
और मैं निराशा के सागर में डूबा बस सर हिला देता ।
फिर शायद एक शाम फोन आ ही गया ।
मुझे याद है , उस दिन रविवार था वीर , जोगिंदर , बाहर गार्डन में घूम रहे थे , मैं अकेला अपने कमरे मैं बैठा था । तभी फोन बजा था , सिर्फ एक मिस्ड कॉल आयी थी ।
मैंने दोबारा फोन किया तो कोई आवाज़ नही आई ।
जहन में तो था मेरे की उसी की होगी लेकिन बस मन को बहला रहा था , अगली कॉल में एक आवाज़ ने दिल के सभी तारों को एकसाथ झनझना दिया था ।
हाँ हलो, मैं गीत --------- । आवाज़ में इतनी नरमी, इतनी मोहब्बत थी कि शब्दो मे बयां कर पाना मुमकिन नहीं है ।
जैसे कोई अमृत कानों से होकर दिल तक उतर गया हो ।
मैं फूला नहीं समा रहा था । और मुझसे भी ज्यादा खुश थे मेरे दोस्त जिन्होंने अपनी हड्डियों की परवाह किये बिना इस खतरनाक काम को अंजाम दिया था ।
मैं बार बार अपने दोस्तों का धन्यवाद कर रहा था । चेहरा खुशी से खिल रहा था , मैं पहली बार उस लड़की से बात कर रहा था । एक साल , दो साल हम बस फोन पर ही बात करते रहे । फिर तीसरे साल उससे अकेले में मिला था । अलीगढ़ शहर के बीचोबीच गोलचक्कर पर एक पार्क था । उसका गोल चहरा लाल होगया था । डर रही थी कि कहीं हमे कोई देख न ले । मोहब्बत की सारी दुनिया दुश्मन जो हैं ।
और लौटते हुए उसने बस इतना ही कहा था कि तुम छोड़ जाओगे न मुझे ।
राहुल तुम चले जाओगे ना , मुझे छोड़कर ।
फिर मिलोगे भी या नहीं,
क्या तुम मुझसे शादी नहीं कर सकते ।
उसके इन ढेरो सवालों का मेरे पास कोई उत्तर न था ।
हालांकि मैं भी उसे चाहता था लेकिन , शादी की बात आते ही मुझे एक लंबी कतार दिखती , जो कभी नहीं चाहती कि मैं उससे शादी करूँ ।
मुझे याद है वो आखरी दिन जिस दिन कॉलेज , होस्टल ये शहर , ये गाँव, सब छोड़कर मैं एक नए सफर पर निकल गया था मैं ।
मैंने देखा था , वो उतरा हुआ चेहरा जो कभी खिला रहता था,
आँखें जो नीलम की तरह चमकती थी , उस दिन रोने से सूज रहीं थी ।
मैंने देखे थे वो होंठ जो हिल तो रहे थे लेकिन बेज़ान थे , सूखे , जैसे गुलाब को कई दिन से पानी न लगा हो ।
दुख मुझे भी हुआ था , उससे दूर जाने का , सिहर मैं भी रहा था , एक एक कदम जैसे कितना भारी लग रहा था मुझे ।
और इसी चाय की टपरी पर आकर सामान कन्धे से नीचे रख बैठ गया था मैं , जैसे दिल कर ही नही रहा था कि तू यहाँ से जा ।
इसी चाय की टपरी पर बैठे बैठे आज सारी यादें ताजा हो गयी , आज सब बदल चुका है , मैं और शायद वो भी ।
हाँ मुझे याद है ,यहाँ से जाने के एक दो महीने ही उसका फोन आया था , फिर एक दिन मेरे फोन करने पर फोन , स्विच ऑफ आया था , शायद नम्बर बदल दिया गया था । मैंने भी ये बदलाव जल्दी ही स्वीकार कर लिया था ।
एक अरसा बीत गया , इस दुनिया से अलग हुए , लेकिन ये दुनिया बिल्कुल नहीं बदली थी । मैंने जल्दी से चाय की और पैसे देकर आगे बढ़ गया ।
रास्ते में जाते जाते मैं इधर उधर देखता जा रहा था कि कहीं वो चेहरा दिख जाए लेकिन वो कहीं नही दिखी । मैं निराश भी था लेकिन ये सोचकर खुश भी की चलो वो बीता कल था जो आज नहीं आ सकता । और अगर आ भी गया तो सामना कैसे करूँगा । सोचता हुआ कुछ देर बाद मैं कालेज पहुँच गया । कालेज से होस्टल गया । घूमते घूमते घण्टों बीत गए । दोपहर के बाद मैं अपने ज़रूर कागज़ लेकर वापस स्टेशन आ गया ।
उसी बेंच पर जहाँ कभी पहली बार बैठा था मैं ।
ज़िन्दगी में कितना कुछ बदल जाता है लेकिन कुछ चीज़े हमेशा एक सी रहतीं हैं । कुछ तो यादें बनकर सीने से लग जाती हैं । जब भी इनका नाम लो चाहे महीने , साल ही क्यू न बीत गए हों , एक पल में ताज़ी, कोरी निकलतीं हैं ,।
©Rahul chaudhary
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