
वो मुम्बई ट्रवेल का छठा दिन था, दिसंबर खत्म होने को था और हल्की गुलाबी सी सर्दी ने दस्तक दे दी थी। उस दिन काफी खुश था मैं, मेरा एक ड्रीम पूरा होने जा रहा था और वो ड्रीम था- समन्दर के बीच किसी नाव में बैठकर वहाँ उठने वाली शांत और ठंडी-ठंडी हवाओं को महसूस करना। तो भाईलोग, हम जा रहे थे एलीफेंटा की गुफा देखने और इसके लिए हमें गेटवे ऑफ इंडिया से फैरी पकड़नी थी जो हमें सीधा समन्दर से होते हुए घारापुरी टापू पर ले जाती है जिसपर एलीफेंटा स्थित है। मेरी नज़र में ये उस समय एक तीर से दो निशाना लगाने जैसा था, एक तो समन्दर में नाव की सवारी करना और दूसरा एलीफेंटा केव जैसी हेरिटेज साइट पर विज़िट करना। एक्साइटमेंट इतनी थी कि हम अपना डीएसएलआर कैमरा और पूरा तामझाम लेकर कुछ जल्दी ही आ गए थे, अभी तो गेटवे ऑफ इंडिया का कैंपस (परिसर) खुला भी नहीं था।
खैर, कुछ ही देर में कैंपस खुल गया और हम एंटर हो गए। सूरज देवता भी तेजी से अपने लाल मुखड़े को छोड़कर प्रकाशमान हो रहे थे। हमने सबसे पहले फैरी में दो टिकिट्स ले ली, फैरी फुल होने तक रुकने वाली थी, तो मैंने सोचा कुछ फोटोग्राफी हो जाए।
थोड़ी देर में फैरी फुल हो गई और हम निकल पड़े अपने इस शानदार सफर के लिए। हमारा सफर जैसे ही शुरू, एकदम मजा आ गया क्योंकि इस गेटवे ऑफ इंडिया और ताज होटल को मैनें बहुत बार देखा होगा पर एक फ्रेम में यानी एक साथ कभी नहीं देखा था। समन्दर के अन्दर तैर रही फैरी में खड़े होकर इन दोनों को साथ देखना मेरे लिए सुखद था। मेरी उंगलियाँ कैमरे की शटर रिलीज बटन से हटी ही नहीं और कुछ 2-4 मिनट में ही हम काफी दूर निकल चुके थे।
अब जैसे-जैसे समन्दर में अन्दर की तरफ जा रहे थे, हवा में ठंडक बढ़ती जा रही थी अब जाकर स्वेटर की याद आई। अक्सर जूहू और मरीन ड्राइव में ऊँची-ऊँची लहरें मारने वाला समन्दर शांत दिख रहा था। कुछ देर में हम काफी अन्दर आ चुके थे, लगभग 5 कि.मी. तक। यहाँ से दूर क्षितिज तक कोई नहीं दिख रहा था बस पानी ही पानी, ना आगे कुछ और न ही पीछे कुछ। सुबह होने की वजह से अभी को दूसरी फैरी भी नहीं थी और थोड़ा-बहुत धुंध भी थी कहीं-कहीं। मैं बस एक किनारे खड़े होकर उन ठंडी-ठंडी हवाओं के स्पर्श के मजे ले रहा था। तभी एक बड़ी सी नाव दिखी, इतनी बड़ी नाव तो सिर्फ फिल्मों में देखी थी। अरे ये तो बस ट्रेलर था क्योंकि अगले कुछ मिनट में तो एक दो नहीं बल्की कई सारी शिप्स दिखने लगीं और सभी एक से बढ़कर एक।
इतने में साइबेरियाई पक्षी के झुंड हमारी फैरी के चारों तरफ मंडराने लगे। तमाम साथी पर्यटक उनको तमाम तरह का दाना वगैरह देने लगे, इस बीच मैं उनकी पिक्चर्स लेने में बिजी रहा। कुछ तस्वीरें अच्छी आई हैं। कुछ दूर और आगे गए तो हमें वो घारापुरी टापू दिखने लगा और हमारे अंदर की कुलबुलाहट बढ़ने लगी थी। बस ऐसे ही पानी को चीरती हमारी फैरी लगभग एक घंटे में एलीफेंटा वाले टापू पर पहुँच गई। उतरते ही ट्वाय ट्रेन दिखी पर हम लोग सीधे केव्स की तरफ बढ़ गए।
हमें बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि एलीफेंटा केव्स तक पहुँचने के लिए इतनी सारी सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं। एक दम खड़ी सी चढ़ाई देखकर विरार की जीवदानी माता मंदिर वाली चढ़ाई याद आ गई। सीढ़ियों के दोनों तरफ एन्टीक चीजों की तमाम दुकाने सजी थीं, किसी में चीनी मिट्टे के अद्भुत दिखने वाले बर्तन थे तो कहीं एकदम युनीक सी दिखने वाली ज्वेलरी। हर पर्यटन स्थल की तरह यहाँ भी पुरुषों के लिए कुछ खास नहीं था पर महिलाओं के लिए दुनियाभर की चीजें थीं। खैर, हमको कुछ खरीदना भी नहीं था पर इन दुकानों को देखते समझते हमे सीढ़ियाँ लांघते समय ज्यादा बोरिंग नहीं लगा।
ऊपर पहुँचते ही टिकट लेकर अन्दर दाखिल हुआ तो मेरे अचम्भे की कोई सीमा नहीं थी। पहाड़ के टुकड़ों को जोड़कर बनाई गई तमाम इमारते और कलाकृतियों के नमूने तो मैंंने पहले भी देखा थी पर पहाड़ को ही काटकर उसमें बनाई गई मूर्तियाँ और तमाम कलाकारी मैं पहली बार देख रहा था। सामने महत्मा बुद्ध की बड़ी सी त्रिमुखी मूर्ति थी और गुफा के चारों तरफ तमाम देवी-देवताओं की अप्रतिम दिखने वाली मूर्तियाँ थी जिनको बनाने में ना जाने कितने समय और साधना की ज़रूरत पड़ी रही होगी।
वहा से आगे बढ़ने का मन नहीं कर रहा था पर यह सोच कर बढ़ा कि आगे भी बहुत कुछ होगा देखने के लिए। उस गुफा के बगल ही दूसरी गुफा है जिसमें भगवान शिव के प्रतीक कई सारे बड़े-बड़े शिवलिंग बने हैं। उसके बाद एक-एक कर और दूसरी गुफाओं में भी गया पर उनमें कुछ खास ना मिला हम वापस पहली और मुख्य वाली गुफा में आ गए। एक-एक मूर्ति को फिर से निहारने लगा। सच कहो तो वहाँ से बिल्कुल भी निकलने का मन नहीं कर रहा था पर अब तक हम दोनों को भूख लग चुकी थी।
हम बाहर आकर एक जगह बैठकर हमने अपनी टिफिन खोली पर इससे पहले कि हम टिफिन में आए पोहे को खाना शुरु करते वहाँ टहल रहे वानर महराज ने धावा बोल दिया। उनको अपनी तरफ आते देख हम अपना टिफिन छोड़कर भाग लिए, फिर पाँच मिनट के अन्दर ही वानर महराज ने अपने पूरे दल-बल के साथ पूरा पोहा चट कर दिया। अब हमारे पास दो सेब ही बचे थे इसलिए हम दोनो ही उधर से कल्टी मारकर थोड़ी भीड़-भाड़ वाली जगह पर आ गए।

खैर, थोड़ी देर में थोड़ी पेट-पूजा करने के बाद ये समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करें, अभी तो बहुत समय बचा है और हमने तो घूम-घाम कर सब खत्म कर दिया। तभी मेरी नज़र पहाड़ के दाहिने तरफ से ऊपर जा रही एक पगडंडी दिखी, उत्सुकतावश मैं उसकी तरफ चल पड़ा और मेरे पीछे-पीछे अभिषेक भी। अभी हम कुछ कदम ही चले थे कि वहाँ लगे एक बोर्ड ने हमारे कदम रोक लिए, उसमें लिखा था कि यह रिस्ट्रिक्टेड जगह है और आगे जाना वर्जित है। हम लौटने ही वाले थे कि उधर से एक आदमी आता दिखा, मैंने उससे उस बोर्ड के बारे में पूँछा तो उसने बताया कि ये यहां से लेफ्ट की ओर के जंगलों के लिए लगा है, आप इस पगडंडी पर जा सकते हैं। चलो, हमें थोड़ा सुकून मिला…हम आगे बढ़े तो घने जंगल से होती पगडंडियों पर चलने का अनुभव ही अलग था।

जैसे-जैसे हम पहाड़ी के ऊपर की तरफ जा रहे थे वैसे-वैसे रास्ते थोड़े कठिन हो रहे थे पर वहाँ से नीचे देखने पर दिखने वाले नजारे ने मन मोह रखा था। ऊपर पहुँचे तो वो नजारा और भी साफ-साफ और दूर तक दिखने लगा। वहाँ जाकर ही पता चला कि वहाँ पर एक तोप रखी है जो कि काफी बड़ी थी। उसके ठीक बगल एक और गुफा थी, घने अंधेरे में घुप्प उस गुफा में कोई घुस न रहा था। हम दोनों ने मोबाइल की टॉर्च जलाकर गुफा में बने एक-एक कमरों को मुआयना शुरु कर दिया। बड़ा मजा आ रहा था, पर तभी हम अन्तिम कमरे में पहुँच गए जहाँ टॉर्च देखकर वहां सैकड़ों की संख्या में मौजूद चमगादड़ों ने चिल्लाना और उड़ना शुरु कर दिया। हम इतना बुरी तरह से डरे कि एक सेकेंण्ड में ही गुफा से बाहर आ गए।
तमन्ना होने लगी कि आगे कुछ और होगा इस लिए हम पहाड़ी के एकदम चोटी पर चले गए, वहाँ कुछ और छोटी गुफाएँ थी पर बड़ी रहस्यमई लग रही थीं इसलिए उनमें दाखिल होने की हम्मत नहीं हूई। पर एक बात तय थी कि इनकी बनावट को देखकर यही लगता है कि ऊपर की इन गुफाओँ को सुरक्षा के दृष्टिकोण से ही बनाया गया रहा होगा।
शाम होने को थी हम एक कतार में खड़े थे, ये कतार थी वापस मुंबई की तरफ जाने वालों की। हर पहर का मजा अगल होता है, शाम को समन्दर में गोते खा रही नाव पर बैठने का मजा भी अगल होता है। इसबार तो हमें सोफे वाली सीट मिली थी, हम थक भी गए थे। मन में यही ख्याल था कि वाकई काफी मजेदार दिन था ये, अब बस मजे से मुंबई पहुँचना था। सबकुछ तो ठीक था बस अफसोस सिर्फ इतना था कि उस गोल टोपी वाली लड़की से उसका नंबर नहीं माँग सका। अरे हाँ, उस लड़की का जिक्र करना भूल गया, वो अपने पैरेंट्स के साथ घूमने गई थी। उसके हाथ में भी डीएसएलआर कैमरा था तो हल्की-फुल्की बात चीत और उसके मम्मी-पापा से भी मुलाकात हो गई थी। पर जब मैं ऊपर पहाड़ी की तरफ गया तो वो ऊपर नहीं गई और नीचे आने पर वो नहीं मिली, शायद जा चुकी थी। खैर, उसका चैप्टर वहीं क्लोज करते हुए मैं फिर समन्दर की ठंडी हवाओं के मजे लेने में व्यस्त हो गया और इस तरह यह यात्रा खत्म हो गई।