भारत प्रकृतियों का देश है । इतनी विविधता और समरसता शायद ही किसी और को प्रदान हुईं होगी।
दीपावली के बाद का कोई प्लान बनाने की कोशिश ही हो रही थी की सुबह के अखबार में हमने हर साल होने वाली गिरनार की "लिली परिक्रमा" के बारे में सुना ।अहमदाबाद से २६७ किमी दूर सौराष्ट्र जिले का गिर शेरो के लिए दुनिया मे प्रख्यात है। लोकमान्यता ऐसी है कि गिरनार पर्वत हिमालय से भी ऊंचा था, खेर हमने रिसर्च की तो पता चला गिरनार में होने वाली परिक्रमा साल में एक ही बार होती है।
गुजराती महीने के हिसाब से कारतक सूद अगियार से पूनम तक ।
अंग्रेजी में महीने में नवंबर आसपास । दीपावली त्योहार इस यात्रा का अच्छा रिमाइंडर है , वैसे गिरनार पहाड़ी पर चढ़ाई सालभर खुली रहती है पर ये परिक्रमा जो गिरनार पर्वत पे चढ़ने बजाय जंगल से जाता रास्ता है वो साल में एक ही बार खुलता है। इतनी बड़ी पहाड़ी की आप प्रदक्षिणा कर सकते हो प्रकृति के रास्ते इसीलिए इसको "लिली प्ररिक्रमा","लील परिक्रमा"कहते है। इसके पीछे की बहोत सी दंतकथाएं है। वैसे जंगल होने के कारण जंगली जानवरों का बहोत खतरा होता है लेकिन गुजरात सरकार इसका आयोजन बहोत ही भव्य तरीके से करती है । लोग खाना बनाने का सामान अंदर तक ले जाते है, अंदर ही खाना बनाते है और अंदर ही सोते है, भजन- कीर्तन होते है, साधुओ का जमावड़ा होता है।भक्तिसागर पूरा इस पांच दिन वहां उमड़ पड़ता है, लोगो की संख्या लाखो तक पहोच जाती है।
मान्यता ऐसी है की परिक्रमा करने से पुण्यमार्ग प्रश्स्थ होता है । कथाओ का यहां अटूट भण्डार है और भक्ति का सागर तो मानो यहां रोज छलकता हो । भगवान राम ने भी रावण वध (ब्राह्मण वध) करने के बाद यहां परिक्रमा की थी।
हमारे पास आखिरी दो दिन थे इसमे से एक दिन ट्रावेलिंग में लगने वाला था और सिर्फ एक दिन बच पाता लेकिन प्रकृति के पास जाने की बात को टालना हमे हजम नही था। कल किसने देखा था अगला साल क्या लाये क्या मालूम।
हमने त्वरित ही बैगपैक करके दोपहर को रवाना हो गए । पूरा दिन ट्रेवल करने के बाद हम रातके २-३ बजे गिरनार पहोंचे। कहते है त्योहारो में कही जाना हो तो एडवांस बुकिंग कर लेनी चाहिए ताकि परेशानी ना हो सके । हमारे साथ ऐसा मुमकिन नही था वैसे नैचुरली चेलेंज जिंदगी में नया एडवेंचर लाते है।
भवनाथ तलेटी जहा से परिक्रमा की शुरआत होती है वहां बहोत सी धर्मशालाएँ है। पूरे दिन का ट्रावेलिंग करने के बाद हम धर्मशालाओ में रहने के लिए कमरा ढूंढने लगे आधी रात को!
ना होटल, ना धर्मशालाए किसी में हमे कमरा नही मिला , होटल में कमरे खाली भी थे तो वो हमारे बजट के बाहर थे।
नियम ये है कि प्रकृति हमे खिंचती है उसका उदाहरण हम सब खुद थे लेकिन वो आपको संभालती भी है। हमने कभी नही सोचा था कि जहां से परिक्रमा शुरू होती है वहां ही हमे रहने को धर्मशाला मिल जाएगी वो भी इतने हुजूम में । हम ये सोच के वहां गए ही नही की यहां तो कमरा मिल ही नही सकता।खेर,हम कमरे में पहोंच गए। थोडा सोने के बाद फ्रेश हो के हम परिक्रमा करने निकल पड़े ।
आखरी दिन था और आखरी घँटा जिसके बाद जहा से परिक्रमा शुरू होने वाली होती है वो गेट एकसाल के लिए बंध कर दिया जाता है। हम पहुंच गए। आखरी लॉट(टोला) जिनमे हम थे और बाकी हमारे जैसे कुछ धुनी लोग। हम सबको मिलके ५-६ लोग जो आखरी दिन के आखरी घँटे वाले लोग थे जो इस साल की आखरी परिक्रमा करने वाले थे ।
सिक्योरिटी गार्ड ने हमे अंदर भेज के वो गेट बंद कर दिया ।उन्होंने बताया था कि एक और ग्रुप को ६-७ बजे अंदर भेजा है।
लिली परिक्रमा जब शुरू होती है तो लाखों लोग जंगल के रास्ते गिरनार की परिक्रमा करते है लेकिन आखरी में आप प्रकृति को अच्छे से देख सकते हो, हा इंसान ने फैलाया हुआ कचरा बर्दाश्त के बाहर है ।
गिरनार की परिक्रमा कुल ३६ किमी.की होती है।
भवनाथ तलेटी से जीणाबावा की मढ़ी १२ किमी.
जीणाबावा की मढ़ी से माणवेल ८ किमी.
माणवेल से बोरदेवी ८ किमी.
बोरदेवी से भवनाथ तलेटी ८ किमी.
इस पूरे रास्ते मे ३ बार की बहोत ही सीधी चढ़ाई और ३ बार की पैर को ना रोकने वाली ढलान है। चढ़ाई का आप इसी से अंदाजा लगा सकते है कि आप सहारे के बिना खड़े भी नही रह सकते , पूरा जंगल।
चेकपॉइंट पे पीने की की व्यवस्था सरकार करती है ,फारेस्ट अफसर भी सुरक्षा के लिए होते है क्यूँ की जोखम बहोत है ,पोलीस बल भी आखरी में अपनी चौकिया खाली करके जा चुके थे । सोचो तो माहौल ऐसा था कि कोई जंगली जानवर से पाला पड गया तो आप कुछ नही कर पाओगे जो करना है वो करेगा। थकान के मारे आप भागोगे कहा ?
मान्यता ऐसी है कि भगवान के आदेश अनुसार जानवर इस पांच दिन तक नजदीक नही आते। हम सोच ही नही रहे थे हम तो प्रकृति में खोने आये थे , खुद से मिलने आये थे। "जय गिरनारी" के उद्गोष के साथ हम आगे बढ़ रहे थे ।
नजारा ऐसा था की मानो कोई चित्रकार ने सारे रंग आपस मे मिला दिए हो। जंगल इतना गाढ़ था कि सूरज की किरणें भी पहोंच नही पा रही थी। ठंडी सरसराती हवा, पत्तो का, शाखाओ का छूना, पत्थरो से पड़ते पानी के झरने सब दिल को सुकून देने वाला था। कुदरती झरने के पानी से हम मूँह-हाथ धोके जब एक मंदिर के परिसर में दाखिल हुए तो भक्ति की अलख ने हमे इतनी शांति दी कि सारी थकान जाने उतर गई हो, परिक्रमा के रास्ते मे बहोत से मंदिर है।
हमारे पास कोई ज्यादा सामान नही था, जो था वो कमरे में छोड़के आये थे सिर्फ कॉलेजबैग्स थी जो अब भारी लगने लगी थी।
दोपहर होते ही नास्ते के बॉक्स खुलने लगे,प्रकृति में खाना खाने का स्वाद ही अलग होता है। थोड़ी देर आराम करने के बाद हम आगे की तरफ निकल पड़े। लम्बे लकड़ी के टुकड़े के सहारे कमर पे लंबा गमछा बांधे हम अपनी मंज़िल पूरी करने चल पड़े थे हमे पता था हम प्रकृति से दूर जा रहे थे।
आखरी पड़ाव जहा (चेकपॉइंट) एक मंदिर भी है वो आखरी दिन भी सेवा करने में लगा हुआ था।। चाय-नास्ते के साथ हमे थोड़ी ताजगी मिली तो गम भी था की अब ८ किमी. के बाद हमारी परिक्रमा पूरी होने वाली थी।
कुछ साधुओ का साथ हमे परिक्रमा पूरी करने तक मिला।उनका जीवन,उनकी दिनचर्या, उनकी भक्ति जीवन मे उतारने लायक है, पर बहोत कठिन भी है।
सर्दियों का दिन था, सूरज बहोत पहेली ही डूब चुका था। बाहर निकलने का गेट भी बंध हो चुका था, छोटी सी जाली खुली रखी हुई थी। हम शायद आखरी थे,उस साल की परिक्रमा के आखरी थे लेकिन जो हम घर लेके जा रहे थे वो प्रकृति का प्यार, व्यवहार, अपनापन वो जीवनभर रहनेवाला था |