दिसंबर का महीना था,और हम सब क्रिसमस पर कहीं बाहर जाने की सोच रहे थे। मै आज तक कभी भी पहाड़ों की यात्रा पर नहीं गई पर मेरा दिल कहीं पहाड़ों में ही बसता है,शायद। ये महसूस करने का कारण शायद ये हो सकता है कि मैंने ऐसी बहुत सी फिल्में देखी है, किताबे पढ़ी हैं,लेख पढ़े हैं जिन्होंने पहाड़ों की खूबसूरती को जीवंत आंखो के सामने रखा है। जिसने मुझे वहां जाने की ऐसी भूख दी है जो शायद वहां जाकर ही मिटेगी। मिटेगी या और बढ़ जाएगी ये मुझे अभी नहीं पता। अब तो जब कभी भी कहीं घूमने जाने की बात होती है और मुझसे मेरी इच्छा पूछी जाती है तो मेरी गाड़ी कहीं किसी पहाड़ों के बीच बसे शहर या गाँव में जाकर रुकती है। यही हुआ इस यात्रा के दौरान भी। जब मुझसे पूछा गया तो मानचित्र पर मेरी उंगलियां हिमांचल के धर्मशाला और उत्तराखंड के मंसूरी और नैनीताल पर जा पहुंची। सामने आए अन्य जगहों में गुलमर्ग, मनाली, और शिमला भी थे और मैदानी इलाकों में आगरा और जयपुर। लेकिन हमारे साथ बच्चे के होने की वजह से हमें पहाड़ों को अपनी सूची से बाहर करना पड़ा। आखिर में हम सब की सहमति बनी जयपुर के नाम पर। इसे लेकर हम एक मुगलकालीन जोक भी कर रहे थे। जो था कि चलो पहले हीर कुंवारी (जोधाबाई) का मायका (आमेर फोर्ट) हो आते हैं, उनके ससुराल (आगरा फोर्ट) उसके बाद चलेंगे। हमारी यात्रा कुल 4 दिनों की थी जो 22दिसंबर से 25 दिसंबर तक थी। जिसमे हम शहर के अंदर की महत्वपूर्ण स्थान और पहाड़ों पर खड़े उन किलों को देखना था जो हमारे देश के इतिहास को अपने अंदर समेटे जिंदा खड़े है और समय बचता तो हम पुष्कर भी जाने की सोच रहे थे।
हमें गुड़गांव से जयपुर ट्रेन से ही जाना था क्योंकि यहां से जयपुर जाने में केवल 4-4:30 घंटे लगते हैं।
22 दिसंबर की सुबह 5:20 की ट्रेन थी हमारी। हम सब 4:50 तक घर से निकले थे। हम पहले ही काफी लेट हो चुके थे। हालांकि हमारे उबर ड्राइवर ने बताया कि वो हमे समय रहते स्टेशन पहुंचा देंगे। हम ठीक 5:20 पर स्टेशन पहुंचे। हमें नहीं पता था कि हमारी ट्रेन आने वाली है अभी या पहले ही जा चुकी है। कुछ वक़्त इंतज़ार करने पर हम समझ चुके थे कि हमने अपनी ट्रेन मिस कर दी है। 5-7 मिनट इंतज़ार के बाद वहां रानीखेत एक्सप्रेस अाई। वो भी जयपुर होते हुए जैसलमेर को जाती है। अब हमारी ये यात्रा एक रोमांचक यात्रा बनने वाली थी। जो यात्रा हम 4 घंटे में पूरी करने वाले थे उसके लिए भी हमें 5:30 घंटे का समय लगने वाला था। खैर हम बिना टिकट उस ट्रेन में चढ़ गए, वो भी धीमी रफ़्तार में ही सही पर चलती हुई ट्रेन में। दिसंबर के महीने में ऊनी कपड़ों के अलावा बिना किसी अतिरिक्त कम्बल के शयनयान में यात्रा कितनी दूभर हो सकती है ये तभी पता चला हम सबको क्योंकि हमारी तैयारी तो AC में यात्रा करने की थी, सो बस एक एक जैकेट पहना था हम सबने। जैसा कि मैंने बताया था ये पहाड़ मुझे हमेशा ही अपनी तरफ अट्रैक्ट करते हैं। हिमालय के पहाड़ ना सही, अरावली की टिलाए ही सही। वो भी कुछ कम रोमांचित नहीं कर रही थी। उनका विस्तार भी देखने लायक था या शायद ये मेरे पहाड़ों के प्रति प्रेम के कारण था।मेरी ट्रेन की पूरी यात्रा इन पहाड़ों को देखते हुए, बाते करते, चाय पीते और ठंड में ठिठुरते ही बित गई।
हम जयपुर स्टेशन पर उतरे और नज़ारा देखने वाला था। ऐसा लग रहा था मानो आधी आबादी दिल्ली और आसपास की यहीं आ गई हो। लोगो का हुजूम था। सर्दी के दिनों में लोग ऐसी ही जगहों पर यात्रा के लिए जाते हैं,और ये समय जयपुर का भी पीक सीजन था। स्टेशन तो बिल्कुल सादा,किसी भी आम छोटे शहर के स्टेशन जैसा था। मै ये इसलिए बता रही हूं क्योंकि मुझे हमेशा ही लगता था कि जयपुर का स्टेशन किसी किले कि तरह दिखता होगा जिससे वहां की विरासत की झलक मिल सके। मै यहां इसकी तुलना करने लगी थी लखनऊ, बनारस, मुंबई टर्मिनल, हावड़ा सरीखे स्टेशन से जिन्हें देख कर वहां की विशेषता का पता चलता है।
एक बात और जो मैंने महसूस की वो ये थी कि यहां के लोगों में धैर्य की बहुत कमी है,इसके उदाहरण हमे समय समय पर मिलते रहे थे पूरी यात्रा के दौरान।
अभी टूर का सीजन शुरू नहीं हुआ था इसलिए हमे हमारी इच्छानुसार कमरा मिल गया था होटल में वरना क्रिसमस के दिन से तो सारे होटल पूरे पैक्ड होते हैं । खैर दोपहर में हम लंच करने के लिए GTR पहुंचे। जिसके पास काबुल से चितगोंग तक(2600 किमी) के स्वादिष्ट व्यंजन आपको मिल जाएंगे। ये वेज और नॉन वेज भोजन के लिए बेहतरीन जगह है। जाड़े के दिनों में दिन जल्दी ढल जाता है और हमे पहले ही काफी देर हो चुकी थी। दोपहर के 3 बज चुके थे सो हम ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे आज। 4:30 तक तो अंधेरा होने लग जाता है तो हम बस होटल के आस पास ही रहना चाहते थे लेकिन जैसे ही हम GTR से बाहर निकले एक ऑटो वाले अंकल ने हमे पकड़ लिया। वो लगातार एक टूर गाइड की तरह हमें जानकारी दिए जा रहे थे कि हम इस वक़्त क्या क्या कर सकते हैं,कौन सी जगहें देख सकते हैं, और हम सब अच्छे टूरिस्ट की तरह सुनते जा रहे थे। उन्होंने कहा वो हमें 800 में नाहरगढ़ किला और आसपास की जगहें और मार्केट लेकर चलेंगे। हमने पहले से कोई होमवर्क नहीं किया था इस ट्रिप के लिए (क्योंकि ये लास्ट मोमेंट पर बनने वाले ट्रिप में से एक था , और होमवर्क ना करना हमारी एक बड़ी गलती थी,आप कभी ये गलती ना करें) इसलिए हम उनके साथ ही हो लिए। हम उनकी बताई जानकारी पर विश्वास कर रहे थे लेकिन उनके साथ जाते हुए बीच मार्ग में ही अमेर फोर्ट और जयगढ़ फोर्ट की तरफ जाता हुआ मार्ग देखा हमने। हम समझ चुके थे कि हमसे गलती हो गई थी। हम अगले दिन सुबह निकल कर ये तीनों फोर्ट एक साथ एक दिन में कवर कर सकते थे। फिर भी हमने उन ऑटो ड्राइवर से कुछ कहा नहीं। अभी हम उस जगह पहुंचे थे जो कि नाहर गढ़ फोर्ट से पहले पड़ने वाला एक व्यू प्वाइंट था जहां से आप जल महल का खूबसूरत नजारा देख सकते हैं (जलमहल दरअसल यहां से बहुत खूबसूरत दिखता है, बस आपके पास वो नजर होनी चाहिए और तस्वीर लेने के लिए एक अच्छा कैमरा होना चाहिए क्योंकि वो यहां से काफी दूर है और नीचे है) हम भी वहां रुके, जलमहल की खूबसूरती का बखान किया और वहां पहाड़ी से दिखते हुए पूरे जयपुर शहर को निहारा जो की किसी वैली कि तरह दिख रहा था। ये सब मेरे लिए बिल्कुल मैजिकल था।
हम आगे बढ़े और 15-20 मिनट में हम नाहरगढ़ फोर्ट पहुंच चुके थे। अरावली की पहाड़ियों पर स्थित इस फोर्ट का निर्माण कार्य 1734-1868 तक चला। कहा जाता है वहां के मरहूम राजकुमार नाहर सिंह की आत्मा वहां भटकती थी और किले की किसी भी निर्माण कार्य को रातो रात खंडहर में तब्दील कर देती थी। बहुत प्रार्थना करने के बाद वह एक शर्त पर फोर्ट को छोड़ने को राजी हुई कि इस फोर्ट का नाम उनके नाम पर रखा जाए। इसलिए इस फोर्ट का नाम नहरगढ़ फोर्ट रखा गया। अगर आपको वाइल्ड लाइफ और ठंडी बीयर का शौक है तो आपको यहां जरूर आना चाहिए। यहां देखने के लिए शीश महल, सीढ़ीदार बाउली, वैक्स म्यूजियम, ओपन थिएटर और कुछ मॉडर्न आर्ट से सम्बंधित संकलन भी है। किले की चारदीवारी बहुत विस्तृत है। जिसके बीच बीच में मीनारें है जिनपर खड़े होकर आप अरावली की पहाड़ियों, घाटियों, और जयपुर शहर को देख सकते हैं। किले की छत से और मीनारों से जब आप नीचे देखते हैं तो घाटी बेहद खूबसूरत दिखती है। शाम के वक़्त हल्की धुंध के के बीच एक दूसरे को ढकती हुई,और एक दूसरे के पीछे से उचक उचक के देखती हुई पहाड़ियां आपको अपने साथ बांध लेंगी।
एक एडवाइस जरूर रहेगी की आपको इसे पूरी तरह घूमने के लिए बहुत सारी स्टेमिना की जरूरत होगी जिसके लिए खाने पीने के लिए यहां से लगभग एक किलोमीटर दायरे में बेहतरीन रेस्त्रां भी है जैसे पड़ाव और वंस अपॉन ए टाइम एट नाहरगढ़ है, जो थोडे महंगे है। उसके अलावा किले के बाहर लोकल्स के ठेले भी हैं जहां से आप चिप्स, पापड़, फल, पकोड़े, चाय आदि ले सकते हैं। मेरी पर्सनल पसंदीदा जगहों में से मुख्य थी वह बाऊली। एक अजीब सा आकर्षण है उसमे। वर्षा के जल को संग्रह करने के लिए बनाया गया वह कुआं भी सोचने को मजबूत कर रहा था कि हमारे पूर्वज भी जल संग्रह के प्रति जागरूक थे,पर हम सब जानते हुए भी पानी वेश्ट करते हैं। मॉडर्न आर्ट सम्बंधित कुछ चीजे भी बहुत उम्दा थी। जिनमें मार्क प्राइम की कृति क्रोमेटोफोबिया है,जो लकड़ी से बनी कृति है जिसमें विश्व के लगभग 160 देशों के सिक्के धंसे हुए हैं। एक दूसरी कृति जो विज्ञान का उम्दा प्रदर्शन है,जो है एल एन तल्लूर की कृति ट्राजिएंस । यहां आप पत्थरों से बनी नदी का प्रारूप भी देख सकते हैं।
हम थकान की हद तक किले को घूम चुके थे। पहाड़ों, घाटियों और शहर को निहार चुके थे। अब समय था वापस लौटने का।इसी बीच ऑटो अंकल आ पहुंचे थे हमें वापस लेने। उनके साथ लौटते हुए हम नटवर जी के मंदिर गए दर्शन के लिए,जिसका कपाट शाम के वक़्त बंद था इसलिए हम बाहर से ही प्रणाम करके पास में ही मौजूद कनक वृंदावन पार्क देखने चले गए। जो कि बहुत खूबसूरत था। हम चकित रह गए जब ड्राइवर अंकल ने बिना बताए ऑटो को मार्केट की तरफ ले लिया। हमने सख्ती से उनसे कहा कि बिना बोले वो अपनी मर्जी से हमे कहीं भी क्यों लेकर जा रहे तब उन्होंने ऑटो को यू टर्न लिया। रास्ते में ही हवा महल भी है जिसे दूर से ही देखते हुए हम वापस अपने होटल आ गए। आप भी सावधान रहें इस तरह की किसी भी मनमानी से और अगर आप उबर या ओला नहीं इस्तेमाल कर रहें हैं तो ऑटो या प्राइवेट ट्रांसपोर्ट एजेंट से किराए के बारे में बात जरूर के लें और कोशिश करें कि आप 2-4 ऐसे लोगो से बातचीत करें और उनके प्राइसिंग के हिसाब से अपना सारथी चुने।
खैर यहां की सबसे अच्छी बात ये है कि आपको बेहतरीन से बेहतरीन होटल शहर के अंदर ही मिल जाएंगे और जरूरत के सारे सामान भी आस पास ही उपलब्ध हैं।
ये रहा हमारा पहला रोमांचक दिन जयपुर में, केवल नाहरगढ किले के नाम।