आसमान हर रोज हमारे साथ होता है लेकिन उस आसमान की लालिमा को हम हमेशा अनुभव नहीं कर पाते हैं। वो यात्रायें ही तो होती है जहां गलियां भी सुस्त होती हैं और हम भी। पौ फटते ही सूरज को देखना, चलते-चलते रूक जाना, मेरे लिये यही यात्रा है। मैं उन बादलों और बहती नदी को देखने के लिए यात्रा करता-रहता हूं। इस बार मैं अपने पुराने शहर की नई जगहों पर गया। कुछ हरिद्वार को देखा और कुछ ऋषिकेश को।
23 मार्च 2019। रात के 11 बजे आनंद विहार में एक बस में बैठा था लेकिन इस बार, मैं अकेला नहीं था। मेरे साथ थे मेरे सफर के साथी, जिन्होंने हरिद्वार-ऋषिकेश का प्लान बनाया था। मैं न जाता तभी भी ये लोग जाते लेकिन मैं जा रहा था एक बार फिर से हरिद्वार। बस साढ़े 11 बजे आनंद विहार से चली और कुछ ही घंटो के सफर के बाद हम हरिद्वार के प्राइवेट बस स्टैंड पर थे। हरिद्वार तो मेरे लिये घर जैसा है, आता-जाता रहता हूं, नया था तो मेरे इन साथियों के लिये। सामान किसी के पास ज्यादा था नहीं, सो होटल रूकने के बजाय हर की पौड़ी जाना ही तय किया।
शहर के गलियों में
मैं कुछ दिन पहले ही हरिद्वार आया था, तब सुबह की ठंडी हवा ने मुझे सर्दी का एहसास कराया था। लेकिन आज न हवा थी और न ही ठंड का एहसास। धीरे-धीरे हमने रेलवे स्टेशन और फिर दो चौराहे पार किये। हम उन्हीं गलियों में चल रहे थे, जहां दिन में बहुत शोर और भीड़ होती है। अभी सब कुछ शांत था, हमारे आगे भी कुछ लोग चल रहे थे। शायद वे भी हरकी पौड़ी जा रहे थे। कुछ गलियों को पार करने के बाद हम गंगा के घाट पर आ गये। हरकी पौड़ी अभी दूर था लेकिन गंगा सामने ही बह रही थी।
मैं तो अभी हरकी पौड़ी जाना चाह रहा था लेकिन हममें से एक को यहीं बैठने का मन हुआ। चलते-चलते अचानक बेहद खूबसूरत दृश्य आ जाता है, तब हम वहीं कुछ देर ठहर जाते हैं। यात्रा करते समय ऐसा अक्सर होता है कि शहर की पपड़ी गिरने में काफी वक्त लगता है। लेकिन एक बारजब हम उस जगह में ढल जाते है तो फिर सब कुछ बेहद साफ दिखने लगता है। हर दृश्य सुंदर लगता है फिर कदम-कदम रूकने की कोई वजह नहीं होती। कुछ देर ठहरने के बाद हम हरकी की पौड़ी की ओर चल दिये।
हरकी पौड़ी पर आज कुछ ज्यादा भीड़ थी। सुबह-सुबह मैं हरकी पौड़ी पर कई बार आ चुका था लेकिन आज कुछ अलग लग रही थी हरकी पौड़ी। आगे चले तो कुछ और बदला हुआ दिखाई दिया, हरकी पौड़ी का क्लाॅक टाॅवर। क्लाॅक टावर का रंग पूरा बदल दिया गया था, उसे सुनहरा कर दिया गया था। अब दूर से ही क्लाॅक टावर की चमक देखी जा सकती है। क्लाॅक टाॅवर पर इस सुनहरे रंग से कुछ आकृति भी उकेरी गई थीं लेकिन समझ नहीं आ रहा था आखिर बनाया क्या है? मैंने घड़ी में टाइम देखा साढे पांच बजे थे, क्लाॅक टाॅवर भी इतना ही बजा रही थी।
सभ्य शहर
क्लाॅक टाॅवर का सही समय देखकर मेरे एक साथी ने बताया अमिताभ बच्चन ने कहा है। ‘कोई शहर कितना सभ्य है, वो उस शहर की क्लाॅक टाॅवर देखकर बताया जा सकता है। घड़ी सही है तो उस शहर के लोग अच्छे हैं’। फिर तो हरिद्वार के लोग अच्छे हुये, मैंने हंसते हुये कहा। मुझे ये सुनकर मन ही मन अच्छा लग रहा था कि ये सभ्य शहर को मैं अपना कहता हूं। हम हरकी पौड़ी पर अब रूके थे तो बस आरती के लिये। आरती होने में अभी समय था इसलिए हरकी पौड़ी को इधर-उधर टहलकर देखने लगे।
हरकी पौड़ी के दोनों तरफ बेहद सुंदर दृश्य था। मंशा देवी की ओर चन्द्रमा दिखाई दे रहा था और चंडी देवी का मंदिर जिस ओर है। वहां सूरज की लालिमा धीरे-धीरे फैल रही थी,अंधेरा अभी पूरी तरह से छंटा नहीं था। इस सुंदरता को सिर्फ देखकर महसूस किया जा सकता है, जिसे इस वक्त मैं कर पा रहा था। फिर भी हम ऐसे पलों को सहेजना चाहते हैं। हमने अपने-अपने हिस्से की खूबसूरती और लालिमा सहेज ली। वो सवेरे का दृश्य वाकई बेहद सुंदर था। अब आरती का समय हो गया था।
गंगा मैया की आरती शुरू हो गई थी। हमारे सामने ही आरती हो रही थी और गंगा बीच में अपनी अविरल धारा में बह रहीं थीं। आरती के साथ ही हरकी पौड़ी लूटने की कोशिश में लग जाती है। कोई गंगा मैया के नाम पर तो कोई तिलक लगाने के झोल में। मैंने, सबको ये बात बता दी थी कुछ महिलायें आयेंगी और तिलक लगाने की कोशिश करेंगी। उनको मना करके लूटने से बचना है। आरती के बीच में एक महिला आई और हमारे एक साथी के माथे पर तिलक लगा दिया। अब जो तिलक लग गया था तो पैसा तो देना ही था। ये लुटाई, हर आस्था के केन्द्रों पर होती है, बस हमें बचना आना चाहिये।
सुबह की सरपट
आरती खत्म होते-होते सवेरे का उजाला फैलने लगा था लेकिन दूर तलक आसमां अभी भी लालिमा से भरा हुआ था। ये लालिमा, छंट कर आ रही थी, आने वाला सब कुछ सुंदर लग रहा था। उसी सुंदरता को देखते-देखते हम वापस उसी रास्ते पर आ गये, जहां से आये थे। हम फिर से वहीं बैठ गये, जहां हरकी पौड़ी जाते वक्त बैठे थे। हमने अपने पैर, पानी में डाल लिये। पानी बहुत ठंडा था, कुछ देर बाद लगा कि पैरों में शून्यता आ गई है। इस एहसास को लेकर हम वापस पतली गलियों में आ गये।
हरिद्वार आये कई घंटे बीत गये थे और कुछ खाया नहीं था। अब बारी थी, हरिद्वार में सवेरे के नाश्ते की। हरकी पौड़ी आते हुये कश्यप कचौड़ी का ठेला मिला था। मैंने सुन रखा था कि कश्यप की कचौड़ी बेहद अच्छी होती है। हम सबसे पहले वहीं पहुंच गये और टेस्ट करने के लिए सिर्फ एक ही प्लेट कचौड़ी लगाने को बोला। कुछ देर बाद गर्म-गर्म कचौड़ी, सब्जी के साथ आ गई, उपर से नारियल की गरी को भी डाला गया था।
मुझे कचौड़ी से ज्यादा समोसे पसंद हैं लेकिन सच में इस कचौड़ी के सामने वो भी फेल थे। सब कुछ अच्छा था, ये गली, ये पत्ते का दोना जिसमें हम कचौड़ी खा रहे थे। कचौड़ी का स्वाद अच्छा लगा था, सो हमने एक-एक प्लेट और मंगा ली। कश्यप कचौड़ी का स्वाद लेकर हम रेलवे स्टेशन की ओर बढ़ गये। हम अब कुछ देर आराम करना चाहते थे और फिर आगे बढ़ना चाहते थे। इस शहर में बार-बार आना अपने पुराने को याद करने जैसा है। इस शहर में आकर मैं अपने आज और कल में अंतर कर पाता हूं। कितना सुखद होता है न बार-बार एक ही जगह पर आना, जबकि वो तुम्हारा घर न हो। हरिद्वार मेरा घर नहीं है लेकिन मेरा अपना शहर है।