भानगढ़ जिसकी रहस्यमय कहानियों ने उसे भूतों का भानगढ़ नाम दिया है और जहां शाम के बाद रुकना मना है तथा माना जाता है कि सूर्यास्त के बाद उस किले में भूतों की दुनिया आबाद हो जाती है. वैसे मेरी भूतों में तो कोई आस्था नहीं, लेकिन यह उत्सुकता जरुर थी कि आखिर इसे इतना डरावना क्यों माना जाता है कि सूरज डूबने के बाद और सूर्योदय होने तक वहाँ किसी को रहने की इजाज़त नहीं है. यहाँ तक कि पुरातत्व विभाग का ऑफिस वहाँ न होकर उसके बाहर गाँव में है. शायद यह अपने तरह का पहल मामला है जब पुरातत्व विभाग का ऑफिस वहां से बाहर हो.
बहुत दिनों से भानगढ़ देखने की लालसा मन में थी. वैसे यह लालसा फेसबुक पर विनोद भरद्वाज जी ने उसके बारे में लिख और उससे ज्यादा वहां की तस्वीरें पोस्ट कर जगाई थीं. मैंने तब पहली बर भानगढ़ का नाम सुना था. कुछ दिनों पहले जब अग्रज कैलाश मनहर जी से बात हुई तो अचानक ही मुझे भानगढ़ याद आया और उनसे उसके बारे में दरियाफ्त की. उन्होंने इसपर कहा कि यदि मैं मनोहरपुर आता हूँ तो वे मुझे लेकर भानगढ़ चलेंगे. मुझे क्या चाहिए था, और ऐसा सुनहरा मौक़ा भला क्यों चूकता. वैसे भी मुझे न जाने क्यों राजस्थान बहुत ही आकर्षित करता रहा है. वहां के कण-कण इतिहासों को समेटे बिखरा पड़ा है..
भानगढ़ के उजड़ने को लेकर कई किस्से मशहूर हैं. जिसमें सबसे प्रसिद्ध किस्सा एक सेवड़ा तांत्रिक सिंधु सेवड़ा के श्राप की है. इसके भी दो किस्से हैं. एक के हिसाब से वो भानगढ़ की महारानी रत्नावली तो दूसरे के हिसाब से राजकुमारी रत्नावाली के नाम से है. पहले के अनुसार जब वो अपने तंत्र साधना केंद्र से एक बार महारानी को देखा तो पहली नज़र में ही उनपर मोहित हो गया. इसके बाद वो उनके बीरे में ही सोचता रहता और किसी भी तरह उन्हें अपना बनाने की जुगत में दिन रात लगा रहता. रानी रत्नावली पूर्वोत्तर की किसी राज्य की राजकुमारी थीं. वैसे एक किवदन्ती के अनुसार यह भी कहा जाता है कि तांत्रिक सिंधु सेवड़ा भी पूर्वोत्तर का ही था और उसने रत्नावली को पिता के राज्य में ही देखा और उनसे प्रेम करने लगा था. वो जबतक अपने प्रेम की बात उनपर जाहिर करने की सोचता उससे पहले ही उनका विवाह हो गया और वो महारानी बन भानगढ़ आ गयीं. तांत्रिक भी पीछे-पीछे उनको ढूंढ़ते हुए भानगढ़ आया और पहाड़ी की चोटी पर अपनी कुटिया बना तंत्र साधना करने लगा. उस कुटिया से महल एकदम सीध में पड़ता और वह वहीँ से महारानी को देखा करता. अंत में महारानी पर उसने तंत्र विद्या का प्रयोग कर अपना बनाने का निर्णय किया. परन्तु वह इस बात से अनभिज्ञ था कि महारानी भी तंत्र विद्या की जानकार हैं और उसकी साधना भी करती हैं. एकदिन बाज़ार में जब महारानी की दासी महारानी के लिए इत्र लेने गई थी, उसको एक तेल की शीशी, जिसपर वशीकरण किया गया था, दिया और कहा कि महारानी पर अनिष्ट की छाया मंडरा रही है. इसका प्रयोग करेंगी तो उनका कल्याण होग़ा और अनिष्ट कट जायेगा. दासी ने महारानी को वो शीशी दी और तंत्रिक की बताई सारी बात बता दी. महारानी को कुछ अंदेशा हुआ और उन्होंने उसपर अपनी तंत्र विद्या आजमाया. तेल की शीशी नाचने लगी और महारानी पर यह राज फाश हो गया कि उनपर वशीकरण किया गया है. महारानी ने गुस्से में उस शीशी पर तंत्र विद्या पढ़ा और पास के चट्टान पर पटक दिया. शीशी आवाज़ के साथ टूट गयी और सारा तेल चट्टान पर बिखर गया. इसके बाद चट्टान तेज़ी से अपनी जगह से हिला और तांत्रिक सिन्धु सेवड़ा की तरफ बढ़ा. इससे पहले कि सिन्धु सेवड़ा बचने की कोई जुगत करता उस चट्टान ने उसे कुचल दिया. लेकिन मरते-मरते उसने भानगढ़ को श्राप दे दिया कि जल्द ही वहां के मंदिरों को छोड़कर सब ख़त्म हो जाएगा. कोई नहीं बचेगा और उन्हें कभी मुक्ति भी नहीं मिलेगी. कहते हैं कि इसके कुछ दिन बाद अजबगढ़ ने उसपर हमल बोला और किले के अंदर रहने वाले सारे व्यक्ति उस युद्ध में मारे गये, यहां तक रानी भी नहीं बची. तभी से यह किला वीरान है और रात में सारे सिपाही जागृत हो युद्ध करते हैं. इसमें दूसरी कहानी के अनुसार सिन्धु सेवड़ा यहीं का था और काला जादू की साधना करता था. जब राजकुमारी 18 साल की हुयीं तो उनकी सुन्दरता के किस्से दूर दूर तक मशहूर हो गए और शादी के लिए दूर-दूर के राजकुमारों के पैगाम आने लगे. एक दिन राजकुमारी रत्नावली बाज़ार में जब इत्र खरीद रहीं थीं तो वहीँ खड़ा सिन्धु सेवड़ा की निगाह उनपर पड़ी और वो अपना दिल हार बैठा. फिर एकदिन राजकुमारी के लिए जो इत्र जाने वाला था उसपर काला जादू कर वहीँ रख दिया, मगर उसे ऐसा करते राजकुमारी की दासी ने देख लिया और यह बात राजकुमारी को बता दी. राजकुमारी ने उस इत्र की शीशी को पास के पत्थर पर पटक दिया जिससे शीशी टूट गयी और पत्थर ने तांत्रिक को कुचल दिया.
एक अन्य किस्से के अनुसार भानगढ़ के किले के पास योगी बालूनाथ का तप स्थल था. भगवंत सिंह को उन्होंने किला बनाने से पहले यह बताया था कि किले की छाया उनके ताप स्थल पर नहीं पड़नी चाहिए और यदि ऐसा हुआ तो अनर्थ होगा और किला आबाद नहीं रह पायेगा. भगवंत सिंह ने इसका ख्याल रखते हुए किले की ऊँचाई ज्यादा नहीं होने दी और चार मंजिल बनवाकर रुक गए. कहते हैं कि बाद में जब माधो सिंह ने गद्दी सम्भाली तो किले के ऊपर तीन मंजिल का और निर्माण कराया जिससे उसकी ऊँचाई इतनी बढ़ गई कि उसकी छाया योगी बालूनाथ के तप स्थल पर पड़ने लगी. योगी ने क्रोध में आकर किले के उजड़ने का शाप दे दिया और इसके बाद धीरे धीरे किला वीरान हो गया.
इसके अतिरिक्त एक तीसरी कथा के अनुसार भानगढ़ के राजा अपने राजगुरु का बड़ा सम्मान करते थे. राजगुरु सन्यासी थे और एक निश्चित जगह टिककर नहीं रहते थे. वे अपने शिष्यों के साथ इधर-उधर आते जाते रहते और बीच बीच में कुछ समय के अंतराल पर भानगढ़ भी आते रहते. वो जब भी आते राजा और रानी उनकी बहुत सेवा करते और उनको सम्मान देते. राजगुरु की इच्छा जैसे उनके लिए आदेश हो. यह देख अन्य मंत्रीगण राजगुरु से इर्ष्या करने लगे. कहा जाता है कि एक बार राजगुरु आये तो अपने प्रमुख शिष्यों को बता कुछ दिनों के लिए समाधि धारण की. इसका फायदा उठा उनसे इर्ष्या करने वाले मंत्रियों ने किसी जानवर को मारकर उस कक्ष में फिंकवा दिया. कुछ दिनों में ही वो सड़कर बदबू देने लगा. मंत्रियों ने राजा से कहा कि राजगुरु की मौत हो गयी है, इसीलिए इतनी बदबू आ रही. राजा को भी इस बात का विश्वास हो गया और उसने लकड़ी लगा राजगुरु का दाह संस्कार कर दिया. इसमें सामाधिस्थ राजगुरु जलकर भस्म हो गये. जब इस बात का पता उनके प्रमुख शिष्य को चला तो उन्होंने क्रोधित हो पूरे किले के उजड़ जाने का शाप दे दिया. इधर महारानी को जब पता चला तो वो भी बहुत दुखी हुयीं और छत से कूदकर जान दे दीं. लेकिन इससे पहले वो भी भानगढ़ को शाप देन गईं कि अब यह फिर कभी नहीं बसेगा.
ये तमाम किस्से इसके शापित होने के किस्से हैं. मगर इससे हटकर भी इसके उजड़ने की एक मान्यता है. वह यह है कि वक़्त के साथ किले में पानी की समस्या वहां के जीवन पर असर डालने लगी थी. इसके चलते लोग धीरे-धीरे वहां से पलायन करने लगे. 1720 के बाद भानगढ़ पानी की कमी के चलते उजड़ने लगा. समय के साथ पानी की समस्या हल होने के बजाय कहीं बढती ही गई और 1783 में पड़े अकाल ने इसे पूरी तरह से उजाड़ दिया. कहते हैं उस अकाल के बाद किले में एक ‘गोला’ रह गए थे और शेष या तो अकाल के काल में समाहित हो गए या पलायन कर गए. गोला ने भी किले से बाहर लगभग दो किमी दूर एक गांव ‘गोला का बास’ नम से बसाया जो आज भी वहाँ बसा हुआ है. अग्रज कैलाश मनहर जी ने बताया कि उस ज़माने में राजाओं की शादियों में रानी के साथ कई दासियों के भी आने का रिवाज था. रानी के साथ आनेवाली दासियों को ‘गोली’ कहा जाता था और उनकी संतानों को ‘गोला’. आचार्य चतुरसेन का उपन्यास गोली इसी कथानक को लेकर बुना गया है.
भानगढ़ के किले के इतिहास पर नज़र डालें तो इसका निर्माण अकबर के सेनापति राजा मान सिंह के पिता व आमेर के राजा भगवंत सिंह ने 1573 में कराया था. इसके बाद भगवंत सिंह के पुत्र माधो सिंह ने इसे 1613 ईस्वी
में यहाँ का शासन सम्भाला और किले को अपनी रिहाइश बनाया. माधो सिंह के बाद उसका पुत्र छत्र सिंह गद्दी पर बैठा. छत्र सिंह के बेटे अजब सिह ने भानगढ़ में रहने के बजाय उससे दस किलोमीटर दूर अजबगढ़ का किला बनवाया और वहीं रहने भी लगे. इसके बाद इनके दो बेटे अजबगढ़ में ही रहे मगर तीसरे पुत्र हरि सिंह 1722 में भानगढ़ का शासक बने. कहा जाता है कि हरि सिंह के दो पुत्र औरंगजेब के प्रभाव में आकर इस्लाम धर्म अपना लिए और मोहम्मद कुलीज एवं मोहम्मद दहलीज के नाम से जाने गए. औरंगजेब ने उन्हें भानगढ़ सौंपा. औरंगजेब के मरने के बाद जयपुर के महाराजा सवाई जय सिंह ने इन्हे मारकर भानगढ़ पर कब्जा कर लिया और भानगढ़ को माधो सिंह के अन्य वंशजों को लौटा दिया.
भानगढ़ की यात्रा
तय हुआ था कि मै सुबह दिल्ली से मनोहरपुर टोल नाका पहुंचूंगा जहां अग्रज कैलाश मनहर जी मिलेंगे और फिर वहाँ से उनके साथ भानगढ़ की रवानगी होगी. मैं बस से उतरा तो मनहर जी वहां मेरे इंतज़ार में पहले ही से आकर खड़े थे. वहाँ से पहले उनके घर गए. इतने में गाडीवाले भी आ गए जिससे हमें भानगढ़ जाना था. दौसा रोड पर जब हम आगे बढे तो आगे अरावली को स्वागत में बिछे पाया. उसकी हरियाली बहुत ही पुरसुकून थी. कुछ देर बाद मैंने गौर किया कि हम जिस रास्ते से जा रहे हैं वो मुख्य सड़क नहीं लग रही. मुझे अजीब लगा तो अग्रज कैलाश मनहर जी से अपनी शंका व्यक्त की तो पता चला कि हम लोग मुख्य सड़क को छोड़ दूसरे रास्ते से जा रहे थे, ताकि मैं उस क्षेत्र को अधिक से अधिक देख व जान सकूँ. चारों तरफ बिखरी अरावली की पहाड़ियां और उसमें से गुजरती वो सड़क. उस सड़क को देखकर अनायास ही ख्याल आया कि जब वो सड़क नहीं होगी तो वहाँ की जिंदगी और वहाँ आना-जाना व व्यापार कितना कठिन होगा. पहली बार उस सड़क का बनना वहाँ के लिए क्रांति ही थी जो वहां के लोगों की जिंदगियों में आमूल चूल बदलाव लायी होगी और शेष दुनिया से उनका एक रिश्ता कायम किया. रास्ते में पहाड़ियों पर कई किले अपनी जर्जर अवस्था में दिखाई दिए जिनका कहीं कोई वर्णन नहीं मिलता और गुमनामी के अन्धेरों में गुम होने को मजबूर. आगे अजबगढ़ का दरवाजा आया, जिससे प्रवेश कर अजबगढ़ होते हम भानगढ़ पहुंचे. अजबगढ़ शांत व सुंदर इलाका था. ‘गोला का बास’ में हम थोड़ी देर रुके और वहां पकौड़े खाए गए व चाय पी गई. भानगढ़ पहुँचने पर किले के बाहर उसकी बेइंतहा खूबसूरत बारादरी जैसे स्वागत में खड़ी हो पुकार रही हो कि दो पल आराम कर आगे जाओ. पर अब वो सड़क से थोड़ी दूरी पर है सो उसे दूर से ही निहारकर हम आगे बढ़ चले.
भानगढ़ का यह किला राजस्थान के अलवर जिले में विश्व प्रसिद्ध सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के दक्षिण में स्थित है. यह तीन तरफ़ से पहाड़ियों से घिरा है. सबसे पहले एक बड़ी दीवार है जिससे दोनो तरफ़ की पहाड़ियों को जोड़ा गया है। इस दीवार के मुख्य प्रवेश द्वार पर हनुमान जी विराजमान हैं। इसके पश्चात बाजार प्रारंभ होता है. बाजार के ध्वंसावशेष ने अपनी नगर योजना की तरफ ध्यान खींचा. उसे देखकर सहज ही अनुमान हो जाता है कि वो पूरा नगर नक़्शे के हिसाब से नियोजित किया गया था. वहां सारे निर्माण एक योजना के तहत थी. कोई भी निर्माण बेतरतीब नहीं थी. बाजार की सड़कें एक समान चौड़ाई लिए थीं और कहीं भी उनकी चौड़ाई न बहुत अधिक और न ही कम थी. इस बाज़ार वाले क्षेत्र में ही नर्तकियों का भी वास था. जो दो मंजिला था. जहां लोग नृत्य व ज्ञान का आनंद लेते थे.
बाज़ार की समाप्ति के बाद राजमहल के परिसर के विभाजन के लिए त्रिपोलिया द्वार बना हुआ है। अंत में सबसे पीछे राज महल स्थित है. इस किले में कई मंदिर जैसे सोमेश्वर, गोपीनाथ, मंगला देवी और केशव राय के मंदिर हैं। मंदिरों की दीवारों और खम्भों पर खूबसूरत नक़्क़ाशी की गई है जो अपने समय की भव्यता की कहानी कहता है. किले में सभी मंदिर आज भी सही स्थित में हैं. सोमेश्वर मंदिर के बगल में एक बावड़ी है. लेकिन लगभग सभी मंदिरों में से मूर्तियां गायब हैं. किले में बहुत ही शान्ति व सुकून था. मुझे जबरदस्ती अपने को याद दिलाना पड़ा कि यह भानगढ़ भूतों का भानगढ़ कहलाता है और यह एक शापित किला है. यहाँ मनहूसियत टपकती है. मगर अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी वहां मनहूसियत की छाया भी देखने में असफल ही रहे. महल खंडहर में बदल चुका है और अपने सात मंजिलों में से केवल चार मंजिल ही टूटी फूटी अवस्था में अब मौजूद है. महल के ऊपर पहाड़ी पर एक छतरी थी जिसे लोगों ने बताया कि वही तांत्रिक की छतरी है जहां वो तंत्र साधना करता थ और रानी को देखा करता था.
किले के स्थान का चयन सामरिक व सुरक्षा के दृष्टिकोण से बहुत ही उपयुक्त और महत्वपूर्ण था. इसके अतिरिक्त प्राकृतिक सुषुमा ऐसी की मन बस वहीँ का होकर रह जाए. वैसे इसके उजड़ने की सबसे चर्चित कहानी तांत्रिक के श्राप के अनुसार अजबगढ़ के साथ लड़ाई में किले के सभी लोगों के मारे जाने के बारे में तफ्तीश करने की कोशिश नाकाम रही और कोई भी यह बताने की स्थिति में नहीं था कि यह युद्ध किस-किसके बीच हुआ था और अजब गढ़ ने इस जीत के बाद इसे छोड़ क्यों दिया?
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा खुदाई से इस बात के पर्याप्त सबूत मिले हैं कि यह शहर एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थल है. इसने सूर्यास्त के बाद इस इलाके में किसी भी व्यक्ति के रूकने लिए मनाही की हुई है.
आखिर इन भूतों के नाम भानगढ़ को सम्बंधित कर देने की कहानी की शुरुआत कब और क्यों हुई. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने वहां की गतिविधियों को रहस्यमय व खतरनाक मानकर वहाँ रात में रुकने से मना क्यों किया? इसका सीधा अर्थ तो यही निकलता है कि वहां कुछ रहस्यात्मकता है, जो खतरनाक भी है. इसका ठीक-ठीक पता शायद भविष्य में ही कभी लगे, पर भूतों की कहानी गले उतरने वाली नहीं लगी मुझे. जब यहां के मंदिरों को मुर्तिविहीन पाया तो एक ख्याल जरूर आया कि कहीं यह भूतों की कहानी किन्हीं मूर्ति चुराने वाले गिरोह द्वारा फैलाई तो नहीं गई है?