हमारी यह परिवार अन्य लोगों के साथ की गई यात्रा, एक यादगार यात्रा थी. इस यात्रा वृतांत को शुरू से पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ, नीचे इस यात्रा से जुड़ी सभी लिंक भी दे रहा हूँ ताकि आपको इसे ढूंढने में परेशानी न हो.
दिन के 3:15 बज रहे थे और हमारी गाड़ी बाबा मन्दिर से वापसी कर रही थी. मौसम के बदलते तेवर और ऊँची-ऊँची पर्वतों और वादियों के नैसर्गिक खूबसूरती ने , कैफेटेरिया में पढ़े-लिखे जाहिल जानवरों की वजह से गरम हुए दिमाग को जाने कब का ठंडा कर दिया. अगर आप असमंजस में हैं कि आखिर मैंने ऐसा क्यों कहा तो इस कड़ी को पढ़ें, ताकी आपको मेरी पूरी बात समझ आ पाए. हमें उसी रास्ते से गंगटोक, माल रोड़ वापस जाना था जिस रास्ते से हम आए थे.
हमारी गाड़ी हंगू झील ( Hangu Lake) से आगे निकली ही थी कि मौसम डरावना होने लगा, बादलों ओर धुंध ने अब रास्तों को भी घेरना शुरू कर दिया. विजिबिलिटी बिल्कुल कम हो गई जिसकी वजह से आठ-दस फीट के आगे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. अन्दर से डर भी लग रहा था, सही बोलूं तो फटी पड़ी थी. एक तो गहरे बादलों और धुंध की अटखेली, ऊँचें पहाड़ों के सर्पीले रास्ते और ऊपर से हमारे ड्राईवर महोदय की स्पीड वैसे ही तेज, जैसे आते वक्त थी. मैंने ड्राईवर महोदय को एक-दो बार विजिबिलिटी बिल्कुल कम होने की वजह से थोड़ा धीरे गाड़ी चलाने को कहा भी पर वो महोदय अपने ही धुन में मस्त बस लापरवाही से इतना कह देते आप चिन्ता मत करिए, ये सब हम रोज देखते हैं आपको बिल्कुल सही-सलामत आपके होटल छोड़ेंगे. जब भी गाड़ी शार्प कट लेती तेज गति से मुडती और आगे कुछ दिखाई नहीं देता तो डर के मारे जान हलक में आ जाती और गाड़ी को जोर से पकड़ लेता.
कभी-कभी तो मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि प्रक्रति के ऐसे रूप को देख एडवेंचर महसूस करूँ या हावी होते डर को सत्य समझूँ या प्रक्रति ने जो हमें अपने आगोस में लेकर अपने अलौकिक रूप के दर्शन कराये उसके लिए धन्यवाद करूँ. हमारे बच्चे हम से कहीं ज्यादा मस्ती में एक-एक पल को जी रहे थी, गाड़ी जब किसी बादलों के बड़े समुन्दर को चीरती हुई आगे बढती तो चारों नटखट मिलकर इतने खुश होकर मस्ती में तालियाँ बजाते, नाचते और चीखते कि हमारा डर भी दूर हो जाता. ये नन्हें नादानों को डर छु भी नहीं पा रहे थे. यही गुण अगर हम इन बच्चों से ग्रहण कर ले तो जिन्दगी को देखने का हमारा नजरिया ही बदल जाए और हम जिन्दगी को सही मायने में जी पाएं. हम डरे-सहमें और प्रकृति के अजीबो-गरीब रूप-रंग देख हतप्रद, कई बार तो ऐसा लगा हमने अपनी प्रक्रति को इसके रूप-रंग को, इसके लावण्यता को पहली ही बार देखा या यूं कहें हमने आज से पहले कुछ देखा-जाना ही नहीं. ऐसे ही आश्चर्यजनक रूप देख अचंभित से हम छंगू झील ( Tsomgo Lake) पहुँचे.
बच्चों ने छंगू झील ( Tsomgo Lake) से गुजरते वक्त याक देखा था, तो सबको याक की सवारी करनी थी. कुछ ही पलों में 4 बजने वाले थे तो हमने " बर्फ के भैंस " की सवारी न कर सिर्फ बच्चों को ही सवारी कराने का तय किया. याक को " बर्फ के भैंस " के नाम से संबोधित करने से श्रीमतिजी की भौहें तन गई, समझ गया श्रीमतिजी को भी " बर्फ के भैंस " पर सवारी करने का मन हो शायद. थोड़ी देर बाद श्रीमतिजी ने कहा ठीक ही कहा आपने - जब यहाँ के लोग हमारे यहाँ घूमने आयें तो उनको भैंस पर बिठाना चाहिए और सबके ठहाके से छंगू झील का शांत वातावरण गुंजायमान हो उठा.
मेरे छोटे राजकुमार की दृष्टी से सबसे सुन्दर लगने वाले " बर्फ के भैंस " यानि याक पर बच्चों की सैर शुरू हुई. बच्चों के चेहरे याक के पास पहुँचते ही आश्चर्यचकित और प्रसन्नता मिश्रित भाव से ओतप्रोत थे. सबसे पहले मेरे दोनों रतनधन दादागिरी कर याक पर सवार हो चुके थे, श्रीमतिजी के बहन के दोनों बच्चे आश्चर्यचकित होकर मुहँ खोले सिर्फ देख रहे थे, आखिर कर भी क्या सकते थे.
वैसे मेरे लिए भी " बर्फ के भैंस " को प्रत्यक्ष देखने का यह पहला ही अवसर था, श्रीमतिजी ने शायद अमरनाथ यात्रा में कहीं इस भैंस को देखा था. सांड जैसा तगड़ा मोटा, लंबे-लंबे काले और सफेद बाल, सींग सुन्दर तरीके से रंगीन सजाई हुई और बैठने के लिए रंगीन जीन ने " बर्फ के भैंस " को खूबसूरत तो बना दिया था पर उससे थोड़ी बदबू सी भी महसूस हो रही थी मुझे. पर दूसरी ओर कुछ लड़कियां और औरतें इस भैंसे से ऐसे चिपक-चिपक कर, किस्सी दे-दे कर फोटोसेशन करवा रहीं थी जैसे बिछड़े प्रियतमा से जन्मों-जन्मों के बाद मिलन हो रहा हो. भैंस वाले भाई ने भी कहा हमें वैसे फोटो निकालने को, पर हम से ये न हो सका. आखिर इतनी बदबूदार जानवर को कोई किस्सी देने वाला न था हमारे साथ, तो फोटसेशन कुछ खास न रहा हमारा. मतलब भैंस भाई से हमारी मुलाकात रोमांटिक न हो सकी. बाकी सबको देखकर तो लग रहा था कि हमारी फिल्म में ये मातम का सीन चल रहा है. आखिर मन-मारकर उस खुशनसीब बर्फ के भैंस और बदनसीब लड़कियों और औरतों से नजर हटाया और अपनी कहानी में वापस आ गया.
तो, दोनों राजकुमारों की शान की सवारी निकली और छंगू झील ( Tsomgo Lake) के नजारों और अलौकिक वातावरण का आनन्द लेते हुए सड़क पर यहाँ से वहाँ. याक वाले भाई ने दोनों बच्चों को " बर्फ के भैंस " का नाम " रेम्बों " बताया और बच्चों को मस्ती से घूमते-घुमाते बार-बार बता रहा था - " ये कोई ऐरा-गैर याक नहीं है, सबसे सुन्दर और सबसे सबसे बढ़िया याक है. जिसका नाम " रेम्बों " है " . बच्चे भी रेम्बों-रेम्बों कर चिल्लाते रहे और " बर्फ के भैंस " ओ... ओ.... मतलब याक के सवारी का आनंद लेते रहे. मेरे दोनों बच्चों के बाद दोनों निरीह से बच्चे भी रेम्बों-रेम्बों की रट लगाते लद लिए और मेरे दोनों शैतान रेम्बों-रेम्बों कर डरते-डरते उसे छूने भी रहे. " ये कोई ऐरा-गैर याक नहीं है, सबसे सुन्दर और सबसे सबसे बढ़िया याक है. जिसका नाम " रेम्बों " है " - ये हमें कई बार सुनने को मिले .
बच्चों की याक की सवारी और मौज-मस्ती के बाद हम वापिस हो रहे थे. लौटने हुए रास्ते में एक पड़ाव हमारा फिर से उस जगह था, जहाँ हमने जैकेट और बूट किराये पर लिए थे. जब तक हमने जैकेट और बूट वापस किए तब-तक ससुरजी के आर्डर किये गए गरमा-गरम मैग्गी भी बड़े से बाउल में हमारे सामने थे. सच पूछो तो पेट में चूहे कूद रहे थे, पर मैं गंगटोक पहुंचकर ही पेट-पूजा की सोच रहा था, दो मिनट में गरमा-गरम मैग्गी बाउल से ऐसे गायब हो गई थी जैसे वहाँ कुछ था ही नहीं. बाकी तो पहले ही बता चुका हूँ कि वहाँ खाने को हमारे लिए कुछ था ही नहीं. सिर्फ मटन और चावल का जुगाड़ था और हम ठहरे 100% शुद्ध शाकाहारी.
यहाँ से निकले तो रास्ते में बैग में पड़े नमकीन और अन्य व्यंजन का लुत्फ़ उठाते हुए पेट की अग्नि को शांत करते हुए, संध्या तक हम गंगटोक अपने होटल पहुँचे. शरीर थककर चूर हो चुका था. श्रीमतिजी ज्यादा परेशान दिख रही थी, क्योंकि मेरे छोटे राजकुमार ने पुरे रास्ते उनकी गोद में ही उधम मचाया कभी गाड़ी की सीट पर बैठे ही नहीं. गाड़ी ने हमें टैक्सी स्टैंड पर छोड़ा था क्योंकि शहर में नो एंट्री के वक्त बाहर जाने वाली गाडियाँ प्रवेश नहीं कर सकती और जैसा आप लोगों को मेरी पोस्ट पढ़कर पता चल ही गया होगा कि सिक्किम में ट्राफिक नियम सिर्फ कड़े नहीं हैं, बल्कि लोग स्वत: ही इन नियमों का पालन भी करते हैं. यहाँ से हमें लोकल टैक्सी लेकर माल रोड़ पर ही स्थित अपने होटल पहुँचाना था. काफी देर की भाग-दौड़ और मसक्कत के बाद सिर्फ एक गाड़ी मिल पाई, जिसमें सिर्फ चार लोग ही जा सकते थे जो कि यहाँ का नियम है. सबको भेज दिया गाड़ी में बिठाकर, मेरे साथ श्रीमतिजी और मेरे बड़े सुपुत्र रह गए. आधे घंटे तक गाड़ी के लिए भागा-भागी करता रहा पर कोई फायदा न हुआ. एक खली गाड़ी आती और लोग उसपर ऐसे टूटते जैसे मधुमक्खी अपने छत्ते में टूट पड़ती है. मुझे यह सब करने में बड़ा ही संकोच होता है, सच कहूँ तो ये मुझसे आज तक न हुआ.
आखिर खीजकर पैदल ही गूगल बाबा (मैप) के सहारे हम चल पड़े. 1 किलोमीटर से ज्यादा पैदल खुद को थके होने के बावजूद भी घसीट चुका था तो हमें एक खाली गाड़ी मिली और हम खुश हो लिए. पर हाय रे किस्मत, थोड़ी दूर जाकर ही जाम ऐसे फंसे कि ड्राईवर ने हाथ जोड़ दिए आगे गया तो बाहर आना मुश्किल है तो आप यहाँ से पैदल ही चले जाइये. ड्राईवर ने पतली सी गली होकर मार्केट तक पहुँचने का शोर्टकट रास्ता बताया, जिसपर पूछते-पाछते हम बेहाल होकर माल रोड़ पर पहुँचे. कई बार तो समझ ही नहीं आ रहा था कि हम रास्ते पर चल रहे हैं या किसी के घर में प्रवेश करने वाले हैं. पहाड़ी रास्ते की तरह ऊपर नीचे जाती सीढियों की वजह से बेटे की हालत क्या हो रही होगी वो हम अपने थकान से अनुभव कर रहे थे. पर थोड़ी न-नुकर के बावजूद भी बेटे ने भी गंगटोक माल तक का लगभग किलोमीटर तक का सफर फ़तेह कर लिया. बाद में पता चला कि जाम कई घंटे तक लगा रहा.
अब पेट में गणपति बाप्पा के मूषकराज उधम मचाये थे, तो सीधा माल रोड़ का रुख किए और माल के मार्केट में ही पतली सी नीचे जाती गली में स्थित मारवारी भोजनालय में छककर भोजन किया. जिसे हमने कल रात चहलकदमी करते वक्त देखा था. बाकी लोग होटल में ही खाना खाने वाले थे. मारवारी भोजनालय के भोजन ने मन तृप्त कर दिया, वरना NJP से लेकर दार्जिलिंग तक तीन दिनों तक जो खाना हमने खाया वो बिल्कुल ही बेस्वाद था और बस जीने के लिए खाने वाली बात हो रही थी. सबसे घटिया खाना हमने दार्जिलिंग के होटल में खाया था. दोनों दिन लेट होने की वजह से और कोई विकल्प नहीं रह रह जाता था.
चहलकदमी करते मैं, श्रीमतिजी और मेरे सुपुत्र होटल की बढ़ रहे थे की बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें टपकने लगी. वहीँ से एक बड़ा सा छाता ख़रीदा ताकि गीले न हो जाएँ और जल्द से होटल की ओर लपके. वैसे एक बात मैं दार्जिलिंग से नोटिस कर रहा था, यहाँ ज्यादातर इस्तेमाल होने वाले छतरी का आकार-प्रकार हमारे छतरी से काफी बड़ा था. तो बड़ा सा छाता इस यात्रा की निशानी के रूप में हम लोगों की एकमात्र शौपिंग थी. होटल के कमरे में बाकी के लोग भी खाना खा चुके थे और अब तो बस निद्रा देवी के आगोस में समाने को एक अदद बिस्तर की जरूरत थी. जिसकी 5000 रुपल्ली के इस सुइट में कोई कमी नहीं थी.
शुभ रात्रि
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