आज यात्रा का तीसरा दिन है । मैं सुबह 6-7 बजे तक दार्जिलिंग से गंगटोक निकल जाना चाहता था, ताकि वहां पहुंचकर दिन में आसपास के स्थलों को देख सकूँ और थोड़ा समय देकर अपने बजट में होटल की खोज कर सकूं । रात हो जाने के बाद आपके पास कोई विकल्प ही नहीं रहता, होटल दिन में ही खाली होते हैं सो उस समय काफी विकल्प होते हैं । पर ससुरजी 1 बजे के पहले निकलने को तैयार ही नहीं हुए । दिन में 1 बजे निकलने का मतलब था, उस दिन का बेवजह बीत जाना । और घुमक्कड़ी के लिये ये एक महंगी बीमारी है, जिसमें दर्द बेइंतहा होता है । मैं क्या कहना चाह रहा हूँ, इस बात को मेरे घुमक्कड़ मित्र समझ रहें होंगे ।
इस तरह तीसरा दिन बेकार जाता देख मैं प्रातः 5:30 बजे हल्की जैकेट पहन, सर पर टोपी और अपने अनजाने रास्तों के हमसफर मोबाइल (अंजाने जगहों पर गूगल बाबा के सहारे बिना किसी से पूछे भी कहीं भी निकल पड़ता हूँ, बस मोबाइल में नेटवर्क आ रहा हो) को लेकर निकल पड़ा सुबह की सैर को वो भी दार्जिलिंग जैसी हसीन वादियों में ।
बाहर आते-आते गूगल बाबा ने आसपास के दर्शनीय स्थलों की जानकारी उपलब्ध करा दी थी । ये पता चल गया था कि हम जज बाज़ार में ठहरे हुये हैं, वहाँ पास के मोड़ पर ही पट्रोल पम्प था । सुबह की हवा ताजगी और ठंडक लिये थी । शाम में ड्राइवर ने बताया था कि ऊपर माल है, जिसकी पुष्टी गूगल बाबा भी कर रहे थे । सुबह की सैर को दिशा मिल चुकी थी ।
ये संयोग मात्र ही था कि सुबह की सैर, मेरी दार्जीलिंग हेरिटेज वाक हो गई । आगे बढ़ते ही नेहरू रोड पर सदियों पहले शुरू हुई केवेन्टर्स डेयरी की केवेन्टर्स रेस्टोरेंट दिखी, ये भारतीय मिल्कशेक ब्रांड पुनरुद्धार पथ पर है और बड़े शहरों के माल में जबर्दस्त डिमांड में है । पास ही में एक और पुराने जमाने की याद दिलाती ग्लेनरीज़ रेस्टोरेंट दिख रही थी । यहाँ मांसाहार खाने का स्वाद बेहद ही शानदार और हटके है, जैसा कि कुछ लोगों से जानकारी मिली थी । यहां की बेकरी भी बहुत ही फेमस है । वैसे ये भी बताता चलूँ कि मेरा परिवार विशुद्ध शाकाहारी हैं और मांस, मदिरा से दूर तक कोई नाता नहीं | इतनी सुबह दोनों रेस्टोरेंट बंद थे, बस देखकर आगे बढ़ गया ।
वहीं पास में लादेन ला रोड पर दार्जिलिंग की मुख्य पोस्ट ऑफिस दिख गई, जो युनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल है । दार्जिलिंग की मुख्य पोस्ट ऑफिस मई 1921 को शुरू हुई और इस क्षेत्र की सबसे पुरानी पोस्ट ऑफिस होने का गौरव इसे प्राप्त है ।
आगे लादेन ला रोड पर ही क्लॉक टावर नज़र आयी , यहाँ सीढ़ियों ऊपर की ओर गयी थी । मैं भी सीढ़ी से ऊपर चला गया । क्लॉक टावर नगरपालिका भवन का आगे का हिस्सा है । इसका निर्माण 1850 में टाउन हॉल के रूप में किया गया था, जो बाद में नगरपालिका में तब्दील कर दिया गया ।
थोड़ा आगे ऊपर की ओर बढ़ा तो मुझे चौरास्ता नज़र आया, जो दार्जिलिंग की सबसे सबसे प्रसिद्ध जगह हैं जिसका जिक्र हमेशा दार्जलिंग के नाम के साथ तो होता ही है ।
एक चौड़ा सा मैदान, सामने एक ऊंचा स्टेज, सुंदर कलाकारी के साथ बना । ये जगह ऊंचाई पर थी, यहाँ से भी वादियों का सुन्दर नजारा दिख रहा था, कंचनजंघा की ऊँची-ऊँची चोटियाँ | थोड़ी देर, इस बेहद ही खूबसूरत मार्किट से दिखने वाले नज़ारे को निहारता रहा । कुछ लोग वहाँ सुबह की एक्सरसाइज कर रहे थे, मैं भी स्टेज पर चढ गया और सूर्य नमस्कार करना प्रारंभ कर दिया । ग्यारह राउंड सूर्य नमस्कार पूरे होने पर गर्मी का अहसास होने लगा, माल एरिया में बैठने के लिये कुर्सीयां लगी थी, एक पर जाकर लेट गया । पांच मिनट लेटने के बाद सूर्य नमस्कार की वजह से तेज गति से चलने वाली स्वांस, तेज चलती दिल की धरकन और शरीर का तापमान सामान्य हो चला था |
स्टेज से दाहिनी ओर रास्ता ऑबसर्वेट्री हिल व्यू पॉइंट की ओर गया था | उस रास्ते पर थोड़ी दुर बढ़ने पर एक बिल्कुल पतला सा रास्ता ऊपर पहाड़ी पर जाता दिखा, ऊपर महाकाल मन्दिर होने की पुष्टि वहां लगा बोर्ड कर रहा था | महाकाल मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि यहां 1782 ईस्वी में स्वयम्भू शिवलिंग प्रकट हुये । मन किया ऊपर चला जाऊँ, भोले-भंडारी के दरबार में हाजरी देता चलूँ | पर अभी स्नान-ध्यान किया नहीं था, इस वजह से इस विचार को त्याग आगे ऑबसर्वेट्री हिल व्यू पॉइंट की ओर बढ़ गया ।
महाकाल मन्दिर का इतिहास बता रहा था कि 1765 ईस्वी में यहाँ एक बौद्ध मठ का निर्माण किया गया था, जो 1815 ईस्वी में गोरखा युद्ध की वजह से लगभग नष्ट ही हो गया था | 1861 ईस्वी में इसका निर्माण फिर से किया गया, जिसे बाद में स्थानांतरित कर नीचे 1.5 किलोमीटर दूर बनाया गया, जिसे आज भूटिया बस्टी गोम्पा मठ के नाम से जाना जाता हैं । इस वजह से जितनी श्रद्धा से हिन्दू महाकाल मन्दिर में भगवान शिव के दर्शन और पूजा के लिये आते हैं, उतनी ही श्रद्धा से बौद्ध भी आते हैं । यहाँ दोनों धर्मों की आस्था के संगम को देखा जा सकता है, इस बारे में कुछ जानकारी सुबह की सैर पर निकले एक बृद्ध से मिली, जो रास्ते में धीरे-धीरे चलते मिले थे ।
सुबह की सैर करते कई लोग रास्ते भर दिख रहे थे, कई तो खुद के बदले कुकुरों को सैर करा रहे थे, ऐसा लग रहा था । कुकुर आगे-आगे और सेवक पीछे – पीछे | दार्जिलिंग के लोगों का प्राणी प्रेम सुबह की सैर के वक्त देखा जा सकता है । एक-दो महानुभाव को तो चार-चार कुकुर मिलकर भगा रहे थे, ये नज़ारा देख मेरी हँसी छूट रही थी ।
ऑबसर्वेट्री हिल व्यू पॉइंट पर सुंदर बैठने की जगह बनी थी, वहीं बैठ कंचनजंगा की बर्फीले चोटियों को निहारता रहा । हिमालय की बिल्कुल शांत और तटस्थ पर्वत शिखरों को इतनी रमणीक जगह से निहारने मात्र से अपार सुख का अनुभव हो रहा था । कुछ गोरखा युवाओं की एक टोली योगाभ्यास कर रही थी । सुबह-सुबह गंगटोक ना निकल पाने की खिन्नता गायब हो चुकी थी । मन प्रफ्फुलित हो चला था, इस बात की खुशी थी कि आज का दिन व्यर्थ नहीं बीतने वाला था । काफी समय बीत गया था बैठे-बैठे, उठकर आगे की ओर चल दिया |
डाउन माल रोड़ पर आगे बढ़ा तो वहाँ राज भवन का बोर्ड नजर आ गया, झट से मोबाइल निकाल गूगल बाबा से इसकी पुष्ठी कराई | हाँ, ये राज भवन ही है, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल का गर्मियों में ठिकाना | जाने क्यों, वहाँ ज्यादा देर ठहरना मुझे ठीक नहीं लगा | नीचे जाती रोड़ की ओर बढ़ गया | चलते-चलते राज भवन के बारे में गूगल बाबा की दी जानकारी पर नजर डाल रहा था | 1840 तक ये किसी अंग्रेज की निजी जायदाद थी, 1840 में इसे कूच बिहार के महाराजा ने ख़रीदा | जिसे 1877 में कूच बिहार के महाराजा से अंग्रजी हुकूमत ने खरीदा | जैसा की राज भवन की वेबसाइट पर जानकारी उपलब्ध हैं |
अब यहाँ से तीन रास्ते थे, एक ऑबसर्वेट्री हिल व्यू पॉइंट की ओर जिधर से मैं आ रहा था | दुसरा रास्ता आगे हैप्पी वैली चाय बागान की जानकारी दे रहा था | और तीसरा रास्ता फिर से मुझे माल एरिया तक जाता दिख रहा था | मैं तीसरे रास्ते पर चलकर वापिस होने की सोच रहा था, अब थोड़ा थक भी चुका था | मै नीचे जाती सड़क की ओर आगे बढ़ने लगा | जो मुझे वापस माल एरिया से होते हुए होटल की ओर ले जाते | राज भवन के ठीक बगल की छोटी सी पहाड़ी पर कोई होटल था शायद, सुंदर दिख रहा था |
आगे बढ़ते ही इसी पहाड़ी के दूसरे छोर पर ऊपर सेंट एंड्रयूज चर्च दिख रहा था, जो बिल्कुल ही पुराना सा दिख रहा था | अंग्रेजी हुकूमत ने जब दार्जलिंग को अपनी मौज-मस्ती का ठिकाना बनाया तो ये चर्च भी उसी समय बनाया | सेंट एंड्रयूज चर्च का निर्माण 1843 में किया गया था, पर भूकम्प की वजह से बहुत ही बुरी तरह से छतिग्रस्त होने की वजह इसका पुनर्निर्माण 1873 में किया गया |
ऊपर से ही सेंट एंड्रयूज चर्च के ठीक सामने गोरखा रंग मंच, जिसका नाम भानु भवन भी है दिख रहा था | यह शहर में होने वाले गीत-संगीत या अन्य कार्यकर्मो का प्रमुख स्थल है | बाहर से देखकर कुछ समझ ही नहीं आ रहा था की आखिर है क्या? देवी सरस्वती की सुंदर प्रतिमा देख मुझे तो ये मन्दिर का आभास दे रहा था, पर गूगल बाबा से मिली जानकारी से तथ्य सामने आया | तभी कहा जाता है “सूरत देख सीरत का पता नही लगाया जा सकता |”
मैं वापस माल रोड़ की ओर बढ़ रहा था, भानु भवन से एक सड़क ऊपर की ओर गई थी | अब रास्ते में स्कूल जाने वाले बच्चों का झुंड नजर आने लगा था, जो निचे खड़ी गाड़ी की ओर जा रहे थे | माल एरिया में किसी भी वाहन के घुसने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ है | थोड़ा ऊपर चला ही था की दुसरी सड़क पर , जो नीचे की ओर चौक बाज़ार को जा रही थी, बंगाल नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम का बोर्ड नज़र आ रहा था | इतनी सुबह तो ये बन्द ही पड़ी थी, यहाँ दार्जलिंग और आसपास पाये जाने वाले फूलों और पोधों का संग्रह है | अगर आपकी रूचि फूल-पौधों में है और दार्जलिंग प्रवास में समय बिताना हो तो आप यहाँ भी जा सकते हैं |
और भी कुछ जगहें गूगल बाबा मुझे सुझा रहे थे, पर माल के चौरास्ता पहुँचते-पहुँचते 8:30 हो चुके थे | थकावट भी महसूस हो रही थी, सबसे ज्यादा तो प्यास सता रही थी | भुख भी महसूस हो रही थी | आखिर सुबह-सुबह 6 किलोमीटर की दार्जीलिंग हेरिटेज वाक पूरी होने वाली थी और अभी होटल तक का सफर तय करना बाकी था | अब आप कहेंगे आपने ये किलोमीटर कैसे मापा ? असल में मैंने होटल से निकलते ही स्टेप काउन्टर एप को एक्टिव कर दिया था, जिससे मुझे ये पता चल सके की आखिर मैंने कितना सफर तय किया |
सुबह की सैर की चंद फोटो फेसबुक पर अपडेट की थी, धूमते-घूमते | मेरे अपडेट में उन जगहों की फोटो को देख जो हमने कल नहीं देखा था, होटल के कमरे में पड़ी श्रीमतीजी और उनकी बहनजी का मन बेचैन हो उठा | श्रीमतीजी ने तो कॉल कर जल्दी आ जाइये के संदेश के साथ, तुनककर ये भी कह दिया पहले बताते इतनी अच्छी जगह देखने जा रहे थे तो हम भी साथ हो लेते | ऐसा नहीं था कि मैंने आमंत्रण नहीं दिया था, निकलते वक्त सबको कहा- चलना है क्या मार्निंग वाक पर ? पर सब अभी कुछ देर और चैन की नींद लेना चाहते थे | मैं आखिर कर भी क्या सकता था |
होटल पहुँच कर पहले थोड़ा आराम चाहिये, फिर शावर लेकर पेट पूजा | होटल के कमरे पर पहुंचा तो 9:15 बज चुके थे, जूते निकाल बिस्तर पर निढाल हो गया | सबका मार्केट जाने का कार्यकर्म था, पर मैं लंबी वाक की वजह से थक चुका था सो साफ़ मना कर दिया और सो गया | आज हमें 1 बजे गंगटोक, सिक्किम निकलना निकलना हैं, अभी काफी समय हैं |
यहाँ उपलब्ध सारी जानकारी चलते-फिरते गूगल बाबा उपलब्ध करा रहे थे | सुबह की दार्जीलिंग हेरिटेज वाक से ये भी पता चल रहा था की यहां का वातावरण ज्यादा पर्यटकों और अव्यवस्थित शहरीकरण की वजह से तेजी से बिगड़ रहा है । शहरीकरण का आलम तो ये है कि मार्केट या शहर में रहने पर ये पता ही नहीं चलता की हम 6700 फीट की ऊंचाई वाले किसी हिल स्टेशन में हैं | छोटे-छोटे होटलों के पास पहाड़ों पर कचड़ा फैला था | जो यहाँ की खूबसूरती को ग्रहण लगा रहा था और पहाड़ों की प्राकृतिक और नैसर्गिक छटा को धीरे-धीरे निगल रहा है | इन सबमें यहाँ आकार मौज-मस्ती करने वाले हमारे जैसे सैलानीयों का ही दोष है | लेकिन साथ ही यहाँ की नगरपालिका और प्रशासन को भी कड़ाई से होटलों पर नकेल कसना चाहिये और स्वछता पर ध्यान देना चाहिये | वैसे तो दार्जीलिंग शहर साफ-सुथरा ही था, पर छोटे होटलों के आसपास पहाड़ों पर जहाँ-तहां कचरा बिखरा पड़ा था |
मेरे विचार से दार्जीलिंग आने वालों को मार्केट एरिया से थोड़ा पहले ही रुकना चाहिये ताकी हिल स्टेशन के सफर का आनन्द ले सकें | ये अलग बात हैं कि ऍमजी गाँधी रोड़, माल एरिया और नीचे मार्केट के अतिरिक्त अन्य कहीं भी होटल महंगे होंगें | गर्मियों में काफी भीड़ होती है इसलिये होटल पहले से बुक करा लें तो अच्छा रहेगा, वरना जैसा की हमारे साथ हुआ वो आपके साथ भी न हो |
हमारी दार्जलिंग यात्रा अंतिम चरण पर थी, पर दिल में कई और जगहों के साथ टॉय ट्रेन की सवारी न कर पाने की कसक बाकी रह गई | कल हमारे पास समय नहीं था, फिर बाद में पता चला कि अभी पीक सीजन होने की वजह से काउन्टर पर टिकट मिलना भी नामुमकिन हैं | टॉय ट्रेन की सवारी की ख्वाहिश अब अगले ट्रिप में पूरी होगी | अभी भी मिरिक, दार्जीलिंग उड़नखटोला (Darjleeing Roapway), जापानी बौद्ध मंदिर, शांति स्तूप, समतेन चोलिंग मोनेस्ट्री, सिंगालीला राष्ट्रीय उद्यान, महाकाल मन्दिर, संचल झील एवम वन्यजीव अभयारण्य, जैसे कई और जगह समय की कमी की वजह से छूट रहे थे |
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