2018 में लिपुलेख बॉर्डर पैदल पार कर ,जब हमारा जत्था तिब्बत में प्रवेश हुआ तो हमें तकलाकोट नाम के शहर में रोका गया था। हमे घर छोड़े हुए और यात्रा पर आज 21 दिन हो चुके थे। लिपुलेख बॉर्डर रात को 1.30 बजे से ट्रेक शुरू करके पार करनी होती हैं।ऊंचाई करीब 17500 फीट रहती हैं,मतलब इस ऊंचाई पर पेड़ ना के बराबर मिलते हैं और इसीलिए ऑक्सीजन की कमी भी होती हैं।
इतनी ऊंचाई पर कंपकपाते सुबह हम करीब 7 बजे तक बॉर्डर पहुंच गए थे ,बॉर्डर के उस पार कुछ नीचे की ओर ट्रेक करके जाना था ।जहां चाइनीज आर्मी और हमारे लिए बसे लगी थी। करीब 7 से 8 दिन ट्रेक करके हम यहां आए थे ,तो सभी थके हुए तो थे ही। जब हमे तकलाकोट जैसे बड़े चाइनीज शहर में लाया गया तब जाकर हमे थोड़ा रिलेक्स हुआ।पिछले काफी दिनों से हम ऐसे ऐसे गांवों में घूम रहे थे जहां केवल कैलाश और आदि कैलाश यात्रियों के अलावा किसी का आना एलाऊड नहीं था।
हम 2 दिन तकलाकोट शहर रुके।जहां हमने काफी मजे किए।ये सारे दिनों का विस्तार में वृतांत और तकलाकोट शहर के बारे में जानकारी तो आपको "चलो चले कैलाश " पुस्तक में पढ़ने को मिलेगी।तीसरे दिन हमे ले जाया गया तकलाकोट से करीब 100 किमी दूर ‘दारचेन’ गांव में। इसी 100 किमी के दौरान राक्षस ताल और मानसरोवर झील के एक बार तो दर्शन हमे करवा दिए थे।
दारचेन एक छोटा सा तिब्बती गांव हैं ,काफी ज्यादा खूबसूरत गांव। शायद गांव पूरा 4 से 5 बड़ी सड़कों के अंदर ही बसा हुआ था।एक पहाड़ी पर बड़ी मोनेस्ट्री बनी दिखाई दे रही थी।यहां ठंड काफी थी क्योंकि यहां का एल्टीट्यूड 15000फीट के करीब था।
हमे कमरे बांटे गए।एक मंजिला इमारत में हम सभी के कमरे थे।अचानक किसी ने मेरे कमरे की बेल बजाई ,दरवाजा खोलते ही एक सहयात्री के साथ में होटल के सबसे अंतिम कमरे की तरफ गया और देखा तो एक बार तो कुछ समझ नहीं आया। ये क्या मेरी आंखों के सामने "कैलाश पर्वत" था।काफी भावुक क्षण था,धीरे धीरे पुरे बेच को पता चल गया कि यही से कैलाश के प्रथम दर्शन होते हैं।काफी यात्रियों की आंखों में आंसू आए होंगे आखिर 11 दिन तक उत्तराखंड में फंसे रहे ,यात्रा अधर में अटकी रही।पता नहीं था यहां पहुंच पाएंगे भी या नही ,और आज चाहे काफी दिनों लेट ही सही ,कैलाश के दर्शन हो ही गए थे,यह बात सोच के हर कोई भावुक हो रहा था। उस समय को लिख पाना मुश्किल हैं।
दारचेन का मतलब तिब्बती में होता हैं : एक बड़ा ध्वज। इसी ध्वज से गुजरकर कैलाश पर्वत की 3 दिन की पैदल दुर्गम परिक्रमा शुरू की जाती हैं।हमारी होटल के बाहर ही ,जमीन पर कई तिब्बती वेंडर्स यात्रा स्मृति चिन्ह,मालाए , कैलाश के फोटोज बेच रहे थे। वो ना हिंदी समझते ना अंग्रेजी।हम तिब्बत में सभी जगह मोलभाव करने के लिए मोबाइल का कैलकुलेटर का उपयोग करते थे।
जब हम खाना खा कर यहां के मार्केट में घूमने गए तो देखा कुछ दुकानें बनी हुई थी जिनमें सुखी मछलियां , दवाइया , जड़ी बूटी, तिब्बती ध्वज ,मालाए ,ट्रेक की छड़ी ,गर्म कपड़े आदि मिल रहे थे।जगह जगह काफी बोध भिक्षु भी नजर आ रहे थे । पहाड़ी पर को मोनेस्ट्री थी उसी के सामने काफी दूरी पर "गुरला मांधाता" पर्वत श्रेणी दिखाई दे रही थी।यहां की मुख्य सड़क को छोड़ कर जो बची हुई 2 से 3 सड़के थे जिनमे गांव बसा था ,वहां की बदबू असहनीय थी। हमे भागना पड़ा ,और आलम यह हो गया कि कुछ यात्रियों की तबियत भी खराब हो गई।जिन्हे ग्रुप के सहयात्री डॉक्टर्स ने संभाला।
यही से जैन धर्म की सबसे पवित्र यात्रा, ' अष्टपद यात्रा ' भी शुरू होती हैं। कहते हैं भगवान ऋषभदेव जी यही से आठ कदम चल कर कैलाश पर्वत में समा गए थे।किन्हीं कारणों से चीन ने इस यात्रा पर बैन लगाया हुआ था। दारचेन के 7 किमी आगे ही "यमद्वार " नाम की जगह से पैदल कैलाश परिक्रमा शुरू होती हैं। कैलाश यात्रियों को एक रात दारचेन ठहरा कर ही ,इस परिक्रमा पर भेजा जाता हैं।
चाहे गांव की गलियां भयंकर बदबूदार थी ,लेकिन गांव के चारो तरफ दिखाई देते ग्लेशियर और गांव की खूबसूरत इमारतें घुम्मकड़ो को एक स्वर्ग के द्वार की तरह लगने लगती हैं।
– ऋषभ भरावा (✍️ चलो चले कैलाश)