आज कहानी दारमा घाटी की दो महिलाओं की:
*एक जो अपने दानकर्मो की वजह से जानी जाती है
*एक जो आजकल अपने इंसानियत का धर्म निभा रही
✨बात कर रहा मैं "दानवीर" जसूली "शौक्याणी" दताल या जसूली लला (उनको प्यार से दारमा वासी लला यानी अम्मा कहते है)
और "अन्नपूर्णा" जयंती दताल की , मैं उनको बुवाजी कहता हूं
✨✨जयंती दताल,दारमा घाटी के दांतू गांव की आम महिला जो हमेशा एक चीज कहती है लोगो का पेट भरना सबसे बड़ा धर्म है ,वह दांतू गांव में अपनी खुद का होमस्टे का संचालन करती है ।संचालन के साथ ही अगर कोई जरूरतमंद हो तो उनके रुकने खाने की व्यवस्था करती है ,
उन्हें दारमा घाटी भ्रमण आए सैलानी जो भी उनके वहा रुकते है उनके हाथों के खाना को कभी नहीं भूलते ,उन्हें अन्नपूर्णा भी कहते है ,जरूरत के समय ,मुसीबत के समय हर किसी के साथ डट कर खड़ी रहती है और जानवरो से काफी ज्यादा प्रेम करती है।
✨✨दानवीर जसूली लला,19 वी शताब्दी की बात है ,उनकी गिनती गढ़वाल-कुमाऊँ के अमीर लोगों में होती थी ,कम उम्र में विधवा और इकलौते बेटे की भी अस्माक मौत हुई जिसका गहरा असर उन पर पड़ा। निराशा, हताशा हावी होने लगी। अकेलापन उन्हें तकलीफ देता था। ऐसे में इतना धन किस काम का जो अकेलेपन को दूर न कर पाए
इसी हताशा के भंवर में फस कर एक दिन जसुली देवी ने अपना सारा धन धौली गंगा में बहाने का निश्चय किया। उन दिनों कुमाऊँ के कमिश्नर हुआ करते थे हैनरी रैम्जे। रैम्जे का काफ़िला उस वक़्त पास से ही गुज़र रहा था तो ये ख़बर उन तक जा पहुँची। वो एकाएक जसूली देवी के पास गए और समझाया ये सारा धन अगर लोगों की भलाई और समाज के कार्यों में लगेगा तो ज्यादा बेहतर होगा। रैम्जे का सुझाव जसुली देवी को अच्छा लगा। उसके बाद वो सारा धन रैम्जे अपने काफ़िले के साथ लेकर चल निकले उस धन से कुमाऊँ, तिब्बत और नेपाल में जगह जगह धर्मशाला बनाई गई जिनकी संख्या 350 के करीब थी। कुमाऊँ में सबसे ज्यादा ये बनाई गई तब जो तीर्थ यात्री कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर जाते थे या जो तिब्बत के साथ व्यापार करते थे, वो यहाँ रुककर विश्राम और जलपान करते थे।
*जब भी आप कभी दारमा जाए दांतू जाए तो बुआजी से जरूर मिलना ,मेरा प्यार भी देना और हा उनके हाथ की पलथी की रोटी (कुटू) का स्वाद लेना ना भूले❤️